देवगिरि का किला
डॉ प्रदीप श्रीवास्तव

मनमाड -हैदराबाद रेल लाइन पर औरंगाबाद स्टेशन से लगभग दस किलोमीटर पहले एक छोटा सा स्टेशन दौलताबाद पड़ता है, दौलताबाद , जो औरंगाबाद जिले के खुलताबाद तहसील का एक छोटा सा गाँव ,मुश्किल से हज़ार-पाँच सौ की आबादी । ट्रेन में बैठे बैठे ही आप को एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित एक किला दिखाई देगा जिसे 'देवगिरि या फिर दौलताबाद का किला' के नाम से दुनिया भर में जाना जाता है। । इसी किले को एक समय दिल्ली के बाद तुगलक साम्राज्य की राजधानी रहने का गौरव मिला था। लेकिन किले तक पहुँचने के लिए औरंगाबाद उतरकर जाना ही बेहतर है।

देवगिरि का किला कब बना किसने इसे बनवाया, इस के संदर्भ में इतिहास के पन्नों में कोई अधिक विवरण नहीं मिलता है । किले की प्राचीनता का अनुमान किलेबंदी को देखकर ही लगाया जाता है ।12वीं सदी में यादव नरेशों के समय में किला समृद्ध के शिखर पर था।  कुछ इतिहासकार इस किले को सातवाहन नरेश द्वारा निर्मित भी मानते हैं । जिसका समय 237 ईसा पूर्व से 230 ईसवी तक माना जाता है।

 स्थापत्य दृष्टि से यह किला सात वाहनों के समय में बना था, जिसका विस्तार और शुद्ध किलेबंदी राष्ट्रकूट शासकों के समय में हुई थी । बाद में यादव नरेशों  और मुस्लिम  सुल्तानों ने अपनी जरूरत के अनुसार समय-समय पर घेरेबंदी का विस्तार किया।  कुछ इतिहासकार मानते हैं कि देवगिरि के यादव वंश के संस्थापक भिल्लम यादव ही इस दुर्ग के निर्माता है , जिसने सन 1187 ई में  दुर्ग की प्राचीर बनवाई और इसे देवगिरी नाम दिया था ।देवगिरी किले की संरचना और सामरिक दृष्टि से की गई किलेबंदी इंसानियत का बेमिसाल नमूना है, तभी तो ब्रितानी इतिहासकार सिडनी ने ठीक ही लिखा है कि किले में जाने का रास्ता स्कूली बच्चे की आंखों में पल रहे किंग सोलोमन की खान जैसा है।

 देवगिरी किले की प्राचीर पहाड़ी की एकाकी चट्टान को काटकर बनाई गई है । इसी लिए  इतनी फिसलन भरी है कि इस पर सांप और चींटी भी नहीं चढ़ सकती आदमी की क्या बिसात । मुगल बादशाह शाहजहां के समय के लेखक हमीद ने भी कुछ ऐसा ही लिखा है। हमीद लिखते हैं कि “23 मीटर चौड़ी प्राचीर से लगी  35 मीटर गहरी खाई जिसे खुरचकर बनाई गई थी । ऐसी कुल 4 प्राचीरें हैं जिसमें भीतरी पहली प्राचीर दोहरी है इस प्राचीर के बराबर गहरी खाई है।'

यह किला भी किसी तिलिस्म सा लगता है, जिसे भेदना दुश्मन के लिए मुश्किल था। दौलताबाद नाम मुहम्‍मद बिन तुगलक द्वारा तब दिया गया था जब सन् 1327 में मुहम्मद बिन तुगलक ने यहां अपनी राजधानी बसाई थी। यह भारत के सबसे मजबूत किलों में से एक है।  यह एक तीन मंजिला किला है जिसे जीत पाना टेढी खीर था। कुल 688 फीट ऊंचे इस किले के मुख्य द्वार से सबसे ऊपर की चोटी तक जाने के लिए आपको दो किलोमीटर की मुश्किल पैदल ट्रैकिंग करनी पड़ती है। यह किला लगभग 200 मीटर की ऊंचाई तक के शंकु के आकार की पहाड़ी पर स्थित है। पहाड़ी के चारों ओर इसके नीचे की ओर खाइयां और ढलानें इसकी रक्षा करती थीं।  दुर्ग गढ़ की बड़ी संख्या के साथ रक्षात्मक दीवारों की तीन लाइनों का निर्माण किया गया है। किले की उल्लेखनीय सुविधाओं खाई, सीधी ढाल हैं। किले मे दुश्मन को रोकने के अनूठे इंतजाम हैं। किले में सात विशाल द्वार आते हैं जहां दुश्मनों से मुकाबले के लिए पर्याप्त इंतजाम हैं।सभी दीवारों पर तोपें तैनात रहती थीं।

