डॉ प्रदीप श्रीवास्तव 

 दो सदी पूर्व बौद्ध भिक्षु अजंता में उपासना के महत्व को सीखने पहुंचे , कारीगरों और कलाकारों ने मिलकर नैसर्गिक रंगों से ‘तथागत बुद्ध’  की जीवनी पाषाणों पर ही उकेर  कर रख दी । कला को शब्दों में ढाल  कर धर्मशास्त्र और जीवनशैली को अजंता में अमर कर दिया । वहीं दूसरी ओर एलोरा में वास्तु विशेषज्ञों ने चट्टानों को तराश कर एक नया प्रयोग किया ,कलश (शीर्ष) से लेकर नींव  तक देवालय के निर्माण की एक नई शैली रची । (एलोरा के गुफा नंबर 16 स्थित कैलाश मंदिर)

    जब छोटी-छोटी बातों के लिए आपस में मर-मिटने वाले कबीलेदारों  को मोहम्मद पैगंबर साहब अल्लाह के संदेश समझा रहे थे , उसी समय एक शासक विश्व विजेता बनने की चाहत में पूर्व में चीन तथा पश्चिम में फारस तक सेना भेजने के लिए जनता से धन वसूल रहा था । इसी चक्कर में उसने ताम्बिया और कागजी मुद्रा का विकल्प तलाशा । आए दिन हमलो को झेलती दिल्ली की जगह देवगिरि को राजधानी घोषित की और नामकरण कर दिया दौलताबाद ।  जिसके बारे में आज भी है कहावत मशहूर है "दिल्ली से दौलताबाद "। यद्यपि मोहम्मद बिन तुगलक अधिक समय तक दौलताबाद को राजधानी नहीं बना सका, लेकिन इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दौलतबाद  का नाम अंकित जरूर करा दिया । उसके बाद के घटनाक्रमों का उल्लेख इतिहास के पन्नों में दर्ज है ।

इतिहास के पारखी आज भी इस बात से चकित हैं कि भारत के नक्शे को 'तलवार की ताकत' पर अपने ताज में कैद  करने वाला बादशाह वापस दिल्ली क्यों नहीं लौट सका ? संतो की भूमि कही जाने वाली जगह ने मानो उसे जकड़ लिया । जिससे एक बात का पता चलता है कि हठी शासक ने अपनी मौत के बाद ताजमहल बनवाने की चाह नहीं की, वह तो अपनी इच्छा से अपनी गुरु के चरणों में आज भी खुले आकाश के नीचे 'चिर निद्रा में' सो रहा है । यह आश्चर्य है कि उसके गुरु के गुरु का भी अंतिम संस्कार उसी के निकट हुआ। उसी की कब्र के बगल में ही उसकी मुंह बोली छोटी बेटी तथा पुत्र वधू की भी कब्रें हैं।

   अद्भुत है औरंगाबाद जिस का प्राचीन नाम है 'खड़की' अर्थात एक खड़क (शिला) पर बसा हुआ छोटा सा गांव । जिसका वर्तमान नाम मुगल बादशाह औरंगजेब के नाम के साथ जुड़ गया। जिसने 1653 में बसाया और दक्षिण की राजधानी घोषित की ।औरंगाबाद से पहले इसे फतहनगर और रजततगड के नाम से भी  जाना जाता रहा है।

 स्थापत्य शास्त्र की जानकारी मलिकअंबर ने 17वीं शताब्दी में इस शहर का विकास कर नगर का रूप दिया जो अहमदनगर के  निजामशाही के वजीर थे । कहते हैं कि मलिक अंबर ने जहांगीर के समय में गुजरात के मुगल सूबेदार अब्दुल्ला खान को शिकस्त देकर 'खड़की' को अपने अधीन किया था , जिसे  बाद में निजामशाही की नई राजधानी के तौर पर संरचना भी की। उसकी मौत के बाद उसका पुत्र फतेह खान वजीर नियुक्त हुआ । जिसे दौलताबाद किले में शाहजहां ने पराजित कर अपने अधीन कर लिया था ।1653 में जब औरंगजेब दूसरी बार  दक्षिण का सूबेदार बनकर आया और इसी राजधानी बनाई।  सहयाद्रि पर्वत से तीन ओर से घिरे अऔरंगाबाद के ऊबड़-खाबड़ इलाके के कण-कण में इतिहास बिखरा है । देवगिरि कहें या दौलतबाद , यह शहर राजा राम देव काल का भी है । यादव वंशीय राजपुत्र भिल्ल्म ने देवगिरि किले का निर्माण महज़ ढाई साल  (1680-83 के बीच) में करवाया था । इसी औरंगाबाद जिले का पैठण शहर संत ज्ञानेश्वर की पवन भूमि है । पैठण शहर  का संबंध प्रसिद्ध ज्योतिषी बराह मिहिर  से भी जुड़ा हुआ है। गोदावरी नदी पर बना विशाल बांध लोगों को आकर्षित तो करता ही है । 1633 मैं आगरा जाते समय छत्रपती शिवाजी महाराज कुछ दिनों के लिए अऔरंगाबाद के बेगमपुरा मोहल्ले मैं रुके थे । कम ही लोगों को मालूम होगा की 1610 में राजधानी बनने के बाद 1612 में मुगल बादशाह जहाँगीर की सेना इसी शहर पर हमला बोला दिया, उस समय गुजरात का सूबेदार अब्दुल्ला खान सेनापति था । दौलताबाद में जंग हुई । मालिक अंबर ने सेनापति को शिकस्त दी। उस समय मालिक अंबर की सेना ने इस युद्ध में 'राकेटों'का इस्तेमाल किया था। इस बात का इतिहास भी गवाह है कि भारत में किसी जंग मैं पहली बार 'राकेटों' का इस्तेमाल हुआ था।   जहाँगीर को परास्त करने की खुशी में मालिक अंबर ने 'भड़कल गेट' बनवाया । जिसमें पहली बार भारत में स्तंभों का प्रयोग हुआ।  

   इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलता है कि शहर  में शुद्ध पेय जल की व्यवस्था के लिए तकनीकी का प्रयोग करते हुए मालिक अंबर ने चार किलोमीटर की भूमिगत नहर का  निर्माण कराया था । जिससे शहर मैं शुद्ध पेय जल की व्यवस्था हो ,आज भी किसी को भी पता नहीं चल पाया कि पानी कहाँ से आता है। मालिक अंबर ने शहर में 'जामा मस्जिद' के अलावा 6 काली मजिदें भी बनवाईं। इसी दौर में औरंगाबाद में ऊंची इमारतों का निर्माण शुरू हुआ । बेगमपुर मोहल्ले में दुनिया की पहली नौ मंज़िली इमारत का निर्माण हुआ था।

   यह भी सही है कि औरंगजेब ने मंदिरों को जागीर दी थी । आज भी स्वामी निपट निरंजन महाराज व औरंगजेब की मुलाक़ात का जिक्र जरूर करते हैं । उसकी मृत्यु  के बाद 1724 में हैदरबाद के संस्थापक आसिफ शाह कि नवखंड महल मैं ताजपोशी हुई थी। वह सिंहासन आज भी वहीं सुरक्षित रखा है ।  जब भी आप को इतिहास से संवाद करने मौका मिले तो जरूर  दो-चार दिनों के लिए वहाँ जाइए , जहां मनोरंजन के साथ ज्ञान का भी वर्धन होगा।