मैकू   

मुंशी प्रेमचंद 

कादिर और मैकू ताड़ीखाने के सामने पहूँचे

कादिर ने मुस्करा कर कहा—भीड़ देख कर डर गये क्या

मैकू ने संदेह के स्वर में कहा—पुलिस के सिपाही भी बैठे हैं। ठीकेदार ने तो कहा था

कादिर—हॉँ बे

मैकू—चलो

कादिर—अबे

यों बातें करते-करते दोनों ताड़ीखाने के द्वार पर पहुँच गये। एक स्वयंसेवक हाथ जोड़कर सामने आ गया और बोला –भाई साहब

मैकू ने बात का जवाब चॉँटे से दिया । ऐसा तमाचा मारा कि स्वयंसेवक की ऑंखों में  खून आ गया। ऐसा मालूम होता था

मगर वालंटियर तमाचा खाकर भी अपने स्थान पर खड़ा रहा। मैकू ने कहा—अब हटता है कि और लेगा

स्वयंसेवक ने नम्रता से कहा—अगर आपकी यही इच्छा है

यह कहता हुआ वह मैकू के सामने बैठ गया ।

मैकू ने स्वयंसेवक के चेहरे पर निगाह डाली। उसकी पॉचों उँगलियों के निशान झलक रहे थे। मैकू ने इसके पहले अपनी लाठी से टूटे हुए कितने ही सिर देखे थे

कादिर चौकीदारों के पास खड़ा सिगरेट पीने लगा। वहीं खड़े-खड़े बोला—अब

मैकू ने स्वयंसेवक से कहा—तुम उठ जाओ

‘आप मेरी छाती पर पॉँव रख कर चले जा सकते हैं।’

‘मैं कहता हूँ

उसने यह बात कुछ इस दृढ़ता से कही कि स्वयंसेवक उठकर रास्ते से हट गया। मैकू ने मुस्करा कर उसकी ओर ताका । स्वयंसेवक ने फिर हाथ जोड़कर कहा—अपना वादा भूल न जाना।

एक चौकीदार बोला—लात के आगे भूत भागता है

कादिर ने कहा—यह तमाचा बच्चा को जन्म-भर याद रहेगा। मैकू के तमाचे सह लेना मामूली काम नहीं है।

चौकीदार—आज ऐसा ठोंको इन सबों को कि फिर इधर आने को नाम न लें ।

कादिर—खुदा ने चाहा

मैकू भीतर पहुँचा

मैकू—तो क्या और न आयेंगें

ठीकेदार—फिर आते सबों की नानी मरेगी।

मैकू—और जो कहीं इन तमाशा देखनेवालों ने मेरे ऊपर डंडे चलाये तो!

ठीकेदार—तो पुलिस उनको मार भगायेगी। एक झड़प में मैदान साफ हो जाएगा। लो

मैकू—क्या इन ग्राहकों को भी मुफ्त

ठीकेदार –क्या करता

मैकू—मैं तो आज न पीऊँगा।

ठीकेदार—क्यों

मैकू—यों ही

ठीकेदार ने लपक कर एक मोटा सोंटा मैकू के हाथ में दे दिया

मैकू ने एक क्षण डंडे को तौला

ताड़ीबाजों के नशे हिरन हुए । घबड़ा-घबड़ा कर भागने लगे

एकाएक मटकों के टूटने की आवाज आयी। स्वयंसेवक ने भीतर झाँक कर देखा

मैंकू ने दो-तीन हाथ चलाकर बाकी बची हुई बोतलों और मटकों का सफाया कर दिया और तब चलते-चलते ठीकेदार को एक लात जमा कर बाहर निकल आया।

कादिर ने उसको रोक कर पूछा –तू पागल तो नहीं हो गया है बे

क्या करने आया था

मैकू ने लाल-लाल ऑंखों से उसकी ओर देख कर कह—हॉँ अल्लाह का शुक्र है कि मैं जो करने आया था