  आखिरी दरवाजे पर एक 16 फीट लंबी और दो फीट गोलाकार की मेंडा नामक तोप आज भी मौजूद है। जिसकी मारक क्षमता 3.5 किलोमीटर है और यह तोप अपनी जगह पर चारों ओर घूम सकती है। किले में चांद मीनार, चीनी महल और बारादरी भीतर की महत्वपूर्ण संरचनाएं हैं। किले के शीर्ष पर शाही निवास, मस्जिद, स्नान घर,  मनोरंज के कमरे आदि बने हैं। किले के पहले प्रवेश द्वार के बाद बायीं तरफ अंदर एक भारत माता मंदिर भी बनाया गया है। किले के चारों ओर गहरी खाई बनाई गई है और उसमें पानी भर दिया जाता था जिसमें मगरमच्छ छोड़ दिए जाते थे। उस समय किले में जाने के लिए चमड़े का पुल बनाया गया था और जब युद्ध की आशंका होती थी तो पुल हटा लिया जाता था। कहा जाता है कि यदि दुश्मन की सेना किसी तरह सातों दरवाजे पर पहुंच भी गई तो उसे गहरी खाइयों का सामना करना पड़ता था जिसमें सैनिकों के उतरते हुए उनके स्वागत के लिए खतरनाक मगरमच्छ तैयार रहते थे।

किले का प्रवेश द्वार आड़े व तिरछे हैं। भीतरी भाग तक जाने के लिए  घुमावदार मोड़ों और सुरंग से होकर गुजरना पड़ता है। किले में कुल 8 प्रवेश द्वार हैं जिनमें मक्का तथा  रोजा का ही इस्तेमाल किया जाता है।प्रत्येक फाटक के पास एक बुर्ज है।  फाटको में लोहे के बड़े-बड़े कोण कीलें  लगी हैं। इतिहासकार हमीद के मुताबिक  तीसरा फाटक दूसरे की अपेक्षा बड़ा और मजबूत बना है । बुर्ज में हाथी व सिंह के पुतले लगे हैं। भीतरी छत में कमल की पंखुड़ियां है या भवानी मंदिर, सरस्वती कूप ,चांद मीनार और पीरकार्ड साहिब की दरगाह भी है। किले  के भीतरी परिसर में 70 मीटर ऊंची चार मीनार अपने ढंग की पूरे देश में अकेली मीनार है।  भीतर का आयताकार आधार व्यास में 33 मीटर है फारसी शैली में मीनार का निर्माण अलाउद्दीन बहमन शाह ने किले के विजय के प्रतीक रूप में 1445 में करवाया था। मीनार की ऊंचाई 70  मीटर है और इसे अलाउद्दीन बहमनी शाह ने 1435 में दौतलाबाद पर विजयी होने के उपलक्ष्य में बनाया था। इसके अंदर सीढ़ियां बनाई गई हैं जिससे ऊपर तक जाया जा सकता है। वर्ष 1986 में इसके अंदर भगदड़ मच गई जिसमें दो लोगों की मृत्यु हो गई थी उसके बाद से इसमें अंदर जाना और चढ़ना मना कर दिया गया है। चांद मीनार के बाएं जामा मस्जिद है । जिसे  जैनियों  का मंदिर बताया जाता है । जिसमें नक्काशी दार 96 स्तम्भों पर  खड़ा यह प्रथम निगाह में  जैन मंदिर दिखता है। जिसे बाद में मस्जिद का रूप दे दिया गया।  चौथे फाटक को काला फाटक कहते हैं। इसे पार करने के बाद पांचवा और छठवां फाटक आता है।  यहां यादव नरेश व अन्य पुराने राजाओं के महलों के अवशेष हैं । करीब 50 से 60 सीढ़ियाँ  चढ़ने के बाद सातवां फाटक आता है यहां पर चीनी महल है जिसकी नीली पीली टाइल्स का काम काफी  तारीफ के काबिल था।  यहीं पर बादशाह औरंगजेब ने गोलकुंडा के सुल्तान अब्दुल हसन को कैद करके रखा था। चीनी महल के बाद वृत्ताकार गढ़ गंज है जिस पर  तोपें  रखी है।  थोड़ी दूर पर किला या गढ़  के साथ-साथ  बारादरी है।  शाहजहां और औरंगजेब का यह  प्रिय स्थान था । किले में कौड़ी और हाथी आदि के नाम से तालाब है । ऊपर से खाई में पानी कैसे उतारा जाता था यह आज तक रहस्य बना हुआ है।

