बिना आबादी वाला वाला देश,जिसका कोई मालिक नहीं

अंटार्कटिका: एक विहंगम दृश्य 
 अंटार्कटिका से लौट कर माला वर्मा की रिपोर्ट 

      बहुत दिनों से इच्छा थी एक बार ‘अंटार्कटिका’ देख आऊँ। हमारी धरती पर सात महादेश हैं, छह पर कदम रख दिया है, सातवां बाकी था। हम पति-पत्नी ने वहाँ जाने का फैसला किया। अंटार्कटिका को वाइट कॉन्टिनेंट, सातवां महादेश, साउथ पोल, पेंगुइन का देश भी कहा जाता है। यानी अंटार्कटिका एक किन्तु इसे कई-कई नामों से पुकारा जाता है और इसी धरती पर मुझे कई दिन बीताने थे। जब सब कुछ फाइनल हो गया तब ‘ड्रेक पैसेज’ का डर समाने लगा। इस ड्रेक पैसेज में दो महासागर आकर मिलते हैं और इसकी सतह को बेकाबू कर देते हैं। पूर्व में अटलांटिक महासागर तथा पश्चिम में प्रशांत महासागर का मिलन है ये ड्रेक पैसेज। लहरें उत्ताल, बड़ी खतरनाक होती हैं। इतना कि अब तक कई छोटे-बड़े जहाज क्षतिग्रस्त हो गये हैं। कईयों की जाने भी चली गई। खैर, बीती बातों से मुझे कुछ लेना देना नहीं था–‘जो बीत गई सो बात गई’। डर के आगे जीत है। मेरे पति थोड़ा आनाकानी कर रहे थे लेकिन मैं दृढ़ निश्चय थी कि मुझे अंटार्कटिका देखना है। कोलकाता के एक ट्रेवल एजेंसी ‘ट्रेवल लाइव’ से बुकिंग हुई थी। ग्रुप में 21 लोग थे।

अंटार्कटिका में माला वर्मा 

हम कोलकाता से दिल्ली, दिल्ली से अदीस अबाबा (अफ्रीका), अदीस अबाबा से पुनः पन्द्रह -सोलह घंटे की एक लंबी उड़ान के बाद ब्यूनस आयर्स (अर्जेंटीना की राजधानी) पहुंचे। यहां एक पूरा दिन लोकल सिटी टूर करने के बाद (मैराडोना का शहर है ब्यूनस आयर्स) दूसरे दिन सुबह फिर से साढ़े तीन घंटे की फ्लाईट से हम उशुआइया (दुनिया का सबसे दक्षिणतम शहर) पहुँचे और फिर वहीं से हमने एक क्रूज शिप लिया जिसका नाम था – ‘MS NANSEN HURTIGRUTEN’। यही जहाज हमें अंटार्कटिका तक ले जाने वाला था। इस जहाज पर साढ़े तीन सौ पर्यटक थे जो दुनिया के कई हिस्से से यहां पहुंचे थे और डेढ़ सौ से ऊपर कर्मचारी हर सेवा के लिये यहां कार्यरत थे। 

5 मार्च 2023, शाम सात बजे हमारा क्रूज शिप उशुआइया से खुल गया और कुछ घंटों बाद ही यानी आधी रात तक ये ‘ड्रेक पैसेज’ में प्रवेश कर गया। जहाज के हिचकोले से आँख खुल गई। कमरे की खिड़की और जहाज के डेक से हम लगातार ड्रेक पैसेज को निहार रहे थे। रात के वक्त सचमुच ये हमें डरा रहा था, लहरें बेकाबू थी, जाने किस बात का गुस्सा था या फिर किसी बात पर खुशी! समझ में नहीं आया। जहाज हिलडुल रहा था साथ ही हमारा शरीर भी। पहले तो डर लगा फिर हम अभ्यस्त हो गये। जहाज में इतने सारे लोग थे और सब कुछ नॉर्मल था। मोशन सिकनेस के लिये हम सबने एक टैबलेट- AVOMINE खा लिया था। जिसकी वजह से सब कंट्रोल में था।ड्रेक पैसेज में हम दो दिन विचरते रहें और 8 मार्च की सुबह जब आँख खुली तो कमरे की खिड़की से बाहर देखा समुद्र  शांत था और चारों तरफ बर्फ के पहाड़ एक कतार में सजे खड़े थे। कितना सुन्दर, कितना अनुपम, कितना अद्भुत, कितना लुभावना! जहां तक निगाह जाती वहां बर्फ के सफेद पहाड़ और उनके बीच जब तब काली चट्टान झांकती दिख जाये। सफेद रंग क्या होता है इसका असली रुप इन पहाड़ों पर दिख रहा था। ऐसी सफेदी आजतक मैंने कहीं नहीं देखी थी। 

