समीक्षक:डॉ देवी प्रसाद तिवारी ,नई दिल्ली । 'पगडंडी में पहाड़'को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि लेखक ने मनोरम पहाड़ी दृश्यों को कागज के पन्नों पर उकेर दिया है। 'पगडंडी में पहाड़ 'में प्रतिष्ठित साहित्यकार जय प्रकाश पाण्डेय द्वारा पहाड़ी जीवन के मध्य की गयी अनुभूति की अनुगूंज है।। 'पगडंडी में पहाड़'को पढ़ते हुए लेखक की ऐतिहासिक दृष्टि के साथ ही साथ उसकी भाषा और भूगोल की बेहतर समझ का पता भी चलता है। यात्रा वृतांत एक ऐसी विधा है जो पाठकों को  प्रवास के लिए प्रेरित करती है,प्रवास के दौरान उनका मार्गदर्शन भी करती है। 'पहाड़ों की रानी मसूरी' के विहंगम दृश्यों का वर्णन करते हुए लेखक पहाड़ों की रानी मसूरी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर भी प्रकाश डालते हैं, यही कारण है कि वे अपने यात्रा वृतांत में मसूरी के बनने और बसने की पूरी कथा लिखने का प्रयास करते हैं। मसूरी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है , ताजा हवाओं की सिहरन ललचाती है, एक संजीदा लेखक का इस ओर जाना स्वाभाविक ही है। मसूरी झील से लेकर कैंपटी फाल तक की  यात्रा के बीच में आने वाले अनेक दृश्य और अवसर हैं जो लेखक को आकर्षित करते है। मसूरी झील में नौका विहार से आरंभ हुई यात्रा लेखक को कैंपटी फाल तक ले जाती है, कैंपटी फॉल में लेखक नाव में नहीं है, जल में है। वह प्रकृति की गोद में होता है।
जे.पी.पाण्डेय लिखते हैं कि" वाटर फॉल की तलहटी में बने कुंड के ठंडे पानी से नहाने के रोमांच ने मुझे पानी में उतरने को बाध्य कर दिया। ऊंचे झरने की गिरते पानी की चोट शरीर का मसाज कर देती है। उठती पानी की बूंदों की बौछार पूरे वातावरण को अत्यंत ही में रमणीक बनाती है। मैं बहुत देर तक कुंड में बच्चों के साथ खेलता रहा और इस प्राकृतिक स्थल की शोभा निहारता रहा।" जे.पी. पाण्डेय की रचनाधर्मिता सुरम्य वादियों का वर्णन करते हुए मानो खिल उठती है।पहाड़ों में अनेक ऐसे स्थान हैं ,जिसकी महत्ता के संदर्भ में कम ही लोग जान पाते हैं लेकिन 'पगडंड़ी में पहाड़'का लेखक स्थान विशेष की महत्ता को पठाकों के समाने ले आता है। 'पहाड़ों की रानी मसूरी' को जी भर निहारने के बाद लेखक 'झाड़ी पानी फाल' के बहाने ओकग्रोव स्कूल की ओर लौटता है। ओकग्रोव स्कूल के आरम्भिक दिनों से यात्रा का आरम्भ करते हुए, विस्तारपूर्वक उसकी महत्ता का वर्णन करते हुए लेखक चीड़ और ओक की जीवंतता का अनुभव करता है।