अचानक अनंत यात्रा पर चले जाना 
महामंडेलेश्वर मार्तंडपूरी यानी 
माधव कांत मिश्र जी का  
Dr Padeep Srivastava
महा
मंडलेश्वर मार्तंडपूरी जी यानी माधवकांत मिश्र जी का अचानक उस यात्रा पर चले जाना , अभी भी  विश्वास नहीं हो रहा है । अब मुझे 'लाला पारादीप' कह कर कौन बुलाएगा?   सुबह जब आँखें खुली तो रोज़ की तरह फेसबुक खोला । खुलते ही उनकी फोटो देखी  ,उसके नीचे लिखी लाईने पढ़ीं तो स्तभ रह गया । तनिक भी विश्वास नहीं हो रहा था कि अब वह उस दुनिया में चले गए हैं जहां से आज तक कोई नहीं लौट कर आया है। वे मेरे पत्रकारिता के गुरु भी थे ,बुरे वक्त में उन्होने ने मुझे आत्म संबल दिया था । जानता  तो उन्हें "सूर्या" पत्रिका से था । जब उसके वह संपादक थे ,बात अस्सी के दशक की है । उन्होने ने "बनारस" पर मेरा एक आलेख भी उसमें प्रकाशित किया था । उस दौरान उनसे व्यक्तिगत मुलाक़ात नहीं थी । मुलाक़ात हुई सन 88 के अक्तूबर में । हुआ यूं कि मैं उन दिनो  'दैनिक आज ' के आगरा संस्करण  में प्रशिक्षु उपसंपादक  हुआ करता था । वहाँ पर एक विशेष लाबी सक्रिय थी ,जिसकी सक्रियता मेरे प्रति अधिक थी।( इस बारे में बातें फिर कभी ) उन्हीं दिनों दिल्ली के अखबारों में एक अखबार के लिए सहयोगियों की जरूरत का विज्ञापन प्रकाशित हुआ, मैं  ने अपना आवेदन भेज दिया । कुछ समय बाद ही वहाँ से बुलावा भी आ गया । वह विज्ञापन था सहारनपुर से प्रकाशित "विश्वमनव" का। दिल्ली स्थित हौज खास में मालिक के घर पर ही  कार्यालय था। वहीं पर साक्षत्कार हुआ , मुझे एक संपादकीय  लिखने श्री मिश्र जी ने दिया।उसे देखने के बाद तुरंत कहा  कि 'सहारनपुर 'चले जाओ। लगे हाथ ही सहारनपुर के संपादक श्री तिवारी जो को फोन कर दिये (मुझे)भेज रहा हूँ ,इनके रहने की व्यवस्था भी कार्वा दें। साथ ही अखबार के मालिक प्रवीण सिंह एरन से भी मिलवा दिया।

वहाँ से निकलने के बाद उसी रात बनारस चला गया ,वहाँ से तीन-चार दिन बाद सहारनपुर । सहारनपुर में लगभग एक माह ही था कि एक दिन शाम को अचानक कार्यालय में संपादक जी ने बुलवा भेजा । पाहुचने पर फोन का चोंगा थमते हुए कहा कि लो मिश्र जी बात करेंगे । हॅलो बोलते ही दूसरी तरफ से आवाज़ आई  लाला पारादीप' माधव कांत बोल रहा हूँ .... जी सर ,बोलिए .... । एक कम करो आज का संस्कारण छपने के बाद आफिस की टैक्सी से अपना समान लेकर करनाल चले जाओ॥ वहाँ पर संपादक मनुज जी हैं,उन्हें बोल दिया है ,रहने की व्यवस्था वह कर देंगे। आदेश मिलते ही सुबह की पहली किरण करनाल में ही देखी । करनाल में कई सालों तक रहा ,लगभग पूरा हरियाणा देखा भी। उसी दौरान करनाल संस्करण को तत्कालीन हरियाणा के मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला ने खरीद लिया था,जिसे बाद मैं "जनसंदेश" का नाम दे दिया गया। यह अखबार भी कुछ दिनों तक दिल्ली में चौटाला जी के निवास ,बाद मैं गुड़गाँव (अब गुरुग्राम)  से निकलना शुरू हुआ।

मधावकंत जी सबसे बड़ी विशेषता थी कि वह अपने सहकर्मी को सदैव याद रखते थे । पत्रकारिता के शिखरपुरुष  तो थे ही । आज के संपादकों को उनसे सीख  लेनी चाहिए। उनके कम करने का तरीका एकदम अलग होता था। अपने सहकर्मियों पर उनकी तीखी नज़र भी होती थी। वह नहीं चाहते थे उनके साथ कम करने वाला सहकर्मी किसी कारणवश किसी दूसरे संस्थान मैं जाए। इसके लिए वे शायद नए-नए प्रयोग भी करते रहते थे ।