किले के ऊपर तक पहुंचने के लिए सुरंगनुमा  रास्ता और उनमें बनी अनगिनत सीढ़ियों को पार करना पड़ता है। पर्यटकों को मशाल के सहारे चलना पड़ता है और उनका दम घुटने लगता है । जगह-जगह पत्थरों के ढेर है । सुरंग करीब 45 मीटर लंबी है ।इस सुरंग का एक सर्वाधिक प्रभावी रक्षा उपाय यह था कि इसमें धुएं के एक अवरोधक की व्‍यवस्‍था की गई थी। लगभग आधा रास्‍ता पार करके एक स्थान पर, जहां सुरंग चट्टान के ऊर्ध्‍वाधर मुख के पास से होकर गुजरती है, एक सुराख बनाया गया था ताकि लोहे की एक अंगीठी में आग के लिए हवा का प्रवाह बन सके। यह अंगीठी सुरंग में खुलने वाले एक छोटे कक्ष के बीच में स्‍थापित की गई थी और जब आग सुलगती थी तो सुराख से बहने वाली हवा धुएं को सुरंग में फैला देती थी और सुरंग के मार्ग को दुर्गम बना देती थी।  सुरंग से निकलने के बाद 9 फीट एवं 1 मीटर का लकड़ी का पुल पार करना पड़ता है । गढ़ अपेक्षाकृत छोटा है । महलों के अवशेष आज भी इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। कभी यहां राजसभा बैठती थी । जनार्दन स्वामी की समाधि और भेंड जैसी आकृति की जिला किशन नाम की भारी-भरकम तोप देकर पर्यटक हैरत में पड़ जाते हैं।

   दक्षिण का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले इस देवगिरी किले ने कई शासकों का उत्थान-पतन देखा है , तथा कई ऐतिहासिक परिवर्तनों का भी मूक साक्षी रहा है । सात वाहन चालक राष्ट्रकूट यादव, खिलजी ,तुगलक, बहमनी , निजाम शाही मुगल और निजाम शासकों ने यहां अपना वर्चस्व कायम किया। कभी इस किले की अपनी अहमियत थी और लंबे समय तक  देश की राजनीति को प्रभावित किया था। किले के भाग्य को ग्रहण लगा 1294 ईस्वी में , जब कड़ा (इलाहाबाद) के सूबेदार अलाउद्दीन खिलजी जो बाद में दिल्ली का सुल्तान भी बना , अनुकूल मौका पाकर इलिचपुर को रौंदता हुआ किले तक पहुंच गया । उस समय राम देवराय की सेना राजकुमार शंकरदेव के नेतृत्व में लड़ने अन्यत्र गई हुई थी। जिसके चलते रामदेव राय आकस्मिक आक्रमण से सकते में आ गया।  अफरा- तफरी में अन्न की बजाय  नमक की बोरियाँ  किले में चली गई।  देवगिरि की शक्ति दो भागों में बंट गई , हुआ यह कि सेना बाहर - राजा अंदर । उधर लहसूरा में शंकरदेव और अलाउद्दीन के सैनिकों में युद्ध हुआ यदि नुसरत खान मौके पर सैनिकों के साथ न पहुंचता तो अलाउद्दीन की हार निश्चित थी । अंतत देवगिरि की हार हुई और रामदेव राय को अपमान जनक संधि करनी पड़ी थी। 