वह उन गगनचुंबी वृक्षों से संवाद करता है।" यूं तो मेरा मन इन वादियों के अछूते कोनों में ही बसता है। सामने पहाड़ी पर खड़े वाचाल ओक और चीड़ के पेड़ मुझे कुछ कहते हुए से प्रतीत होते थे। स्कूल की चारदिवारी में खड़े होते हुए भी इन हवाओं में तैरता मेरा मन शीघ्रातिशीघ्र  झड़ीपानी फाल पहुंच जाना चाहता था।" लेखक की शिक्षा क्षेत्र में भी विशेष रूचि है जिसके कारण उन्होंने अवसर पाते ही ओकग्रोव जैसे महत्वपूर्णं स्कूल का प्रधानाचार्य बनना स्वीकार किया होगा। प्रतिष्ठित विद्यालय का संचालन करते हुए ,सुरम्य वादियों का अवलोकन करना और फिर उसकी एक-एक दृश्य को टाँक देना लेखक की लेखकीय प्रतिभा को दर्शाता है। हिमालय की ऐतिहासिक कंदरायें सदियों से सामान्य जनों के लिए कौतूहल का विषय रही हैं। समय-समय पर जिज्ञासु जनों की यात्रा इन कंदराओं से होकर गुजरती रही है। अपनी अनुभूति को अपनी - अपनी विलक्षण प्रतिभा के माध्यम से जिज्ञासुओं ने अभिव्यक्ति करने का प्रयास किया। किसी की अभिव्यक्ति मौखिक रही जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रही और कुछ ने अपनी अभिव्यक्ति को कागज को पन्नों पर सजा दिया। लेखक ओकग्रोव स्कूल पहुंचकर उसका इतिहास खगांलता है, उसके आस-पास के स्थान की यात्रा करता है। इन यात्राओं के दौरान वह कुछ  कुछ नए की तलाश में होता है। वह पाठकों के बीच कुछ नया प्रस्तुत करना चाहता है और यही कारण है कि वह अपनी अनुभूति को बिना किसी लाग लपेट के पाठकों से साझा करता है। झड़ी पानी जलप्रपात का वर्णन करते हुए लेखक लिखता है कि" दिनकर की सुनहरी रश्मियों से खेलती चहकती जल की अनंत बूँदें। अविरल गति से  बेधड़क नीचे गिरती दूधिया जल धार! उसके नेपथ्य में धनुष की आकार में बना इंद्रधनुष जैसे झरने को सलामी दे रहा हो।" लेखक दृश्यों से साक्षात्कार करता है और इस साक्षात्कार के दौरान उसे जो अनुभूति होती है उससे वह अपने इस यात्रा वृतांत आगे बढ़ाता है। स्थान विशेष की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए लेखक प्रकृति के बिंबो को आत्मसात करने का प्रयास करता है। बूँदों का बनने और फिर विलीन होने को लेखक जीवन से जोड़ कर देखने का प्रयास करता है। ऐतिहासिक दृष्टि और साहित्यिक समझ वाला लेखक झड़ी पानी फाल के किनारे बैठा हुआ दार्शनिक हो उठता है।" मैं एक छिड़कती हूं ऊपर से देखता और उसे नीचे गिरता निहारता रहा। वही बूँद नीचे जल कुंड में गिरकर विलीन हो रही थी। मैं फिर से नई बूंद को तलाश लेता और उसका उत्कर्ष, प्रवाह और विलीन होना देखता रहता। यह संसार भी इन्हीं बूंदों जैसा है। सृजन उत्कर्ष, प्रवाह और पतन सब एक क्रम से चलते रहते हैं। जीवन भी इसी क्रम को साझा करता है। संसार रूपी झरने में हम सब एक बूंद की तरह ही तो हैं जो अनवरत प्रवाहित होता रहता है।"
पहाड़ी झरनों का अपना सौंदर्य है। झरनों का अपना संगीत है। इन झरनों से होकर प्रवाहित होने वाला जल औषधीय गुणों से परिपूर्णं होता है। कुछ झरनों तक पहुंचना सुगम है और कुछ तक पहुंचाने के लिए दुर्गम पहाड़ी रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है। ऐसे झरनों तक पहुंचने के अपने खतरे हैं। साहस और समझदारी के साथ इन झरनों तक पहुंचाने वाले यात्रियों ने कुशल कलावंत की भांति उनके संगीत के साथ  स्वयं को एकाकार किया। इन झरनों की गोद में स्वयं को पाकर जे.