ना जुड़े राम चरित्र से तो , रावण खड़ा है हर घर के दरवाजे पर..

 ( सन 1967 की फोटो ,जो स्मारक सदन,अयोध्या  के रामलीला की है : फोटो में उपस्थित लोग निम्नवत हैं । स्व  महंत रघुवर प्रसादाचार्य बड़ा स्थान,  स्व  गोमती प्रसाद श्रीवास्तव  कंपाउंडर, स्व वासुदेव ब्रह्मचारी , स्व  बलदेव प्रसाद चतुर्वेदी , कनक भवन के बड़े पुजारी स्व महंत मैथिली रमण शरण , जानकी घाट बड़ा स्थान  स्व पंडित राम किशोर मिश्रा  ,महंत दरबार लाल साहब , राम सूरत पाठक , स्व अयोध्या प्रसाद पांडे  घाट दरोगा ,स्व काशी बाबू स्व महेश नारायण श्रीवास्तव  ,महंत नृत्य गोपाल दास  मणिराम दास छावनी, नंद कुमार मिश्रा  ( पेंड़ा  महाराज ) स्व रामलाल मोदनवाल ।)

                                                ओम प्रकाश सिंह / प्रणाम पर्यटन प्रतिनिधि

वर्तमान समय में रामलीलाओं का मंचन जिंदा है तो उसका अधिकांश श्रेय जाता है अयोध्या में सन् 1886 में बने पत्थर मंदिर को।  रामलीला और संगीत के लिए प्रसिद्ध पत्थर मंदिर का निर्माण ठाकुर प्रसाद नायक ने करवाया था और बाबा राघव दास जी को दान कर दिया था।अयोध्या की संकरी गली में स्थापित इस मंदिर में दशावतार का वर्णन है। बिना ईंट गारे के पत्थरों से बने इस मंदिर की डिजाइन में सोने के पानी का भी इस्तेमाल किया गया है। निर्माण काल से लेकर अब तक इस मन्दिर के चित्रण को दुबारा रंगा नहीं जा सका है। कुछ वर्ष पहले कोशिश हुई थी लेकिन पेंट न मिल पाने के कारण कोशिश परवान नहीं चढ़ सकी। यहां के कलाकार दूसरे प्रदेशों में रामलीला कर अपनी जीविका चलाते हैं जबकि अयोध्या में सरकारी तंत्र फिल्मी कलाकारों से फूहड़ प्रदर्शन करा कर करोड़ों खर्च कर देता है। कोई उद्धारक मिले तो पत्थर मंदिर भी सोना हो जाए। पर्यटन की दृष्टि से भी मंदिर की कलाकारी बेहतरीन है।

आश्चर्य की बात है कि रामलीलाओं का स्वर्णिम इतिहास समेटे रामनगरी में ही रामलीला दम तोड़ रही है। जबकि गोस्वामी तुलसीदास जी तो सदा रामलीला ही देखना और खेलना चाहते थे। 'खेलहों सदा रघुनायक लीला'। रामलीला सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है बल्कि समझने के लिए भी होती है। राम केवल रामलीला नहीं है, रामचरित्र है। उसी रामचरित्र को हम नहीं देख पाए, नहीं जी पाए अपने जीवन में। तभी कागभुसुंडि की तरह हम लोग भाग रहे हैं पर देखिए आज भी राम की पूजा, राम की लीला हमें पकड़ने के लिए बढ़ रही है। हम यदि राम की लीलाओं से अपने चरित्रों को प्रभावित नहीं कर पाएंगे तो रावण खड़ा है हर घर के दरवाजे पर।

अयोध्या में नाम रूप, लीला रूप भगवान राम ने अपनी लीलाएं अनंत काल से अयोध्या वासियों को दिखलाना प्रारंभ किया था। वैसे तो समस्त विश्व भगवान राम की लीला स्थली है परंतु प्रश्न अयोध्या की रामलीला का है। अयोध्या की महिमा का मान तो सर्वशक्तिमान राम की लीलाओं की क्रीड़ा स्थली होने से ही होता है।  विश्व में अनेक स्थानों पर, अनेक देशों में रामलीला प्रचलित है परंतु उन सब का सारा श्रेय अयोध्या की रामलीला को है जिससे सारे विश्व में प्रचार हुआ। अयोध्या की लाज जुडवां शहर फैजाबाद ने बचा रखा है। अयोध्या में जहाँ सिर्फ़ दो स्थानों पर मंचन होता है वहीं फैजाबाद में मैदानी व मंचीय रामलीला आधा दर्जन से ज्यादा स्थानों पर होती है। विगत कई वर्षों से अयोध्या शोध संस्थान द्वारा नित्य रामलीला का प्रारंभ किया गया  है लेकिन यह जनजुड़ाव से दूर  औपचारिक और फिल्मी बनकर रह गया है।

