-विनीता अरोरा
गवान राम की जन्मस्थली अयोध्या आज भगवान राम की भगवान क्रीड़ास्थली होने के कारण भी विश्व प्रसिद्ध है। राम का स्वरुप मानातीत, अगाध और अप्रमेय है। वे वचन अगोचर बुद्धि पर, अवि- गत, , अनिर्वचनीय और अपार हैं। राम जीव और जगत के परम प्रका- शक हैं। प्रत्येक कार्य का कोई न कोई प्रयोजन होता है। राम तो पूर्ण काम हैं, विश्व रचना में उनका क्या प्रयोजन है ? दार्शनिक जन इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि लीला और जीव का कल्याण ही उनके विश्व में आने का प्रयोजन है। अपने भक्तों को अपने रूप गुण लीला आदि के दर्शन श्रवण आदि का आनंद सुख देने के लिए आज से लाखों वर्ष पूर्व विश्व मंच पर अवतारी राम का प्रादुर्भाव हुआ। क्या राम की लीलाओं के बारे में चर्चा करना मेरे वश की बात है, परन्तु फिर भी उस अनन्ना- नत, सदुगुणों के महान सागर, सर्वाधीश्वर राम की लीला-स्थली के बारे में कुछ लिखने का साहस बटोर रही हूँ। समस्त संसारी प्राणियों का शरीर कर्म भोगायतन है और भगवान का शरीर कर्म भोगायतन नहीं है । इसी से तुलसीदास ने 'इच्छामय' लीलातनु तथा 'मायामनुष्य' कहा है। भगवान राम पतितपावन हैं वह सर्वशक्तिमान हैं ।
 भगवान अपने भक्तों के लिए ही विभिन्न लीलाएँ करते हैं अहिल्या, शबरी, मारीच आदि के उद्धार हेतु ही भगवान रामचन्द्र ने अवतार लिया था ।  
"भगत हेतु लीला तनु गहई ।"
"भगत हेतु नाना विधि करत चरित्र अनूपा ।"
 अष्टचक्रा नवद्वारा देवनाम
पूरयोध्या तस्यां हिरण्मय कोष स्वर्गो ज्योतिपावृतः ।

  ऐसी देवनगरी अयोध्या जो आठ तल्ले वाले भवनों से एवम् नव द्वारों से सुशोभित है उसमें सुवर्णमय कोश हैं जो प्रकाशों से वेष्टित स्वर्गरूपा हैं । ऐसी अयोध्या में नाम रूप लीला रूप भगवान राम ने अपनी लीलायें अनंतकाल से अयोध्यावासियों को दिखलाना प्रारम्भ किया । वैसे तो समस्त विश्व भगवान राम की लीला स्थली है परन्तु आज मेरे समक्ष प्रश्न है अयोध्या की रामलीला का । अयोध्या की महिमा का गान तो सर्वशक्तिमान राम की लीलाओं की क्रीड़ा स्थली होने से ही होता है। यों तो सारे विश्व में अनेक स्थलों पर अनेक देशों में रामलीला प्रचलित है परन्तु उन सबका सारा श्रेय अयोध्या की रामलीला को है जिससे सारे विश्व में प्रचार हुआ, भारत के सभी प्रदेशों, नगरों, जिलों और गाँवों में रामलीला धूम-धाम से मनाई जाती है । रामलीला का प्रसार एवं प्रचार विशेष रूप से गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस से हुआ । सम्पूर्ण भारत में काशी नरेश के यहाँ की रामलीला प्रसिद्ध है। अयोध्या के तो राम ही थे । अयोध्या की रामलीला की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अयोध्या दूसरी नहीं बसाई जाती है दूसरे शहरों में अयोध्या बसाई जाती है, काशी में अयोध्या बनाई जाती है। देश-काल का महत्व तिरोहित नहीं किया जा सकता । भगवान राम अयोध्या में ही प्रकट हुए, भगवान की हर लीला अयोध्या में ही विशेष रूप से सम्पन्न हुई, राम की लीलाओं का चित्रण आदि कवि वाल्मीकि ने किया है। वाल्मीकि ग्रन्थ पुराण से भी पुराना है, वह रामलीला के सन्दर्भ में सबसे प्राचीन ग्रन्थ है ।  