पी. पांण्डेय की सृजनात्मकता मुखर हो उठती है। केंपटी फॉल ,झड़ीपनी फाल, माँसी फाल, संगम फाल, शिखर फॉल,भट्टा फाल जैसे  अनेक झरने पहाड़ी जीवन की जीवन रेखा हैं। नदियों की परिक्रमा करने की परंपरा सदियों पुरानी है। नदियों के साथ-साथ चलने वालों का अपना अपना उद्देश्य रहा है। कुछ की दृष्टि धार्मिक रही है, तो कुछ की वैज्ञानिक, कुछ को जल का संगीत दुर्गम यात्राओं के लिए बाध्य करता रहा है। लेखक को उसका प्रकृति प्रेम ऐसी यात्राओं के लिए बाध्य करता है। लेखक की दृष्टि  शिक्षक की दृष्टि है। वह प्रेरित करता है, सीखाता है किन्तु यात्रा के दौरान सयंमित और सतर्क रहता है। वह जानता है कि पहाड़ों के सौंदर्य और संगीत के बीच खतरे भी काम नहीं हैं। पांव फिसला तो सौ फीट तक नीचे जाने की संभावना है। एक घटना का उल्लेख वे अपने यात्रा वृतांत में करते भी हैं " नीचे से जो पहाड़ी इतनी पास दिख रही थी ,उसकी चोटी अब भी बहुत दूर थी। दरअसल, हम सही अंदाजा नहीं लगा पाए थे। हमारे दाएं तरफ पहाड़ों में बना एक दर्रा सा दिखा,हमने उसी में घुसकर आगे बढ़ने का प्रयास किया। दर्रे की तरफ बढ़ने के क्रम में मयंक का पैर खिसक गया और वह पूरी तरह नीचे लटक गए। भगवान का शुक्र रहा कि मैं उनके पीछे ही था और उन्हें पकड़ लिया ।उन्होंने दो छोटे-छोटे चट्टानी उभार मजबूती से पकड़ रखे थे ।यहां से अगर हाथ छूट जाता तो वे सीधा सौ फीट नीचे जा गिरते। मैं भयानक रूप से डर गया था। किसी तरह से उन्हें सहारा देकर ऊपर किया और हम दर्रे के सहारे रेंगते हुए किसी तरह वहां से लगभग बीस फीट ऊपर पहुंचे।"                 समाज में आज भी शिक्षकों और विद्यार्थियों के प्रति विशेष सम्मान का भाव हैं। 'पगडंडी में पहाड़' में स्कूल साथ-साथ चलता है। लेखक कहीं अपने विद्यार्थियों के साथ होता है तो कहीं अपने सहयोगियों के साथ , परिवार के अन्य सदस्य भी यात्रा के साक्षी होते हैं। कभी-कभी लेखक को आगंतुको का भी साथ मिल जाता है। शिक्षक जब अपने विद्यार्थियों के साथ निकलता है तो उसे समाज के हर वर्ग का सहयोग और समर्थन मिलता है। माँसी फाल की यात्रा के दौरान रावत जी का परिवार जिस प्रकार से विद्यार्थियों के लिए खीरे और भुट्टे ले आता है, आदर के साथ चाय की व्यवस्था करता है, इसकी पृष्ठभूमि में अपनी परंपरा है। माँसी फाल और ओकग्रोव स्कूल का संबंध बाद ही प्रगाण है, जिसका उल्लेख भी लेखक इस यात्रा वृतांत में करता है।" माँसी फाल से न केवल रिस्पना नदी में जल आता है वरन ओकग्रोव स्कूल को पानी की सप्लाई यही से होती है। पहाड़ों से गिरते पानी को छोटी-छोटी हौदी में इकट्ठा किया जाता है। उसे पानी को पाइपलाइन से जोड़कर बड़ी हौदी में लाया जाता है। शिव मंदिर माँसी फाल के पास एक बड़ी पानी की टंकी है जिससे पानी लगभग दो किलो मीटर लंबी पाइप लाइन द्वारा ओकग्रोव स्कूल तक साइफन विधि से