कई ताड़ीबाज खड़े सिर सहलाते हुए

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साँच की आँच
 कहानी : डॉ. आरती ‘लोकेश’ गोयल , दुबई, यू.ए.ई.
सच के महत्व को किसी भी कीमत पर कम नहीं आँका जा सकता। पर यह भी सच है कि सच की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है कभी-कभी।
रिद्धि, शुचि की बुआ की बेटी थी। तीन साल छोटी थी। बहुत प्यार था दोनों में। दोनों साथ-साथ खेलती थीं। शाम के समय जब सारे बच्चे सड़क पर गिल्ली-डंडा, पिट्ठू-फोड़, पकड़म-पकड़ाई, छुपम-छुपाई, गेंद-बल्ला, कबड्डी या कंचे खेल रहे होते तो ये दोनों बहनें अपनी छत पर गुड्डे-गुडिया का ब्याह रचा रही होतीं। छत पर ही पूरा संसार बसा रखा था दोनों बहनों ने।
डॉ. आरती ‘लोकेश’ गोयल
गर्मियों की शाम सब छत पर ही गुज़ारते थे और अगर बिजली न आ रही हो, तो छत पर ही चारपाइयाँ बिछाकर सोते भी थे। उन चारपाइयों को बारिश से बचाने के लिए एक टिन की छत वाली बरसाती बनी हुई थी छत पर। सारी चारपाइयाँ सुबह उठने पर उसमें खड़ी कर दी जाती थीं। छत पर जाने के लिए बनी सीढ़ियों की छत पर एक दुर्छत्ती बनी हुई थी। उसमें सारे तकिए, लिहाफ़ और चादरें आदि रखी रहती थीं। बस यही उन दोनों के घर-घर के खेल की सामग्री रखने का स्थान बना।
शाम होते ही दोनों बहनें छत पर पानी का छिड़काव करने के बहाने पहुँच जातीं और खूब घर-घर खेला करतीं। गुड्डे-गुड़ियों के कपड़े, गहने, जूते, माला, चकला-बेलन, तवा-परात, थाली-कटोरियाँ, गिलास-जग, सभी कुछ तो उन्होंने अपने घर-घर के खेल के लिए जमा कर रखा था।
‘शुचि! ओ शुचि!’ नीचे से माँ की आवाज़ आई, “चलो, खाना खा लो। खाने का वक़्त हो गया है। और रिद्धि को उसके घर भेजो।” रिद्धिशुचि के घर में नहीं रहती थी। बुआ का घर पास ही था इसलिए दोनों को सदा साथ रहने और खेलने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता था।
‘ओ रिद्धि! तू भी खाना खा ले। फिर चली जाइयो।’ शुचि की दादी और रिद्धि की नानी कहतीं। कभी रिद्धि खाना खा लेती कभी अपने घर जाकर खाती।
‘बहू! कभी तुम भी रिद्धि को खाने-पीने को पूछ लिया करो।’ दादी शुचि की माँ से कहतीं।
“जीजी चिंता करेंगी अगर रिद्धि अपने घर खाना नहीं खाएगी तो। इसी कारण मैंने नहीं पूछा। वरना रिद्धि कोई मेरी दुश्मन थोड़े ही है।” माँ जवाब देतीं।
“रिद्धि के मुँह में ज़बान है। बता देगी कि नानी के घर से खा कर आ रही हूँ। मामी ने बनाया था खाना। बिना खाना खाए आने नहीं दिया।” दादी का तर्क आता।
“अगर मैं घर में खाना तैयार करके बैठी हूँ। और मेरे बच्चे कहीं और से खाकर आएँ और घर आकर मेरे हाथ का खाना खाने से मना कर दें तो मुझे तो बहुत बुरा लगेगा।” माँ की नज़रों में हर माँ की एक सी ही सोच होती है।
शुचि और रिद्धि बहुत छोटी थीं। इन बातों का अर्थ समझने की उन्हें कोई ज़रूरत नहीं थी। वे दोनों अपने खेलों में हमेशा की तरह मगन रहतीं। स्कूल-स्कूल का खेल भी उन्हें बहुत भाता था। एक कागज़ को काट-काटकर फिर एक के ऊपर एक रख आपस में उनकी सिलाई कर-कर के ढेरों छोटी-छोटी कॉपियाँ उन्होंने बना रखी थीं। अपने पुराने कपड़ों से छोटे-छोटे बस्ते भी सिल रखे थे।