इतिहासकार फरिश्ता लिखते हैं कि लूट में अलाउद्दीन को 600 मन सोना, 700 मन मोती , दो मन हीरे-जवाहरात और लाखों चांदी के रुपए, 50 हाथी, एक हज़ार घोड़े मिले । लूट में मिले रुपयों को सैनिकों में बाँट कर  अलाउद्दीन ने सेना को अपने पक्ष में कर लिया और अपने चाचा व श्वसुर  सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की निर्दयता से हत्या कर स्वयं सुल्तान बन बैठा । समय का फेर है कि 100 वर्ष बाद जब दिल्ली की तैमूर लंग ने लूट की तो उसे चांदी के सिक्कों से भरे घड़े मिले थे, जो देवगिरि की लूट के थे। रामदेव राय के बाद शंकरदेव और हरपालदेव देवगिरी के राजा बने , किन्तु संधि का पालन न करने और इलिचपुर का राजस्व दिल्ली न भेजने के कारण अलाउद्दीन व उसके बेटे कुतुबद्दीन मुबारक ने सन 1307 एवं 1314 में दो बार फिर आक्रमण किया और हर पाल देव की जिंदा खाल खिंचवा कर मार डाला । इसी के साथ देवगिरि से हिन्दू नरेशों की सत्ता का अंत हुआ। मुबारक ने 1318 में जामी मस्जिद बनवाई और देवगिरि का नाम बादल कर कुतुबाबाद कर दिया।

लगभग दस वर्ष बाद एक बार फिर तुगलकी शासन के दौरान इस किले ने पुनः तहस-नहस व्यवस्था और बर्बरता का दौर देखा । मोहम्मद बिन तुगलक दूरदर्शी होने के साथ-साथ सनकी भी था। उसने सन 1327 ही में दिल्ली के बाद देवगिरि को अपनी दूसरी राजधानी बनाई और इसका नाम रखा दौलताबाद। दौलताबाद को नए भवनों से सुशोभित करवाया गया। चार मंजिली  विजय मीनार बनवाई ।  दिल्ली - दौलताबाद के बीच सात सौ मील लंबी सड़क बनी । दिल्ली से सरकारी दफ्तरों के साथ लोगों के स्थानांतरण का आदेश दे दिया ,जिसका पालन संभव नहीं था।  भले ही दौलताबाद अधिक दिनों के लिए  राजधानी न रह पाया हो , लेकिन लोकजीवन में 'दिल्ली से दौलताबाद-दौलताबाद से दिल्ली ' वाली कहावत को मशहूर कर दिया । किला बहमनी सुल्तानों फिर हबसी मलिक अंबर के नियंत्रण में चला गया।  सन 1633 ईस्वी में मुगल बादशाह ने अपने नियंत्रण में लिया । औरंगजेब ने अपने जीवन के अंतिम 25 वर्ष यहीं बिताए। भले ही उसकी मौत अहमद नगर में हुई हो , लेकिन आज भी वह किले से नौ किलोमीटर दूर खुलताबाद में अपने गुरु के कब्र के पास ही खुले आकाश के नीचे चीर निद्रा में सोया हुआ है।

फिल्मों में दौलताबाद का किला  - 1979 में आई सुनील दत्त की फिल्म अहिंसा के बड़े हिस्से की शूटिंग दौलताबाद के किले में की गई। ये फिल्म डाकू समस्या पर केंद्रित थी। कई साल बाद एक बार दौलताबाद का किला फिल्मो में देखने को मिला 2011 में आई फिल्म तेरी मेरी प्रेम कहानी में। इसके गीत अल्लाह जाने... की शूटिंग किले के पृष्ठ भूमि मे की गई। इस गाने में शाहिद कपूर और प्रियंका चोपड़ा का रोमांस देखा जा सकता है। किले तोप, दीवारें और रास्ते इस गाने में दिखाई देते हैं।