चढ़ा दिया जाता है।" विद्यार्थियों का उस स्रोत को देखने जाना किसी आश्चर्य से काम नहीं रहा होगा। उनके लिए जल की व्यवस्था जहां से होती है उसकी उद्गम तक ले जाना एक शिक्षक की सकारात्मक दृष्टि के कारण ही संभव था। लेखक अपने यात्रा वृतांत में अपने सहयात्रियों का भी उल्लेख करते हैं। उनके यात्रा वृत्तांत को पढ़ते बतौर पाठक में यह कह सकता हूं कि उनकी रचनाधर्मिता में एक प्रवाह है। पाठक भी उनके साथ-साथ यात्रा करता है। राजपुर रोड मसूरी की ओर जाने वाला एक पुराना रास्ता है। राजपुर रोड पर पदयात्रा करते हुए आप झड़ी पानी स्कूल के गेट तक पहुंच सकते हैं और फिर वहां से मसूरी की ओर। सौभाग्य से मैंने यह यात्रा पूरी की है । यात्रा वृतांत को पढ़ते हुए राजपुर रोड का संदर्भ आता है। मेरी पुरानी यादें ताजा हो उठती हैं। लेकिन सच तो यह है कि जितना मैं अपनी आंखों से नहीं देख पाया था उससे कहीं ज्यादा अधिक लेखक की आंखों से देख पा रहा हूं। यह यात्रा वृतांत एक तरीके का शोध भी है जो कुछ महत्वपूर्णं संदर्भों के साथ आगे बढ़ता है। इस यात्रा वृतांत में हद्यय पक्ष और बुद्धिपक्ष का अद्भुत समन्वय है। राजपुर रोड का वर्णन लेखक कुछ इस प्रकार से करता है-" राजपुर रोड का रास्ता अत्यंत सुंदर है। ऊंचे ऊंचे दरख्त एवं पेड़ों से लिपटी लताएं रास्ते तक अपनी टहनियों और पत्तों को फैलाए हुए हैं। जैसे लगता है वे इन रास्तों को सुरक्षित बचा कर रखना चाहती हैं ताकि इस पर किसी की नजर न लगे। कई झाड़ियां तो इतनी घनी थी कि इनसे होकर शायद ही सूर्य की किरणें जमीन तक पहुंच पाती होंगी। रास्ते में जंगली गुलाब एवं अन्य प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों से जैसे प्रकृति इस पुराने रास्ते को सजा कर रख रही हो।" राजपुर रोड की ओर से ही अंग्रेजों की योजना रेल को ऊपर मसूरी तक ले जाने की रही होगी, लेकिन किन्हीं कारणों से यह योजना साकार रूप नहीं ले सकी। मेरी अपनी यात्रा के दौरान मेरे सहयात्री ने इस रोड पर ही मुझे सुरंग जैसा कुछ दिखाया था जिससे होकर मसूरी की ओर रेल गुजरने वाली थी। लेखक ने भी अंग्रेजों की इस योजना का उल्लेख अपने यात्रा वृतांत में किया है। परी टिब्बा, नाग टिब्बा,विनोग टाप , जबर खेत नेचर रिजर्व के मोहक दृश्यों के साथ पगडंडियों से होती हुई पहाड़ की  यात्रा में विश्राम है, विराम नहीं। यात्रा अनवरत जारी है। कभी नीचे से ऊपर की ओर कभी ऊपर से नीचे की ओर। पहाड़ों में व्यवस्थित रास्तों से परे हट कर पगडंडियों के सहारे , झाड़ियों और जंगलों के बीच से गुजरने वाली यात्रा का अपना अलग आनंद है।पगडंडियां किसी अनसुलझी पहेली की तरह होती हैं जिसे सुलझाने का प्रयास ही यायावरी है।अंग्रेजों की आवश्यकता ने कितने टापों को चिन्हित किया।मौसम की अनुकूलता के कारण पहाड़ों पर नए- नए नगरों के विस्तार की कहानी  नयी नहीं रही।