चेतगंज की नक्कटैया में श्री लक्षमण द्वारा शूपर्णखा की नाक  काटे जाने का दृश्य 

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डॉ प्रदीप श्रीवास्तव

"काशी में साल भर कोई न कोई धार्मिक आयोजन तो होता ही रहता है। फिर कार्तिक माह में तो यहां राम रस ही बरसता है। दिन भर उमस, रात में गुलाबी ठंडक और उस पर रामलीला देखने का नैसर्गिक आनंद। इन दिनों काशी में जो कुछ भी बोला जाता है, वह भाषण नहीं संवाद होता है, चाहे वह राम का हो या रावण का। इन संवादों में रस होता है, पौरुष की मर्यादा होती है। काशी में स्थान-स्थान पर लीलाएं होती हैं। इनमें राग नगर की रामलीला, तुलसी घाट की नगथैय्या, नाटी इमली का भरत मिलाप एवं चेतगंज की नकटैया सबसे महत्वपूर्ण हैं ।

     विजयदशमी के एक सप्ताह बाद कार्तिक कृष्ण चतुर्थी (करवा चौथ की रात चेतगंज मोहल्ले में लाखों की भीड़ वाला 'लक्खी मेला' अर्थात चेतगंज की नकटैया सम्पन्न होती है। इस मेले में केवल वाराणसी के ही नहीं, वरन भारत के कोने-कोने से भगवान राम के  भक्त गण आते हैं, और उनके दर्शन कर मेले का भरपूर आनंद उठाते हैं। इस दिन पूरा मेला क्षेत्र बिजली के लट्टुओं की रंगबिरंगी झालरों एवं स्थान-स्थान पर बने स्वागत द्वारों से सजा होता है। दूकानें लगती हैं, जहां मिट्टी के बर्तन से लेकर घर-गृहस्थी तक का सामान बिकता है। घरों की छतों व बारजों पर आकर्षक रंगीन परिधानों में सजी-धजी महिलाएं एवं बच्चों में लाग, विमानों को देखने की ललक देखते ही बनती है। कहते हैं कि चेतगंज की इस लीला का प्रारंभ आज से डेढ़ सौ साल पहले 18वीं शताब्दी (1887) में भगवान राम के अनन्य भक्त बाबा फतेह राम ने किया था। बताते हैं कि बाब फतेहराम नगर में यायावर वृत्ति से निरंतर घूमा करते थे। जहां कहीं भी लीला होती  वहीं उनका आसन जम जाता। जब तक लीला खत्म न होती तब तक वे वहीं जमे रहते। कालांतर में इसी भक्त भाव से प्रेरित होकर बाबा ने चेतगंज मोहल्ले में एक नई शुरूआत चेतगंज रामलीला समिति की स्थापना करके की। प्रारंभ में इस लीला की व्यवस्था  चंदे पर आधारित थी, किंतु बाद में बाबा ने एक अनूठी तरकीब निकाली कि मेला क्षेत्र का प्रत्येक दूकानदार प्रतिदिन एक-एक पैसा देगा। इस प्रकार वर्ष भर में लीला की व्यवस्था के लिए काफी धन एकत्रित होने लगा। बाद में बाबा के इस निःस्पृह जीवन से अभिभूत  होकर नगर के सेठ-साहूकार, अन्य सामाजिक उत्सवों की भांति इस लीला में भी उत्साह के साथ भाग लेने लगे। उनकी तरफ से 'लाग' (मेले में निकालने वाली झांकी) की भी व्यवस्था होने लगी ।

  'नकटैया लीला' मूलतः शूपर्णखा की नाक लक्ष्यण द्वारा काटे जाने के बाद उसके भाई खरदूषण द्वारा शक्ति प्रदर्शन और पुरुषोत्तम राम से युद्ध मात्र ही है। इस दिन खरदूषण का जुलूस पिशाच मोचन (तीर्थ) मोहल्ले से आधी रात को चलकर लीला स्थान चेतगंज  तक (लगभग दो कि. मी.) सुबह चार-पांच बजे से लगभग पहुंचता है। जुलूस के बीच में लाग-विमान और स्वांग शामिल होते हैं विमानों पर छोटे-छोटे बच्चों को विभिन्न देवी-देवताओं के रथ में सजाकर झांकी बनायी जाती है। वहीं लोगों पर अनोखे करतब, जादूगरी  के अनोखे संगम के साथ-साथ बैलगाड़ियों पर जुआरी, शराबी व नेताओं का अभिनय करते युवक मेले में आये भक्तों का खासा मनोरंजन करते हैं।

      दूसरी तरफ इस लीला के महत्व का कारण यह बतलाते हैं कि 1857 के गदर के बाद अंग्रेजों के अत्याचारों-अनाचारों से जनजीवन आक्रांत हो उठा था। ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध कोई कुछ बोल नहीं पाता था। ऐसे घुटन भरे वातावरण में काशी के स्वतंत्र चेता और      अलमस्त  लोगों ने अपना आंतरिक विक्षोभ और हुतात्माओं के प्रति श्रद्धा और आस्था प्रकट करने के माध्यम के लिए ही इसे बनाया। बताते हैं कि 1920 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के समय नक्कटैया का क्रम कुछ बदला । उन दिनों नक्कटैया में नमक सत्याग्रह, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार आदि के दृश्य स्वंग लाग आदि के रूप में प्रदर्शित किए जाने लगे। इस मेले की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह मेला साम्प्रदायिक एकता का प्रतीक माना जाता है।

    इस नक्कटैया की शुरूआत आम जनता में एक नई चेतना जगाने के लिए की गई थी। पर आज दूषित वातावरण पैदा कर रही है। पहले जहां समाज को उठाने और जगाने का प्रयत्न किया जाता था, वहीं अब उनका रूप एकदम उल्टा हो गया है। अश्लील, गंदे व वीभत्स और कुरुचिपूर्ण स्वांग निकाले जाने लगे हैं। राम दरबार में वेश्या नृत्य का दौर चल पड़ा है। वेश्याओं और हिजड़ों की भीड़ जुलूस में दिखायी देने लगी है। आज इसका स्वरूप बदलता जा रहा है। धर्म की जगह व्यावसायिकता आ गई है।