रामलीला का प्रचार और प्रसार विशेष रूप से गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानससे हुआ। संपूर्ण भारत में काशी नरेश के यहां की रामलीला प्रसिद्ध है। अयोध्या के तो राम थे ही। अयोध्या की रामलीला की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अयोध्या दूसरी नहीं बसाई जाती है दूसरे शहरों में अयोध्या बसाई जाती है। काशी में अयोध्या बसाई जाती है। देश काल का महत्व तिरोहित नहीं किया जा सकता। भगवान राम अयोध्या में ही प्रकट हुए। भगवान की हर लीला अयोध्या में ही विशेष रूप से संपन्न हुई। राम की लीलाओं का चित्रण आदि कवि वाल्मीकि ने किया है। वाल्मीकि ग्रन्थ पुराण से भी पुराना है। वह रामलीला के संदर्भ में सबसे प्राचीन ग्रंथ है।

आश्वनी विजयादशमी के अवसर पर अयोध्या में रामलीला बहुत धूमधाम से होती थी। वैसे तो लीला का कोई समय निर्धारित नहीं है। जब से अवतारी राम है तब से श्रीराम का प्रचार है। तभी से भगवान की लीला दर्शाई जाती रही है। हिंदू बादशाही काल में अयोध्या का उत्कर्ष था। राम की लीला का प्रचार भी उस समय जोरों पर था फिर बौद्ध काल में अयोध्या पर बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। इस समय भगवान की लीलाओं की चर्चा और मंचन में काफी कमी आई पर अश्वघोष आदि ने राम की लीला का वर्णन किया है। बौद्ध काल में कुछ परिवर्तन हुआ पर अयोध्या में राम लीला तब भी होती थी। बंगाल में कृतवास जैसे विद्वान ने बंगाली में, महाराष्ट्र में संत गुरु दास ने श्री राम लीला का वर्णन किया है। गुजराती में भी रामलीला का उल्लेख है। विदेशों में भी रामलीला होती है परंतु सब के मुख्य पात्र अयोध्या के राम ही हैं। विक्रमादित्य का काल भारत का स्वर्ण काल था। उस काल में तो अयोध्या की राम लीला अपने उत्कर्ष पर थी। मुगल काल में रामचरितमानस से प्रभावित होकर रहीम भी रामलीला का गान करते हैं।

अयोध्या में रामलीला दो चरणों में होती थी। एक राम कथा का पूर्वार्द्ध दूसरा उत्तरार्ध। पहला चरण मार्गशीर्ष शुक्ल अगहन में दूसरा आश्विन क्वार मे होता था। दोनों प्रकार की रामलीला कितनी प्राचीन है या बताना संभव नहीं है पर लोग कहते चले आ रहे हैं कि सैकड़ों वर्षो से अयोध्या में दो भागों में रामलीला होती चली आ रही है। इसका एक प्रमाण तो यह है कि अयोध्या राजा के राजकवि लच्छीराम ने अयोध्या की रामलीला के संदर्भ में कुछ छंद लिखे हैं और लक्ष्मण दास कविंद्र जो डेढ़ सौ वर्ष पूर्व हो चुके हैं उन्होंने भी लक्ष्मण पचासा लिखा है। जिसमें अयोध्या की रामलीला का उल्लेख है।