पूरा स्कूल लगा हुआ था। रिद्धि विद्यार्थी बनती तो शुचि मास्टरनी। फिर बारी बदलकर शुचि विद्यार्थी बनती और रिद्धि मास्टरनी। दीवार को ब्लैक-बोर्ड बनाकार पढ़ाने का काम किया जाता तो घर में पोंछा लगाने का कपड़ा डस्टर बन जाता। जब कभी सड़क पर खेलने को साथी न मिलता तो शुचि का बड़ा भाई दीपू भी खेल में शामिल हो जाता। और जब कभी पड़ोस के एक-दो बच्चे और आ जाते तो स्कूल के खेल में रंग जम जाता। उस दिन मास्टरनी बच्चों की छड़ी(कपड़े धोने वाली थापी) से पिटाई भी करती। चश्मा पहनकर खुद पटरी पर बैठतीं और छात्रों को नीचे दरी पर बिठातीं। छोटी सी कॉपी पर बड़े-बड़े टिक लगाकर गृहकार्य भी जाँचतीं।
“शुचि! अब भेजो सब बच्चों को अपने घर। पापा भी आ गए हैं दफ़तर से और बुला रहे हैं नीचे। पूछ रहे हैं कहाँ हैं बच्चे।” माँ ने आवाज़ लगाई।
“अरे, मामा भी आगए। तब तो फिर पापा भी आ गए होंगे। मैं भी घर जाती हूँ।” रिद्धि पट-पट सीढ़ियाँ नीचे उतरने लगी।
“रिद्धि! रुक बेटा। मैं आम लाया हूँ। खाकर जाना घर।” शुचि के पापा ने रिद्धि को रोकना चाहा।
“जाने दो उसे। अँधेरा हो रहा है। फिर वह तो अपने घर में आम खाने वाली अकेली है। यहाँ तीन बच्चे हैं। और बड़े भी हैं। सबके हिस्से ज़रा-ज़रा-सा आएगा।” माँ ने पापा को रोका। रिद्धि फटाफट अपने घर की ओर निकल गई। एक गली छोडकर अगली में ही उसका घर था। पता नहीं इस संवाद में ऐसी क्या ख़ास बात थी कि पापा माँ से नाराज़ हो गए थे।
रात में सोते-सोते शुचि की आँख अचानक खुल गई। घड़ी में अधिक वक्त भी नहीं हुआ था। ग्यारह ही बजे होंगे। पापा को कहते सुना, “तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था। रिद्धि भी तो अपनी ही बच्ची है। अगर वह भी हमारे साथ आम खा लेती तो क्या कमी आ जाती।”
“मैं उस पर ज़्यादा प्यार बरसाना नहीं चाहती। मामी हूँ उसकी, तो मामी जितना ही प्यार दूँगी।” माँ की आवाज़ कानों में पड़ी।
“एक माँ होकर तुम यह भूल रही हो कि तुम ही माँ हो उसकी।” पापा की आवाज़ थी।
“इसे भूल जाने में ही हम सबकी भलाई है।”
“तुम इतनी निष्ठुर कैसे हो सकती हो। तुमने उसे भी जनम दिया है। रिद्धि तुम्हारी उतनी ही बेटी है, जितनी कि शुचि।”
“नहीं! बहुत फ़र्क है दोनों में। शुचि को अपना दूध पिलाकर बड़ा किया है मैंने। रिद्धि को नहीं। पैदा होते ही दे दी थी मैंने जीजी को। वे अपना सूना आँचल लेकर अस्पताल में ही बैठी थीं। जनम देते ही उनहीं की गोद में डाल दी थी मैंने।”
“जनम तो तुम ही ने दिया था ना। नौ महीने अपने गर्भ में भी पाला। फिर तुम उसके लिए इतनी शुष्क कैसे हो जाती हो।”