समुद्र की सतह पर छोटे-बड़े बर्फ के टुकड़े फैले थे और कहीं-कहीं तो बर्फ के टुकड़े महीन होकर सफेद चादर की तरह फैल गये थे। कई बार तो बर्फ के विशाल खंड पानी में डूबते-उतराते दिखे। बहुतों में से नीली रोशनी फूट रही थी और ऐसे शिलाखंड बहुतायत में थे। बर्फ के टुकड़ों पर अंटार्कटिक टर्न नाम की सुन्दर चिड़ियों का झुंड बैठा दिखा, पानी में हिलती-डुलती, बहुत ही अजब-गजब नजारा था। पेंगुइन की तादाद कभी बर्फ के ऊपर, तो कभी चट्टान पर तो कभी पानी में छलांग लगाते तो कभी तैरते देखा। हमने कई सील और पूँछ फटकारती व्हेल को भी सामने से देखा। पूरे इलाके को जैसे प्रकृति ने फुरसत में अपने हाथों सजा-संवार रखा था।

पेंगुइन

हमें अंटार्कटिका के पेनिनसुला क्षेत्र में ही घूमना था जिसमें अनगिनत आइलैंड हैं। हर दिन बड़े क्रूज शिप से छोटे रबर बोट जिसे जोडिएक कहते हैं, पर सवार होकर, पूरे गर्म कपड़ों से लैस हम सब पर्यटक किसी न किसी द्वीप पर उतरते। कुछ घंटे वहां द्वीप पर बीता, बर्फ पर टहलकदमी कर, चारों तरफ का नजारा, पेंगुइन का जत्था देख हम वापस जोडिएक से क्रूज शिप पर सवार हो जाते। सुबह एक आइलैंड तो कभी शाम तक  दूसरा द्वीप। ये सिलसिला कुछ दिन बना रहा। एक समस्या जबतब आन पड़ती। मौसम का बिगड़ जाना। अंटार्कटिका घूमने का बेस्ट सीजन दिसंबर-जनवरी-फरवरी होता है तब यहां गर्मी का सीजन होता है और यहां डे लाईट यानी ज्यादा से ज्यादा हमें सूरज की रोशनी मिलती है। मार्च महीने से यहां ठंड शुरू हो जाती है। बर्फ जमने लगती है और किनारे वाला हिस्सा समुद्र का, वो भी बर्फ में तब्दील हो जाता है।

अंटार्कटिका एक अजब-गजब देश है। यहां अक्सर बर्फीली हवाचलती है और आकाश में बादल छाये मिलेंगे। बारिश के नाम पर यहां सिर्फ स्नोफॉल होता है। यहां छह महीने रात तो छह महीने दिन होता है। सूरज कभी आसमान से गायब तो कभी आसमान से हटने को तैयार नहीं होता, लापरवाह एक ढीठ बच्चे की तरह, जहां है वहीं असकत में पड़ा रहेगा। अंटार्कटिका के ध्रुवीय क्षेत्र वाले इलाके में लाखों वर्षों से कभी बारिश नहीं हुई सिर्फ बर्फ गिरती है जिसके चलते बर्फ की कई किलोमीटर की ऊंची दीवार और सपाट जमीन बन गई है। जहां तक नजर जाये बर्फ ही बर्फ।ये बर्फ लाखों सालों से पिघली नहीं बस अपने वजन के भार से आगे बढ़ते हुए ग्लेशियर के रुप में बड़े-बड़े शिलाखंड में टूट समुद्र में गिर जाती है और ये शिलाखंड भी वर्षों गलते नहीं। इन बर्फ के शिलाखंड का हम एक हिस्सा पानी के ऊपर देखते हैं बाकी तीन हिस्सा ये पानी के अंदर होता है। 