इसके पश्चात रामप्रसाद जी ने रामलीला पर ग्रंथ लिखा उस पुस्तक के अनुसार ही अगहन में पूर्वार्ध वाली रामलीला बड़े स्थान अयोध्या में होती थी। एक और लेखक का संक्षिप्त रूप में लेख है उसके अनुसार गोला घाट क्या रामलीला होती थी। गोला घाट में दोनों रामलीला होती थी। राज सदन में भी रामलीला अयोध्या नरेश ददुआ जी के समय से ही चली आ रही है। उस समय महाराजा अयोध्या के यहां रत्नाकर जैसे उत्कृष्ट कवि हुए जिन्होंने अपने ग्रंथ में अयोध्या की रामलीला का वर्णन किया है। महाराजा ददुआ के यहां की रामलीला में दूर दूर से लोग अभिनय करने आते थे। लंका दहन और पर्वत पर उतरने का दृश्य तो काशी की रामलीला से भी श्रेष्ठ होता था।

     अयोध्या में राम लीला को लेकर करुणा सिंधु से लेकर पंडित जुगलानंद शरण , लक्ष्मण किलाधीश श्री राम , श्री वीरमणि , रूप कला आदि संतों ने इस पर इतना बल दिया था कि जिसको एक बार राम बनाया उसकी पूजा हमेशा उसी श्रद्धा से अयोध्या में होती रही। जो जानकी बनी उसे हमेशा जानकी के समान इज्जत और आदर मिला। अन्य जगहों पर राम बदल दिए जाते हैं। पात्र अपना रूप परिवर्तित कर सकते हैं। राम भरत लक्ष्मण शत्रुघ्न कुछ भी बन सकते हैं परंतु अयोध्या में जो राम बना वह और कोई पात्र नहीं बना, जब भी बना राम ही बना. एक से एक महर्षि, संत, महंत भी राम सीता के चरणों का प्रसाद लेते रहे उन्हें उच्च सिंहासन पर बैठाया जाता है। ऐसी लीलाओं की प्रथा रामप्रसाद जी बड़े स्थान के काल से होती चली जा रही हैं। इन लीलाओं में अश्लीलता का नाम भी नहीं है। यह लीला बड़े स्थान में 15 दिनों तक लगातार होती है। वैसी ही लीला यहूती भवन में होती थी। अयोध्या के समस्त नागरिक ब्रह्म की तरह भगवानों के स्वरूपों की पूजा करते हैं। स्वरूप अक्सर मिथिला से लाए  हैं। स्वरूपों के लिए यह विधान था कि वह उच्च कुल के अच्छे संस्कार वाले सुंदर रूप और शालीन व्यवहार हों। राज द्वार में रामलीला बहुत सुंदर ढंग से मनाई जाती थी। इसी मध्य जमीदारी उन्मूलन के बाद यहां की रामलीला कमजोर हुई तो अयोध्या के संत महंतों मुख्य रूप से रघुवर प्रसादाचार्य जी ने एक कमेटी को जन्म दिया। तब से भागवताचार्य स्मारक सदन में रामलीला प्रारंभ हुई थी।

     काफी पहले अयोध्या में रामलीला की कई संस्थाएं कार्य कर रही थी। प्रतापपुर धर्म सेतु ट्रस्ट,  बड़े स्थान का ट्रस्ट, रामप्रसाद के अखाड़े का ट्रस्ट, लक्ष्मण किला का ट्रस्ट, जानकी महल ट्रस्ट और एक पब्लिक संस्था भी थी अयोध्या रामलीला कमेटी।  एक बहुत पुरानी संस्था साकेत भूषण समाज ने सन 1942 तक काम किया था। जहां आज तुलसी चौरा बना है इसी स्थल पर रामलीला होती थी। यह रामलीला राम विवाह के समय पर होती थी। एक रघुपतिगुण कीर्तध संस्था थी जो सन् 1954 में बंद हो गई।  बड़े बड़े घर के लोग काम करते थे। इसमें बाबू नागेश्वर प्रसाद बबुआ जी के पिताजी, बड़ी जगह के मंहत आदि भाग लेते थे।

राज द्वार की रामलीला बहुत प्रसिद्ध थी। इसमें लक्ष्मण शक्ति की रामलीला दिखाने के लिए धवल गिरि पर्वत हनुमान जी द्वारा लाया जाता था। पहले वास्तविक व्यक्ति अपने हाथ से पकड़ कर 65 मीटर ऊंचे स्थान से करीब डेढ़ सौ मीटर लंबी दूरी तक तार के सहारे पहाड़ लेकर आता था पर सन् 1920 से पहले एक दुर्घटना के फलस्वरूप अब कागज का पुतला हनुमान जी के रूप में पहाड़ लेकर आता था।  परंतु अभी लगभग 30 से 35 वर्षों पूर्व उस रामलीला का अंत हुआ वह किस कारण से हुआ उसकी जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई ।

