फिरंगी फौजों ने गिरजाघर के तौर पर  किया था इस्तेमाल
लखनऊ (प्रणाम पर्यटन ब्यूरो)। अवध की शाम का दिल कहे  जाने वाले हज़रत गंज के सौंदर्य के  एक हिस्से के आज गिर  जाने से उसकी सुंदरता  में दाग तो लगा ही वहीं अवध की एक धरोहर भी लगभग नष्ट होने के कगार पर पहुँच गया ।यदपि इस घाटन में किसी तरह के जान
माल के नुक्षण होने की खबर नहीं है । मिली खबरों के मुताबिक  दोपहर बाद हजरतगंज से लखनऊ विश्व विध्यालय मार्ग पर प्रसिद्ध हलवासिया मार्केट के सामने मुख मार्ग पर बादशाह अमजद अली शाह के मक़बरे का पहला गेट है। इस जगह को  मकबरा 'सिबतैनाबाद का इमामबाड़ा' भी कहा जाता है । जिसके अगल-बगल  'मार्क्समैन' नामक रेस्टोरेन्ट तथा 'लेन्स्कार्ट'  चशमे की दूकान है । मुताव्वली मोहम्मद हैदर के मुताबिक इमामबाड़े के गेट पर अवैध कब्जे थे। एक निजी होटल ने अपना किचन बना रखा था। इसकी सुरक्षा के लिए नगर निगम, एलडीए व एएसआई को कई बार पत्र लिखा गया लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। इस मामले में हजरतगंज थाने में वक्फ बोर्ड की ओर से मुकदमा दर्ज कराया जाएगा। खबर लिखे जाने तक पुलिस व संबन्धित विभाग के लोग घटना स्थल पर पहुँच गए थे। उल्लेखनीय है कि  इमामबाड़ा सिब्तैनाबाद निमार्ण सन 1847 में नवाब वाजिद अली शाह ने कराया था। इस एतिहासिक इमारत की देखभाल की जिम्मेदारी राज्य पुरातत्व सर्वेक्षण के पास है।
सिब्तैनाबाद के इमामबाड़े की कहानी :- 
मकबरा 'सिबतैनाबाद का इमामबाड़ा' को निर्माण बादशाह अमजद अली शाह ने करवाया था । वे अवध  चौथे बादशाह थे और वाजिद अली शाह इन्हीं की सन्तान थे.। 12  मई1842 को 43  वर्ष की आयु में वे  सिंहासन पर बैठे थे.  बादशाह बहुत सादगी पसंद  तबियत के इन्सान थे और बहुत धार्मिकभी । उनके स्वभाव के कारण लोग उन्हें आदर से 'हज़रत' कहते थे और उन्हीं के नाम पर हज़रतगंज बाज़ार भी बसा है । उन्होंने लखनऊ से कानपुर तक कंकड़ बिछवाकर एक पक्की सड़क भी बनवायी थी।  गोमती नदी पर लोहे का पुल उन्होंने ही बनवाया था।  यह पुल कर्नल फ्रेज़ और एक बंगाली इन्जीनियर की देख रेख में बना था । और इस पर उस समय एक लाख अस्सी हज़ार रुपये ख़र्च हुए थे.