बात 1989 की है, हम सब करनाल में ही थे, तभी दिल्ली के अखबारों  में 'संपादकीय सहकर्मियों की आवश्यकता है "वाला एक विज्ञापन निकला।  उन दिनों में छुट्टी पर बनारस गया था। आम लोगों की तरह सभी ने आवेदन कर दिया था ,जिसमें करनाल संकरण के सहयोगी भी थे । लगभग तीन-चार माह हो गए होंगे , आवेदनकर्ता भूल ही गए थे कि उन्होने ने कहीं आवेदन भी किया था? अचानक एक दिन मिश्रा जी करनाल आफिस आए,आम दिनों की तरह । रात संस्करण छपने जाने के बाद संपादकीय विभाग  को सूचना भेजी कि खाना खाने के बाद सभी लोग यहीं रहेंगे । विभाग में हड़कंप मच गया कि यह क्या हो गया। लोगों में तरह की अटकलें लगनी शुरू हो गई । खैर साहब, एक-एक कर सहकर्मियों को उन्होने बुलवाया अपने कमरे में । सभी को उसी विज्ञापन के आधार पर भेजे गए आवेदन को  दिखाया । और उनसे पूछा कि आप क्यों जाना चाहते हैं ? उसी के अनुरूप उनकी समाधान भी करते गए। रात लगभग दो बज गए ,मुझे सबसे अंत में बुलाया ,और मुझसे पूछा कि लाला पारादीप' तुम्हारा आवेदन नहीं है,क्यों ? लगता है तुम यहाँ पर पूरी तरह संतुष्ट हो। मैं क्या बोलता ? कुछ पल बाद बोला ,सर जब यह विज्ञापन निकाला था तो उन दिनो में छुट्टी पर बनारस गया था ,इस लिए पता नहीं चल पाया ,नहीं तो शायद मैं भी......? मेरी इस बेबाकी पर वह मुस्कराये बस। पर सभी के साथ मुझे भी इंक्रीमेंट मिला था।

'विश्व मानव' से 'जन संदेश' से होता हुआ दक्षिण भारत चला गया । लगभग पच्चीस सालों तक वहाँ की पत्रकारिता के बाद वापस 2012 में वापस लखनऊ चला आया । इस बीच मेरा  उनसे कोई संपर्क नहीं हुआ। खबरों के माध्यम से पता चला कि उन्होने ने पत्रकारिता को तिलांजलि दे कर कनखल (हरिद्वार) में महामंडलेश्वर हो गए है।

बात जनवरी 2018 के एक सुबह की है , लगभग सात बजे होंगे कि अचानक मेरे फोन की घंटी बाजी , उठाया ही था कि उधर से आवाज आई अरे उठ गए 'लाला पारादीप' ,में माधव कांत बोल रहा हूँ। यह सुनते ही  मै ने उन्हें प्रणाम किया ,उधर से आप बोले ,लाला आप के शहर में उतरा हूँ , एकाद घंटे के बाद आ जाओ तो साथ नीबू वाली चाय पीते हैं। जी आ रहा हूँ। उनसे पता पूछ  कर ,जहां पर रुकते थे ,मिलने पहुँच गया । कई घंटे बातें हुई ,पुरानी स्मृतियाँ उभरी। चलते-चलते उन्होने ने पूछा कि तुम वेदेश गए हो क्या? मेरे न बोलने पर मुस्कराये और बोले कि नहीं गए हो ,फिर भी लोग तुमको वहाँ जानते है। इतना सुन मैन अचंभित हो गया, नहीं सर मुझे कोई नहीं जानता । इस पर उन्होने ने बताया कि बेलारूस में उनकी एक शिष्या  है, जो मुझे जानती है। बाद में बताया कि वह मेरी फेसबुक मित्र है,जिसे घूमने-फिरने का भी शौक है। वह जब भी लखनऊ आते तो दिल्ली से चलने के पहले या लखनऊ पहुचने के बाद मिलने के लिए बुलाते जरूर थे।  

श्री मिश्र जी हिन्दी पत्रकारिता के शिखर पुरुष थे ,इसमें कोई शक नहीं। इलाहाबाद से प्रकाशित लीडर , दिल्ली से प्रकाशित मेनका  गांधी की मासिक पत्रिका 'सूर्या' सहित तमाम अखबारों एवं धार्मिक चैनलों के वे प्रेरणाश्रोत रहें है । उनके अचानक चले जाने का मुझे अभी विश्वास नहीं हो रहा । लेकिन यह विधि का विधान है एक दिन सभी को अनंत की यात्रा करनी है। (बहुत से संस्मरण हैं उनके साथ के जिसे फिर कभी आप के साथ  बाटुंगा)