“उसके हिस्से का दूध मेरी छाती में पत्थर बन-बनकर चुभता रहा। समझ लोकि छाती के उन पत्थरों ने मुझे भी पत्थर बना दिया है। वह मेरे सामने ही खेलती रहती थी सारा दिन, फिर भी मैं उसे दूध पिलाने का अधिकार खो चुकी थी। दूध के समान अपने मातृत्व को भी पत्थर बनाना पड़ा मुझे। जब भी उसे प्यार से देखती या गोदी में उठा लेती तो तुम्हारी माँ के ज़हर बुझे बाण आ लगते कि बच्ची को छाती से चिपटाए रहेगी तो अपनी माँ में ममता कैसे पड़ेगी इसकी। ज़्यादा लाड़ दिखाने वाली बन रही है ताकि यह अपनी माँ को माँ न समझे और तुझे ही माँ माने। माँ-बेटी के बीच दरार पैदा करना चाहती है। फिर इतना ही लाड़ बरसाना था तो दी ही क्यों? बस, मैंने छाती पर बड़ा सा पत्थर रखकर अपनी ममता का गला घोंट दिया।”
यह सब सुनकर शुचि सुन्न हो गई। तो क्या रिद्धि मेरी सगी बहन है? क्या उसे बुआ को गोद दिया गया है? मेरे मम्मी-पापा उसके भी मम्मी-पापा हैं। यह कैसे हो सकता है? अनगिनत सवालों की झड़ी एक नन्हें से मन को विचलित करने लगी। पर ठहरा बालक मन। शाम तक ही सब बातें भुलाकर उसी तरह खेल में लिप्त। हाँ, पर अब उसे रिद्धि से और भी अधिक प्यार हो गया था। वह जान गई थी कि रिद्धि उसकी सगी बहन है। पर उस छोटी उम्र में भी इतनी समझ थी उसे कि यह राज़ रिद्धि को बताना उचित नहीं समझा उसने।
कुछ दिनों बाद रिद्धि ने शाम के वक्त आना कम कर दिया। शुचि उदास रहने लगी रिद्धि के बिना। गली-मोहल्ले के और बच्चे आते रहते खेलने के लिए पर खेल जम नहीं पाता। रिद्धि के बिना खेलने में मन नहीं लगता था। न गुड्डे-गुडिया की शादी में वह धूम मचती, न ही मास्टरनी के वे तेवर दिखाई देते।
रिद्धि बीमार रहने लगी थी। धीरे-धीरे अस्पताल के भी काफ़ी चक्कर लगने लगे। कभी दवाइयाँ, कभी खून की जाँच तो कभी एक्स-रे। बहुत छान-बीन के बाद पता चला रिद्धि के गुर्दे ठीक से काम नहीं कर रहे थे। कई सालों तक दवाइयाँ चलती रहीं। अब तो रिद्धि ने घर आना बिल्कुल ही बंद कर दिया था। जब कभी वह ठीक होती तो पढ़ाई में लग जाती। वह बहुत ज़हीन लड़की थी। अपनी कक्षा में हमेशा अव्वल आया करती थी। सेंट्रल स्कूल में काफ़ी नाम था उसका। बड़ी होकर डॉक्टर बनना चाहती थी।
नवीं में पढ़ती थी रिद्धि जब उसके गुर्दों ने काम करना पूरी तरह बंद कर दिया और डायलिसिस के कारण उसका काफ़ी समय अस्पताल में गुज़रने लगा। ऐसी ही हालत से जूझते हुए दसवीं की परीक्षा दी और उसमें भी प्रथम आई। मोहल्ले भर को नाज़ था उस पर। समाचार-पत्र में तस्वीर छपी थी। ग्यारहवीं करते-करते जब बीमारी के अस्थायी उपाय से जीवन दूभर हो गया तो किसी दानकर्ता का एक गुर्दा लगाने पर विमर्श शुरु हुआ। रिद्धि की माँ और शुचि की बुआ ने ही अपना गुर्दा देकर रिद्धि का जीवन बचाने की ठान ली। रिद्धि ही तो उनके जीवन का आधार थी। कितने ही वर्ष औलाद का मुँह देखे बिना काटे हैं। उनके विवाह के पाँच साल बाद जिस भाई का विवाह हुआ, वह अब दो बच्चों का पिता हो चला था।