    लखनऊ. देश पर अपनी हुकूमत करने के लिए अंग्रेजों ने अवध पर सबसे पहले कब्जा करने की सोची थी। इसके लिए उन्होंने यहां बेइंतहा तबाही और बर्बादी मचाई। वो मंजर आज भी इस शहर के दिलो-दिमाग से ओछल नहीं हुए हैं। आसफ़ी मस्जिद और इमामबाड़ा, टीले वाली मस्जिद और हज़रतगंज मे स्थित सिब्तैनाबाद का इमामबाड़ा आखिरी ताजदार-ए-अवध वाजिद अली शाह के पिता अमजद अली शाह का मक़बरा भी कहा जाता है। यह उस दौर में अंग्रेजों की नजर से नहीं बच सका था। उन्होंने इसे अपनी छावनी बनाया। सिब्तैनाबाद के इमामबाड़े पर उन्होंने कब्जा करके इसे अपनी छावनी बना लिया। साल 1858 से 1860 तक इस इमामबाड़े को फिरंगी फौजों ने गिरजाघर के तौर पर इस्तेमाल किया। यही वजह है कि इस इमामबाड़े के अहाते में आज भी कुछ ईसाई परिवार रहते हैं।
इस इमामबाड़े को कुछ समय बाद फिरंगियों ने छोड़ दिया था और दूसरे लोगों ने इस पर कब्जा कर लिया था। साल 2004 में मुलायम सिंह यादव की सरकार ने इस इमामबाड़े को शिया समुदाय के हवाले कर दिया। सिब्तैनाबाद इमामबाड़े के मुतव्वली (ट्रस्टी) मोहम्मद हैदर रिज़वी के मुताबिक उन्होने यहां की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद केंद्र और राज्य सरकार को इसकी जर्जर स्थिति से रुबरु कराया है। पुरातत्व विभाग से बार-बार अनुरोध के बाद इसके अंदर के दालान ,शहनशीन (जहां ताज़िया रखा जाता है) और फाटक की मरम्मत कराई गई। सिब्तैनाबाद इमामबाड़े की छत को खूबसूरत रंगों से सजाया गया।
मोहल्ले के नाम को लेकर रहा है विवाद
आमतौर पर लोगों मे हजरतगंज मोहल्ले के नाम को लेकर विवाद है। इसका नाम स्वतंत्रता सेनानी और आखिरी बादशाह अवध वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हज़रत महल के नाम पर है। मगर कुछ इतिहासकार कहते हैं कि है कि वाजिद अली शाह के पिता अमजद अली शाह एक धार्मिक और बुजुर्ग शख्सियत के मालिक थे। इसलिये उनको प्रजा 'हज़रत' भी कहती थी और इस तरह इलाक़े का नाम हज़रतगंज पड़ा। गंज फ़ारसी भाषा मे ख़ज़ाने को कहते हैं। लखनऊ और फैज़ाबाद मे यह तरीका था कि मोहल्लों के नाम के आगे गंज और आबाद लगा दिया जाता था।
हज़रतगंज का पूरा इलाक़ा 'मेंडू खान रिसालदार की सरा' कहलाता था, लेकिन इतिहासकर आग़ा मेहदी के अनुसार, इस इलाक़े का नाम बेगम हज़रत महल के नाम पर ही है। अंग्रेजी दौर में इलाके को विकसित करने के लये पूरे इलाके में ऊंची- ऊंची कोठियां और महल बनने लगे। कैसरबाग, छतर मंज़िल और सराय मेंडू खान के इर्द-गिर्द आलीशान इमारतों का नज़ारा लंदन जैसा दिखाई देने लगा। फिरंगी व्यापारियों की भी बड़ी-बड़ी दुकानें खुलने लगीं। देखते ही देखते हज़रतगंज का मुकाबला सात समंदर पार की बाज़ारों से होने लगा।
 बेगम के लिए बनवाई कोठी
इस मोहल्ले में एक आलिशान कोठी बादशाह अमजद अली शाह ने अपनी बेगम के लिये बनवाई थी। इसे बेगम कोठी भी कहा जाता है। साल 1857 में जब हंगामा शुरू हुआ तो 50 गोरे हज़रतगंज के पूर्वी फाटक से दाखिल हुए और उन्होंने अपने साथ लाए मज़दूरों से मियां दाराब अली खान के हुक्म पर दोनों तरफ कोठियों पर चढ़कर गोलियों की बारिश की। आग़ा मेहदी ने लिखा है कि गोरों को शिकस्त का सामना करना पड़ा।