अयोध्या में रामलीला पर विनीता अरोड़ा ने काफी कार्य किया था, अब अयोध्या निवासी शिवम मिश्रा इस पर शोध कर रहे हैं। शिवम के अनुसार सन 1963 में स्वर्गद्वार  मोहल्ला में राजेंद्र निवास के सामने अयोध्यास्थ रामलीला कमेटी के द्वारा रामलीला का प्रारंभ किया गया। अयोध्यास्थ राम लीला कमेटी को प्रारंभ करने वाले सदस्य  स्व महंत हरिराम दास  महंत इक्षा भवन, स्व महंत रंगाचार्य श्रीमाली मंदिर, स्व महंत त्रिवेणी प्रसाद  स्व महंत राम सूरत शरण जी  सद्गुरू सदन गोलाघाट, स्व महंत सीताराम शरण ,लक्ष्मण किला स्व रज्जन गुप्ता, महंत बधाई भवन, महंत चारुशिला कुंज आदि सहयोगियों ने मिलकर 1963 में रामलीला का प्रारंभ किया ,अभी कुछ वर्षों पूर्व किसी कारणवश उस रामलीला का मंचन नहीं हो पाया था परंतु वर्तमान में पुनः उनके सहयोगियों ने मिलकर पुरानी कमेटी के भी कुछ लोग पुनः रामलीला का प्रारंभ कराया जो प्रशंसनीय है। इस रामलीला समिति का भरत मिलाप गोला गोला घाट चौराहे पर किया जाता है जो आज भी प्रासंगिक है।

         सन 1964 में स्मारक सदन में पुनः रामलीला प्रारंभ हुई । स्मारक सदन में अयोध्या निवासी रामहेत राम शर्मा ने गणेश विजय रामलीला मंडल अयोध्या के द्वारा ₹4000 के पारिश्रमिक के रूप में  सहयोग किया था । रामलीला प्रारंभ करने वाले सदस्यों में महंत नृत्य गोपाल दास  मणिराम दास छावनी,स्व महंत रघुवर प्रसादाचार्य  बड़ा स्थान वासुदेव ब्रह्मचारी  ,कनक भवन के बड़े पुजारी  बलदेव प्रसाद चतुर्वेदी ,स्व महंत मैथिली रमण शरण जानकी घाट ,बड़ा स्थान महंत दरबार लाल साहब, रामसूरत पाठक , स्व अयोध्या प्रसाद पांडे घाट दरोगा, स्व काशी बाबू, स्व महेश नारायण श्रीवास्तव नंद कुमार मिश्र पेड़ा महाराज स्वर्गीय पंडित राम किशोर मिश्र, स्व अवधेश दास शास्त्री , स्वर्गीय राम लाल मोदनवाल, महंत ज्ञान दास , सरदार महेंद्र सिंह  स्व शंकर दास  , महंत धनुष धारी   आदि प्रमुख थे । 1964 में रामलीला प्रारंभ होने के कुछ वर्षों बाद के रानी शर्मा जी जो समाज सेविका के अनुरोध पर रामलीला कमेटी का नाम गोस्वामी तुलसीदास रामलीला कमेटी रख दिया गया और उन्होंने अपनी वचनबद्धता को पूर्ण किया तभी से वह रामलीला स्मारक सदन में होती चली आ रही है।

        स्मारक सदन की रामलीला के  भरत मिलाप का भव्य कार्यक्रम हनुमानगढ़ी मंदिर के गेट पर साकेत भूषण समाज द्वारा किया जाता था और भगवान स्वरूप की आरती हनुमानगढ़ी मंदिर के पुजारी आकर करते थे। इसका जिम्मा स्वर्गीय रामलाल मोदनवाल , पंडा राम बिहारी चौधरी, स्व केसरी प्रसाद पांडेय  एवं उनके सहयोगियों द्वारा उठाया गया था । परंतु लगभग 4 वर्षों पूर्व रामलीला किन्ही कारणों से बंद हो गई जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है । स्मारक सदन की रामलीला बंद होने के बाद वाल्मीकि भवन में रामलीला हो रही है।