 आश्विनी विजयादशमी के अवसर पर तो अयोध्या में रामलीला बहुत धूम-धाम से होती है। वैसे तो लीला का कोई समय निर्धारित नहीं है जब से अवतारी राम हैं तब से अयोध्या में श्री राम का प्रचार है एवं तभी से भगवान की लीला दर्शायी जाती रही है। हिन्दू बादशाही काल में अयोध्या का उत्कर्ष था । राम की लीला का प्रचार भी उस समय जोरों पर था। फिर बौद्ध काल अयोध्या पर बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ । इस समय भगवान की लीलाओं की चर्चा और मंचन में काफी कमी आई पर अश्वघोष आदि ने राम की लीला का वर्णन किया है। बौद्ध काल में कुछ परिवर्तन हुआ पर अयोध्या में रामलीला तब भी होती थी
, बंगाल में कृतवास जैसे विद्वान ने बंगाली में, महाराष्ट्र संत गुरुदास ने श्री राम की लीला का वर्णन किया है। गुजराती में भी में रामलीला का उल्लेख है। विदेशों में भी रामलीला होती है परन्तु सब मुख्य पात्र अयोध्या के राम ही हैं। विक्रमादित्य का काल भारत का स्वर्ण काल था । उस काल में तो अयोध्या की रामलीला अपने उत्कर्ष पर थी। मुगलकाल में रामचरित मानस से प्रभावित होकर रहीम रामलीला का गान करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी तो सदा रामलीला ही देखना और खेलना चाहते हैं |
खेलहों सदा रघुनायक लीला
       अयोध्या में रामलीला दो चरणों में होती है एक रामकथा का पूर्वाद्ध दूसरा उत्तरार्ध । पहला चरण मार्गशीर्ष शुक्ल (अगहन में) दूसरा आश्विन क्वांर में होता है। ये दोनों प्रकार की रामलीला कितनी प्राचीन हैं, यह बताना सम्भव नहीं है पर लोग कहते चले आ रहे हैं कि सैकड़ों वर्षों से अयोध्या में दो भागों में रामलीला होती चली आ रही है। इसका एक प्रमाण तो यह है कि अयोध्या राजा के राजकवि लच्छीरामने अयोध्या की रामलीला के सन्दर्भ में कुछ छन्द लिखे हैं और लक्ष्मण दास कवीन्द्र जो डेढ़ सौ वर्ष पूर्व हो चुके हैं, उन्होंने भी लक्ष्मण पचासा लिखा है जिसमें अयोध्या की रामलीला का उल्लेख है । इसके पश्चात् रामप्रसाद जी ने 'रामलीला' पर ग्रन्थ लिखा। उस पुस्तक के अनुसार ही अगहन में पूर्वार्द्ध वाली रामलीला 'बड़े स्थान' (अयोध्या) में होती है। एक और लेखक का संक्षिप्त रूप में लेख है। उसके अनुसार गोलाघाट के यहाँ रामलीला होती है, गोला- घाट में दोनों रामलीलायें होती हैं। राजसदन में भी रामलीला अयोध्या नरेश ददुआ जी के समय से ही होती चली आ रही है उस समय महाराजा अयोध्या के यहाँ रत्नाकर जैसे उत्कृष्ट कवि हुए जिन्होंने अपने ग्रन्थ में अयोध्या की रामलीला का वर्णन किया है। महाराजा ददुआ के यहाँ की रामलीला में दूर-दूर से लोग अभिनय करने आते थे। लंकादहन और पर्वत पर उतरने का दृश्य तो काशी की राम- लीला से भी श्रेष्ठ होता था ।