एक अस्पताल में नर्स का काम करने वाली शुचि की बुआ दिन-रात शहर भर की स्त्रियों की प्रसव में मदद किया करतीं। पीड़ा से छटपटाती, रोती-बिस्सूरती औरतों को राहत देते समय ईश्वर से प्रार्थना करते हुए यह पूछा करतीं कि मातृत्व का यह सुखद दर्द कब उनके तनमन में समाकर, उनके स्नेह को भिगोकर, उनके सूने आँचल को मालामाल कर जाएगा? भाई का पहला पुत्र हुआ तो बुआ ने भतीजे को जी-जान से लाड़-प्यार दिया। जब दूसरी पुत्री हुई तो बुआ की ममता ने ज़ोर मारा और अपनी माँ से उनकी पौत्री का दान माँगने लगीं। दादी ने बहुत सोच-भालकर उत्तर दिया कि एक बेटा और एक बेटी के साथ तेरे भाई की गृहस्थी पूरी हुई है अभी। तीसरी संतान जो भी हो, उस पर तेरा हक होगा। तब मैं नहीं रोकूँगी तुझे। तो तीसरी संतान रिद्धि हुई, जो बुआ की बेटी कहलाई।
अपनी बेटी के इलाज के लिए बुआ ने आकाश-पाताल एक कर दिया था। नौकरी, पति किसी की परवाह नहीं की। नाज़ुक सी बच्ची को इतना भयंकर रोग जो लग गया था। दिन-रात उसे लेकर अस्पतालों में पड़ी रहती थीं। अपनी बेटी के प्रेम में एक बार दादी शुचि की माँ से कह उठीं, “अच्छा ही हुआ जो तेरी बेटी मेरी बेटी के यहाँ पहुँच गई। वह दिन-रात हाथों पर उठाए रहती है उसे। अगर तेरे पास होती तो बचती न।”
“अगर मेरे पास होती, शायद उसे ऐसी बीमारी ही न होती। माँ के दूध में बड़ी ताकत होती है।” माँ का सटीक उत्तर सामने आया और दादी निरुत्तर हो गई।
रिद्धि को हैदराबाद ले जाया गया। वहाँ के बहुत नामी अस्पताल में इलाज किया जाना था उसका। बुआ के साथ पापा, चाचा और अन्य कई रिश्तेदार भी हैदराबाद गए। नए शहर में एक कमरा किराए पर लिया गया। खाना पकाने का, कपड़े धोने का ज़रूरी सामान जुटाया गया। खून की सारी जाँच तो पहले ही हो गई थी। एक टिश्यू मिलान की जाँच ही बाकी थी, जिसे हैदराबाद में कराने का ही विचार किया गया था। एक बार हैदराबाद पहुँचकर चिकित्सा प्रक्रिया को शुरु किया जाए, फिर परीक्षण करवा लिया जाएगा, यही तय हुआ था।
अस्पताल आना-जाना शुरु हो गया। शल्य क्रिया की तारीख निश्चित की जाने लगी। रिद्धि, रिद्धि की माँ, मामा आदि सभी डॉक्टर से बात-चीत कर सलाह-मशवरा कर रहे थे। डॉक्टर अपनी ओर से निश्चिंत था। उसके लिए यह बहुत ही आशाजनक और उत्साहवर्धक शल्य क्रिया होने वाली थी क्योंकि दानकर्ता स्वयं रोगी की माँ थी। तभी बुआ ने याद दिलाया, “अभी टिश्यू मिलान परीक्षण बाकी है, तो उसकी रिपोर्ट के अभाव में सब कैसे तय कर सकते हैं।” जबकि सबको आशा यही थी कि रिद्धि और उसकी माँ में रक्त संबंध होने के कारण वह परीक्षण इलाज के पक्ष में ही रहेगा।
“टिश्यू मिलान परीक्षण की कोई आवश्यकता नहीं होती, जब किडनी दान करने वाली स्वयं माँ है तो।” डॉक्टर ने बड़े सहज भाव से समझाया।
“मगर रिद्धि उनकी अपनी बेटी नहीं है, गोद ली हुई है।” एक संबंधी के मुख से अनायास यह वाक्य निकला। वक्तव्य के पीछे मंशा तो रिद्धि की जान बचाने की और शल्य क्रिया की सफलता को सुनिश्चित करने की थी। बात सच भी थी।
रिद्धि ने यह वाक्य सुना तो जैसे आसमान फट पड़ा उस पर। अंदर ही अंदर तड़पने लगी वह जैसे बिजली का 440 वोल्ट का झटका लगा हो। मस्तिष्क में द्वन्द्व मच गया। क्या मैं अपनी मम्मी-पापा की अपनी औलाद नहीं हूँ? फिर कौन हैं मेरे माँ-बाप? या हैं ही नहीं? क्या मुझे अनाथाश्रम से गोद लिया गया है? किसी मंदिर की सीढ़ियों से? या फिर घूरे के ढेर से? आखिर कौन हूँ मैं? कहाँ से आई हूँ मैं?