इस अंटार्कटिका को खोजने के लिये कई वैज्ञानिक, नाविक, शोधकर्ताओं ने अपनी जान गंवाई है। यहां हर वक्त विपरीत परिस्थिति में रहना होगा। यहां ठंड कभी-कभी माइनस 90 तक पहुँच जाती है। दुनिया की सबसे ठंडी जगह तथा इसे सूखा बर्फ का रेगिस्तान भी कहा जाता है। तेज हवा और  तूफान इतना भयंकर कि बड़े-बड़े जहाजों को पल में नष्ट कर दे। खैर,अभी भयभीत होने की बात नहीं। हर चीज आधुनिक है और मजबूत भी। वैज्ञानिक तौर पर सब कुछ एडवांस हो चुका है। सोचिए ये देश कैसा होगा। मैंने जिस पल अंटार्कटिका को देखा, मैं रो पड़ी थी। विश्वास नहीं हो रहा था कि ये हमारे सामने है। ये जागती आँखों का ख्वाब था। अंटार्कटिका, अंटार्कटिका है इसकी तुलना अन्य किसी देश से नहीं हो सकती। अंटार्कटिका अभी भी अछूता है, शोरगुल, गंदगी प्रदूषण से दूर एक वीरान अनमोल स्थान जो किसी का भी ड्रीम डेस्टीनेशन हो सकता है। आप पर्यटक बन कर जाये और बिना प्रदूषण फैलायेलौट आये। यहां जो भी आता है चाहे पर्यटक या शोधकर्ता-वैज्ञानिक किसी तरह का कोई गंदगी यहां छोड़ कर नहीं जा सकते। शोधकर्ता यहां समर या  विंटरिंग कैंप के लिये आते हैं। ये लोग या तो चार महीने या फिर बारह-सोलह महानों के लिये आते हैं, रहते हैं। अपने द्वारा छोड़ी हर गंदगी को वापस बटोर कर ले जाते हैं। काफी सामग्री ऐसी होती है जिसे वहीं का वहीं जला दिया जाता है।

इस महादेश अंटार्कटिका पर किसी का मालिकाना हक नहीं है और न ही कोई देश अपना दावा ठोक सकता है। यहां की जनसंख्या नगन्य है यानी जीरो। सिर्फ सीजन में यहां पर्यटकों की भीड़ उमड़ती है या फिर शोधकर्ता आते हैं। बाकी तो यह धरती वीराने में होती है। इस महादेश पर पचास से साठ देश अपने-अपने अनुसंधान केन्द्र बना रखे हैं। भारत का पहला शोध केन्द्र ‘गंगोत्री’ था जो बाद में किसी बर्फीले तूफान में नष्ट हो गया। उसके बाद मैत्री और भारती का निर्माण हुआ जो अभी भी कार्यरत है। यहां भारतीय शोधकर्ता आते हैं, महीनों रहते हैं और दुनिया को नई-नई खोजों से अवगत कराते हैं। अब तो इतनी सुविधा और आराम है कि अंटार्कटिका जाने के लिए कई देशों ने अपने-अपने अनुसंधान स्टेशन, केन्द्र और खुद का हैलिपैड बना रखा है। सन् 1984 में पहला भारतीय दल ‘मैत्री’ अनुसंधान केन्द्र में पहुंचा था। इस ‘मैत्री’ नाम का सुझाव हमारे देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री  श्रीमती इंदिरा गांधी ने दिया था। मैत्री और भारती स्टेशन एकदम आसपास नहीं है, इनमें काफी दूरी है। कई सौ किलोमीटर।

अंटार्कटिका में पति के साथ 

हमने अंटार्कटिका के पेनिनसुला में स्थित कई द्वीपों को देखा जिसमें डैंको आइलैंड, डेमोय प्वॉन्ट, पैराडाइज हार्बर, नेको हार्बर, फोर्नियर बे आदि-आदि। हर द्वीप एक दूसरे से बढ़कर सुन्दर। चारों तरफ बर्फ का साम्राज्य जिसमें लाखों-करोड़ों की संख्या में छोटे-बड़े बर्फ के शिलाखंड दिखे। रबर बोट (जोडिएक) जब द्वीप के तट पर लगता, हमें घुटने तक बर्फीले पानी में उतर कर आगे बढ़ना पड़ता था। लोग हमारी मदद को तत्पर रहते। कई द्वीपों पर अनुसंधान केन्द्र दिखे। कुछ लोग कार्यरत हैं तो कई पुराने केन्द्रों को म्यूजियम की शक्ल दे दी गई है ताकी पर्यटक इसके अन्दर प्रवेश करें और देखे कि लोग कैसे रहते थे। इन द्वीपों पर पेंगुइन के झुंड के झुंड दिखे तथा प्रत्येक झुंड को ‘रूकरी’ कहते हैं। बर्फ पर इनके चलने से एक रास्ता जैसा बन गया था और अधिकतर पेंगुइन उसी रास्ते से होकर चलते हुए या सरकते हुए आगे बढ़ रहे थे। इनके दो महीने के बच्चे भी खूब दिखे। बहुत सुन्दर, बहुत प्यारे। अपने मां-बाप के आगे-पीछे घूमते दिखें। हमारे करीब भी आ जाते किन्तु इन्हें छूना, सहलाना और कुछ खिलाना एकदम मना था। आप इनके खूब करीब भी नहीं जा सकते थे। एक खास दूरी बनाकर घूमना था।