      अयोध्या में रामलीला का प्रचार उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है । करुणासिंधुजी से लेकर पंडित जुगलानंद शरण जी, लक्ष्मण किलाधीश श्री रामजी, श्री वीरमणि जी, रूपकला जी आदि सन्तों ने इस पर इतना बल दिया कि जिसको एक बार राम बनाया उसकी पूजा हमेशा उसी श्रद्धा से अयोध्या में होती रही जो जानकी बनी उसे हमेशा जानकी के समान इज्जत और आदर मिला, अन्य जगहों पर राम बदल दिए जाते हैं, पात्र अपना रूप परिवर्तित कर सकते हैं; राम भरत, लक्ष्मण शत्रुघ्न कुछ भी बन सकते हैं परन्तु अयोध्या में जो राम बना वह कोई और पात्र नहीं बना । जब भी बना राम 'राम' बना । एक से एक महर्षि, सन्त महन्त भी राम सीता के चरणों का प्रसाद लेते रहे उन्हें उच्च सिंहासन पर बैठाया जाता है ऐसी लीलाओं की प्रथा रामप्रसाद जी (बड़े स्थान) के काल से होती चली आ रही है इन लीलाओं में अश्लीलता का नाम भी नहीं है। यह लीला बड़े स्थान में पन्द्रह दिनों तक लगातार होती है, वैसी ही लीला यहूती भवन में होती है । अयोध्या के समस्त नागरिक ब्रह्म की तरह भगवानों के स्व रूपों की पूजा करते हैं। स्वरूप अक्सर मिथिला से लाए जाते हैं। स्वरूपों के लिए यह विधान है कि वह उच्च कुल के अच्छे संस्कार वाले हों, सुन्दर रूप शालीन और व्यवहार  हो ।    
    राजद्वार में रामलीला बहुत सुन्दर ढंग से मनाई जाती थी। इसी मध्य जमीन्दारी उन्मूलन के बाद यहाँ की रामलीला कमजोर हुई तो अयोध्या के सन्त महन्तों (मुख्य रूप से रघुवार प्रसादाचार्य जी) ने एक कमेटी को जन्म दिया। तब से भगवताचार्य स्मारक सदन में राम लीला प्रारम्भ हुई । अयोध्या की रामलीला को वहाँ के साधु-महन्त गृहस्थ नाटकीय ढंग से नहीं देखते बल्कि आदर
, श्रद्धा का अपूर्व भाव व उत्साह उनके चेहरों पर दिखायी देता है, इस लीला का संयोजन अयोध्या के समस्त नागरिक एवं साधु-सन्त महन्त मिल कर करते हैं। राम विवाह और वनवास उपरान्त से लेकर राजगद्दी तक जो पात्र काम करते हैं वह रामचरित मानस के आधार पर ही बोलते हैं। राम की कथा नाटकीय कथा है वहाँ संवाद भी हैं। बड़े स्थान में जो राम लीला होती है उनके यहाँ राम विवाह के सन्दर्भ में दशरथ जी के पास जनकपुर से संवाद आता है कि रामजी ने धनुष तोड़ दिया है अब यहाँ से बारात चलनी चाहिए। इसी मध्य विश्वामित्र दशरथ से राम लक्षमण को माँगने आते हैं, रास्ते में राक्षसों से युद्ध होता है, मारिच युद्ध होता है, ताड़का मारी जाती है, फिर अहिल्या उद्धार, नगर दिखाई, जनकपुर में फिर कुँवर कलेवा और विदाई समारोह होता है। यह सब लीलाएँ बड़े स्थान, गोलाघाट, लक्ष्मण किला आदि स्थानों में सम्पन्न होती हैं अब जानकी ट्रस्ट में भी होने लगी हैं। यह सब लीला वह है जो जनक पुर में होती है वैसे ये सभी मंदिर जानकी उपासक ही हैं। यों तो राजा साहब अयोध्या के यहाँ ये सब लीलाएँ होती हैं लेकिन जिस उत्साह और सज-धज से मधुरोपासक स्थानों में होती है वह अन्यत नहीं होती है। कनकभवन में यह प्रथम चरण वाली रामलीला बहुत धूम-धाम से होती है। यहाँ जो आस-पास गोण्डा, बहराइच, बस्ती, मनकापुर अकबरपुर के ताल्लुकेदार आते थे विवाह के अवसर पर जानकी जी की पाँव-पुजाई करते थे उसमें बहुत बहुमूल्य चीजें चढ़ाते थे । भारी-भारी लँहगे, जेवर और अन्य वस्तुयें अब भी कनक भवन में सुरक्षित