“फिर कौन हैं इसके माता-पिता?” डॉक्टर ने आश्चर्य से आँखे फैलाए अगला प्रश्न दाग दिया।
अब बारी शुचि के पापा के बोलने की थी, “मैं हूँ इसका पिता। मेरी पत्नी माँ है इसकी।” कमरे में सन्नाटा छा गया। यह सन्नाटा भी तोप के गोले से दाग रहा था रिद्धि के सीने पर।
“अधिक आवश्यकता तो नहीं क्योंकि बुआ का रिश्ता है। फिर भी आपकी तसल्ली के लिए ये टैस्ट भी करवा लेते हैं।” डॉक्टर ने सामान्य भाव से उपाय निकाला। पर बात अब इतनी सहज और सामान्य न रह गई थी।
अस्पताल ने निकलते ही रिद्धि ज़ार-ज़ार रोई। दिल तार-तार हो गया था। क्षत-विक्षत हृदय लिए परनुँचे पंछी सी वह तड़पने लगी- “कह दो मम्मी कि यह सब झूठ है जो सबने डॉक्टर से कहा। तुम चुप क्यों रहीं तब? कहा क्यों नहीं कि तुम ही मेरी माँ हो। कह दो कि तुमने ही मुझे जनम दिया है। अपनी कोख में पाला है मुझे। मैं नही मानती कि मामा मेरे पापा हैं। मामी मेरी मम्मी? बिल्कुल नहीं हो सकता।” अपनी माँ के आँचल से लिपट गई वह। अबोध बालक सी बिलख-बिलखकर रोई रिद्धि। साँच की आँच जला रही थी उसे ज़िंदा ही। देर तक सुबकती रही। उसकी माँ उसके बालों में हाथ फेर उसे हौंसला देती रहीं।
सबका दिल बोझिल और आँखें गीली थीं। जो राज़ सत्रह साल तक राज़ रहा, वह आज इस झटके से खुल जाएगा, किसी को अनुमान न था। खुलते हुए वह कितने दरवाज़ों को बंद कर जाएगा यह भी ज्ञात न था। जाने-पहचाने रिश्ते अजनबी से हो गए थे रिद्धि के लिए। बहुत समय लगा सत्य स्वीकार करने में उसे।
धीरे-धीरे समझ विकसित हुई। परिपक्वता ने बाँहे पसारीं। माँ का निस्सीम, निस्वार्थ, निर्बाध प्रेम का स्रोता रिद्धि की रग-रग में बहने लगा। मामी की ओर न प्रेम ही बढ़ा, न घृणा ही। मामी ने कभी उसे उसकी माँ के समान स्नेह दिया कहाँ था जो कि प्रेम बढ़ता। अपनी जाई बच्ची का परित्याग किया तो घृणा हो ऐसा भी नहीं हुआ। उनकी कुर्बानी को समझने लायक उम्र थी रिद्धि की। अपनी माँ के प्रति आदर, श्रद्धा और प्रेम में ज़रूर वृद्धि हुई। पर दीपू, शुचि, विदू? वे भी तो उसके सगे भाई-बहन हुए इस लिहाज से। पर उन्हें भी शायद सच्चाई का पता न हो। अब तो वे भी जान गए होंगे। सबसे ज़्यादा यह बात उसी से गुप्त रखी गई थी। अब जब वह ही सब जानती है तो घर में सबको ही मालूम होगी। अपने भाई-बहन से मिलने को दिल तड़पने लगा। बचपन के खेल-खिलौने, झूले के झोटे, बिस्किट के हिस्से, मंदिर के प्रसाद पर होने वाली छीना-झपटी, नवमी की कंजक में मिले पैसों का बँटवारा, सब याद आने लगा। हर हरकत में सगे भाई-बहन का प्रेम खोजने लगी वह।
बड़ा भाई किस तरह चुपके से आकर हमारे घर-घर के चूल्हे की आग बुझा जाता, कैसे स्कूल-स्कूल के खेल में छात्र बनकर भी कॉपी के पन्ने फाड़कर टीचर पर उछालकर भाग जाता और गुड्डे के ब्याह में गुड्डे को पटक कर मारता, सब यादें दिल को गुदगुदाने लगीं। छोटे विदू को गोदी में लेना, गोदी में ही उसका सुसु कर देना, प्यार करो तो उसका बाल खींचना, घुटनों-घुटनों चलकर सारा खेल बिगाड़ देना, याद आता तो हँस देती रिद्धि। शुचि का घर रहने आना, रिद्धि की अंग्रेज़ी माध्यम की किताबें देखकर खुश होना, उससे अंग्रेज़ी सीखने की गुज़ारिश करना, और रिद्धि की किसी कामयाबी पर अपने गहनों की पिटारी में से अपना सबसे प्रिय एक गहना उसे भेंट में देना, सब सोचकर विह्वल हो उठी रिद्धि।