मसूरी से लेकर धनौल्टी तक ,ओकग्रोव से लेकर मसूरी तक या फिर राजपुर रोड के किनारे बसे गांव होटलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों से सजे धजे पहाड़ी नगरों से कम खूबसूरत नहीं हैं।किसी गांव में चीड़ की छाँव में नगरों की भीड़ भाड़ से दूर जो अनुभूति होती है ,वह अनयत्र दुर्लभ है।लेखक ऐसी ही अनुभूति की तलाश में पहाड़ी गांवों से होकर गुजरता है। प्राचीन मंदिरों, लोक देवता और ग्राम देवता को प्रणाम करते हुए पहाड़ी नदियों के सुमधुर संगीत के बीच खड़े ओक और चीड़ के विशालकाय वृक्षों छाँव में ही स्पंदन है।खिले बुराँश और फुदकती घूघूती लेखक को मसूरी से थोड़ी दूर सुरकन्डा देवी की यात्रा पर ले जाती है।सुरकन्डा देवी का स्थान ऊँचाई पर है,चड़ाई सीधी होती है ,कठिन है ।लेखक अपने सहयोगियों के साथ पूर्व की अनेक यात्राओं में जोखिम से दो दो हाथ करते आया है।गिरना ,उठना और फिर चलना यही तो यात्रा है।सुकन्डा देवी की यात्रा भी पूर्णं होती है।सुरकन्डा देवी से पहाड़ों  का मनोरम दृश्य और भी अधिक मनोरम हो उठता है। हरी घास पर बैठकर सहयोगियों ,विद्यार्थियों के साथ भोजन करना ,किसी प्रकार भेद से परे यही तो समरसता है,जहाँ सब एक परिवार हैं और यह ज्यादातर यात्रायों में ही संभव हो पाता है।'पगडंडी में पहाड़' में सिर्फ़ दृश्य ही नहीं है बल्कि एक सकारात्मक दृष्टि भी है।  अध्यापक का विद्यार्थियों के साथ व्यवहार कैसा होना चाहिए, अपने सहयोगियों के साथ व्यवहार कैसा होना चाहिए इत्यादि अनेक विषय हैं जिसके कारण भी यह यात्रा वृत्तांत महत्वपूर्णं जान पड़ता है। यात्रा वृतांत का एक बड़ा हिस्सा विद्यार्थियों की समझ को विकसित करने के लिए है। मसूरी और उसके आसपास के प्रतिष्ठानों की यात्रा करना, उनकी स्थापना के संदर्भ में विद्यार्थियों के साथ संवाद करना, विद्यार्थियों को इन प्रतिष्ठानों के संदर्भ में और अधिक सूचनाओं एकत्र करने के लिए प्रेरित करना , उनका परिचय एक ऐसी दुनिया से कराना जिससे देश की एक बड़ी आबादी वंचित रह जाती है यात्रा वृतांत को पाठकों लिए और अधिक उपयोगी हो जाता है। लेखक एक कुशल मार्गदर्शक भी हैं, वे अधिकारी जरूर है लेकिन उनका हृदय एक साहित्यकार का हद्य है। इस यात्रा वृतांत में गढ़वाल ही नहीं, कुमाऊं भी है। चार धाम भी है और हेमकुंड साहिब भी हैं। कुमाऊं की यात्रा करने वाले ज्यादातर यात्रियों का आरंभ काठगोदाम से ही होता है, लेखक ने भी ऐसा ही किया। कुमाऊं की यात्रा के दौरान लेखक का कवि हृदय स्पंदित हो उठता है। इस यात्रा में उन्हें प्रकृति के चितेरे कवि सुमित्रानंदन पंत याद आते हैं। कुमाऊं है ही इतना खूबसूरत कि हर संवेदनशील यात्री टकटीकी लगाएं कभी इधर देखता है तो कभी उधर। कुछ दृश्य तो उसे एक नई दुनिया में ही ले जाते है। लेखक काठगोदाम से घोड़ाखाल,रानीखेत, कौसानी होते मुन्स्यारी की ओर बढ़ जाता है। बर्फ देखने की लालसा उसे मुनस्यारी तक खींच ले जाती है। बर्फीले इलाकों में सौंदर्य है तो खतरा भी काम नहीं है।