हैं। ऐसे कई अवसर आए हैं और आते रहते हैं जबकि लोगों ने अपनी कन्याओं का विवाह इसी समय इन्हीं मंदिरों में सम्पन्न किया है। उत्तरार्ध की रामलीला राजगद्दी नगैरह राजा साहब अयोध्या के यहाँ धूम-धाम से होती है पर इस प्रथम चरण की रामलीला जिसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं है, इसमें भारत के कोने-कोने से धनी लोग आते हैं। इस रामलीला में लाखों रुपये खर्च होते हैं । यह लीला सड़क पर नहीं मनाई जाती । अब रानियों की जगह सेठ, महाजन, सेठानी एवं धनी लोगों की पत्नियाँ सीता जी के पैर पूजती हैं ।
      वर्तमान समय में अयोध्या में रामलीला की निम्नलिखित संस्थायें कार्य कर रही हैं-प्रताप धर्म सेतु ट्रस्ट, बड़े स्थान का ट्रस्ट, रामप्रसाद के अखाड़े का ट्रस्ट, लक्ष्मण किला का ट्रस्ट, जानकी महल का ट्रस्ट और एक पब्लिक संस्था भी है अयोध्या रामलीला कमेटी । एक बहुत पुरानी संस्था ने (साकेत भूषण समाज) सन् 1942 तक काम किया है जहाँ आज तुलसी चौरा बना है। इसी स्थल पर रामलीला होती थी ये रामलीला रामविवाह के समय पर होती थी। एक रघुपतिगुण कीर्तन . समाज संस्था थी जो सन् 1954 में बन्द हो गई। इसमें बड़े-बड़े घर के लोग काम करते थे। इसमें बाबू नागेश्वर प्रसाद बबुआ जी के पिताजी, बड़ी जगह के महन्त आदि भाग लेते थे ।
       राजद्वार की रामलीला पहले बहुत प्रसिद्ध थी । इसमें लक्ष्मण शक्ति की रामलीला दिखाने के लिए धवलगिरि पर्वत हनुमान जी द्वारा लाया जाता है। पहले वास्तविक व्यक्ति अपने हाथ से पकड़कर 65 मीटर ऊंचे स्थान से करीब डेढ़ सौ मीटर लम्बी दूरी तक तार के सहारे पहाड़ लेकर आता था। परन्तु सन् 1920 से पहले एक दुर्घटना के फलस्वरुप अब कागज का पुतला हनुमान जी के रूप में पहाड़ लेकर आता है ।
     राम विवाह के अवसर पर एक कड़ी अयोध्या में और जुड़ गई है रामायण मेला, जो दो वर्षों से बहुत सुन्दर ढंग से आयोजित हो रहा है। इसमें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान राम की लीलाओं की चर्चा करते हैं, मानस के आधार पर ही राम की लीलाओं का गायन व नृत्य ख्याति प्राप्त नृत्यांगनायें साँस्कृतिक कार्यक्रम के अन्तर्गत बैले नृत्य प्रस्तुत करती हैं। राम की लीलाओं की झाँकियाँ भी बहुत सुन्दर ढंग से दिखाई जाती हैं ।
अन्त में, रामलीला सिर्फ देखने के लिए ही नहीं होती बल्कि समझने के लिए भी होती है राम केवल रामलीला नहीं है। राम चरित्र है । उसी रामचरित्र को हम नहीं देख पाये, नहीं जी पाये, अपने जीवन में; तभी कागभुशुण्डि की तरह हम लोग भाग रहे हैं पर देखिये आज भी, अब भी राम की पूजा, राम की लीला हमें पकड़ने के लिए बढ़ रही है और हम यदि राम की लीलाओं से अपने चरित्रों को प्रभावित नहीं कर पायेंगे तो रावण खड़ा है हर घर के दरवाजे पर ।

(साभार: उत्तर प्रदेश,साकेत अंक ,अप्रैल 1984)


यह फोटो संभवतः1968-69 के श्री रामलीला कमेटी,अयोध्या का है ,जिसके तत्कालीन अध्यक्ष मेरे ताऊ जी स्व गोमती प्रसाद  श्रीवास्तव हुआ करते थे, जिन्हें बाएं से दायें चौथे नम्बर पर देखा जा सकता है.