ऑपरेशन हुआ तो एक-एक करके सभी भाई-बहन हैदराबाद रिद्धि को देखने आए। छोटी मामी ने अपनी छ: महीने की बच्ची को साथ ले पूरी सेवा की जी-जान से। शुचि भी कॉलेज की छुट्टियाँ होते ही एक महीने के लिए हैदराबाद आई। काम में हाथ तो क्या बँटाती पर रिद्धि खिल उठी उसे देखकर और उसकी हालत में सुधार आना शुरु हो गया।
छ: महीने लगे हैदराबाद से घर वापिस आने में। पढ़ाई प्रारंभ करने योग्य ताकत तो नहीं थी शरीर में, पर चलना-फिरना, मिलना-जुलना शुरु कर दिया था रिद्धि ने। बर्ताव भी ऐसा ही जैसे कि सत्य जो हैदराबाद के अस्पताल में उद्बुद्ध हुआ, कहीं सुप्त, निर्जीव, बेअसर सा जान पड़ता था। ऊपर से देखने पर सब कुछ सामान्य-सा दिखने लगा था। अंदर का लावा ठंडा सा प्रतीत होता था।
साल भी न बीता होगा कि नई किडनी ने जवाब दे दिया। दिल्ली के बड़े अस्पताल में भर्ती करवाया गया। सारे घर में भगदड़ मच गई। सभी तरह के संभव उपचार शुरु हो गए। अन्य संभावनाओं पर विचार-विमर्श किया जाने लगा। अभी उम्र अट्ठारह की ही थी तो कोई किडनी दान दे तो चिकित्सा फिर से की जा सकती थी। उससे पहले कमज़ोर शरीर में रक्त-आधान की आवश्यकता महसूस हुई चिकित्सकों को। दो बोतल बी ‘-’ रक्त की आवश्यकता बताई गई। सभी रिश्तेदार अपने-अपने खून के ग्रुप की जाँच कराने लगे।
शुचि का रक्त ग्रुप ‘बीनेगेटिव’ ही था। शुचि एक दिन पूर्व ही रिद्धि से अस्पताल मिलकर आई थी। तब तक रक्त की आवश्यकता के बारे में कोई चर्चा शुरु नहीं हुई थी। वह अधिक न रुककर जल्दी अस्पताल से लौट आई थी। उसकी बी.एड. की परीक्षाएँ चल रही थीं। एक दिन बाद उसकी प्रायौगिक परीक्षा भी थी। जब उसे खबर मिली तब तक एक बोतल रक्त का प्रबंध भी किया जा चुका था। दूसरी बोतल रक्त देने का निर्णय शुचि ने किया। अगले दिन परीक्षा देकर जाना उचित समझा।
रिद्धि को इस समय शुचि की याद बहुत सता रही थी। दवाइयों के असर से वह गफ़लत में थी। बार-बार शुचि का नाम पुकारती। होश में आते ही दो बूँद पानी पीती और शुचि के बारे में पूछती। उसके माता-पिता, मामा, नाना-नानी सब आस-पास थे परंतु उसकी आँखें एकटक वार्ड के दरवाज़े को निहारती रहतीं। शुचि से मिलने के लिए रिद्धि की तड़प का अंदाज़ा लगाना कठिन था। शुचि की परीक्षा के बारे में सब जानते थे। अत: उस दिन के बीत जाने के बाद ही शुचि को बुलाना ठीक समझा गया। रिद्धि की हालत जानते हुए शुचि का परीक्षा में मन नहीं लग रहा था। जैसे-तैसे परीक्षा देकर दौड़ी-दौड़ी घर पहुँची कि अस्पताल जाना है, बहन को रक्तदान देने।
दरवाज़े को ताला लगाकर निकलने ही वाली थी कि फ़ोन की घंटी बजी। संदेश मिला कि रिद्धि नहीं रही।
संपर्क : arti.goel@hotmail.com