लेखक एक बार फिर खतरे की चपेट में होता है," ताजी बर्फ शीशे की तरह मजबूत और फिसलने वाली होती है, जिस पर गाड़ी का टायर नहीं चल पाता। यह स्थिति अत्यंत खतरनाक होती है ।ऐसी स्थिति में यदि हमारी गाड़ी फिसल जाए तो हम लगभग 1000 फीट नीचे किसी घाटी में सुरक्षित पहुंच जाते, जहां से हमें निकालने के लिए आपदा प्रबंधन दल को एक सप्ताह से कम का समय न लगता।अंततः एक ऐसा स्थान आया जहां से आगे बढ़ाना बिल्कुल संभव न था। हम सब काफी डर गए थे। ठंड भी चरम पर थी।" यात्रा में सब कुछ सुखद ही नहीं होता। यात्रा की अपनी कठिनाई अपनी पीड़ा भी है।पहाड़ों में कहीं से निकल कर कहीं तक पहुंचने में जितने दृश्य हैं, उतने ही खतरे हैं। कुमाऊं की यात्रा में भी लेखक की विदेश यात्रा भी हो जाती है। काली नदी को पार कर लेखक नेपाल में दाखिल हो जाता है। नेपाल की चाय पीकर लेखक ने अपनी इस यात्रा को यहीं समाप्त किया एक नई यात्रा के लिए। गंगोत्री, यमुनोत्री ,बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ जी की यात्रा के के बिना यह यात्रा वृतांत अधूरा ही लगता,यही कारण रहा होगा की लेखक ने इन यात्रायों को भी पूर्णं करने का निर्णय लिया होगा। हमारी परंपरा में ये यात्राएं अत्यंत ही महत्वपूर्णं हैं। यह यात्राएं लेखक की प्रबल आस्था को दर्शाती हैं। यहां वे विद्यार्थियों के साथ नहीं हैं, सहयोगियों के साथ नहीं हैं, माता-पिता और बाबा के साथ हैं। यह यात्रा आनंद के लिए नहीं है , पूण्य लिए है।यही भारतीयता है,यही सनातन है। हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी से मानो यह यात्रा वृतांत खिल उठता है। यह यात्रा वृतांत फूलों की घाटी में खेले पुष्पों की तरह है जिनमें अनेक स्थानों का वर्णन एक साथ ही आ जाता है। हेमकुंड साहिब सिखों के प्रमुख धार्मिक स्थानों में से एक है। इस यात्रा वृतांत में लेखक ने अपने सहयात्रियों और सहयोगियों के नामों का उल्लेख भी समय-समय पर किया है। अपनी रचना में अपने सहयोगियों एवं सहयात्रियों के नामों का उल्लेख करना उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना है।  'पगडंड़ी में पहाड़'एक सफल यात्रा वृतांत है।एक सधी हुई भाषा में सटीक अभिव्यक्ति है।इस यात्रा वृतांत में भाव और भाषा का एक ऐसा प्रवाह है कि पाठक भी लेखक के साथ -साथ यात्रा करता है।ऐसे यात्रा वृतांत सामान्य पाठकों को तो लाभान्वित करते ही हैं ,विद्यार्थियों के लिए ये और महत्त्वपूर्णं हैं।जे.पी.पाण्डेय की रचनाधर्मिता आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करती रहेगी, समय के साथ उनकी अभिव्यक्ति और अधिक प्रौढ़ होती जाएगी और यात्रा साहित्य और अधिक मुखर । पुस्तक: पगडंड़ी में पहाड़ / लेखक : जे.पी.पाण्डेय / प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट , नई दिल्ली / कीमत : 575/-