ये पेंगुइन मनुष्यों से नहीं डरते हैं क्योंकि यहां जो शोधकर्ता आकर कई महीने रहते हैं उनके साथ इनकी दोस्ती हो जाती है। मनुष्य इनका नुकसान नहीं करते लेकिन ये दूसरे जीवों का खुराक बन जाते हैं। एक स्कुआ पक्षी जो देखने में बहुत छोटा है लेकिन चोंच बहुत पैने-ये पेंगुइन के छोटे बच्चों को मार देते हैं। हमने एक जगह स्कुआ को शिकार करते भी देखा। वहां की सफेद बर्फ लाल हो गई थी। देख कर बहुत बुरा लगा। पेंगुइन जब पानी में उतरती है अपने भोजन, मछली की तलाश में तब किलर व्हेल, सील, व्हेल सब इनके ताक में रहते हैं। हर जीव एक दूसरे के दुश्मन है। संघर्ष ही संघर्ष है सबके जीवन में। एक कहावत है- ‘देह धरे का दंड है’। शरीर मिला तो फिर संघर्ष है। यहां पेट भरना जरूरी है इसके लिये जिस किसी की जान ली जा सकती है। इतना कुछ होने के बाद भी अंटार्कटिका में पेंगुइन की जनसंख्या लाखों में है। इसकी यहां कई प्रजातियां हैं। 


वैसे तो हमनें कई आइलैंड पर कदम रखें लेकिन इस एक ‘नेको हार्बर’ की बात करूं। सुबह लैंडिग की बात थी लेकिन मौसम अचानक से इतना खराब हो गया कि कुछेक रबर बोट ही नेको हार्बर की तरफ गये और फिर इसे रोक दिया गया। जहाज के सभी पर्यटक हार्बर पर नहीं उतर सके। तेज हवा के साथ तेज स्नोफॉल। शाम तीन बजे तक मौसम ठीक हुआ तो दुबारा नेको हार्बर जाने के लिये रबर की बोट को समुद्र में उतारा गया। सुबह वाले शेड्यूल में हमारे ग्रुप के सभी लोग उस नेको द्वीप पर हो आये थे सिर्फ हम पति-पत्नी रह गये थे। हमने इजाजत ली और रेडी होकर जोडिएक पर सवार हो गये। हमारे अलावा अन्य विदेशी पर्यटक थे। हम नेको हार्बर पहुंचे। चारों तरफ बर्फ की ढेरी और पेंगुइन की जमात। सब कुछ स्वप्नसरीखा, आलौकिक था। दुनिया का कोई स्थान इतना सुन्दर भी हो सकता था! हमने जी भर तस्वीरें खींची। हमारा जहाज क्रूज शिप सामने ही एक जगह स्थिरमना खड़ा था। 

थोड़ी देर बाद इस नेको हार्बर से हमें लौट जाना था। जोडिएक पर बैठूँ उसके पहले एक जगह खड़ी होकर इत्मीनान से, भक्तिभाव में लीन मैंने अपना राष्ट्रगान-‘जन गण मन अधिनायक जय है’ गाया, फिर राष्ट्रगीत-‘वंदे मातरम’ गाया और फिर एक भोजपूरी गीत, ‘हे गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ गाया। ये मेरी जिन्दगी का एक अहम् दिन था। अनुपम- अनमोल पल जिन्हेंकभी नहीं भूला पाऊंगी। अंटार्कटिका की धरती पर इसके पहले शायद ही किसी ने भोजपुरी गीत गाया होगा(कहीं ये अपने आप में एक रिकॉर्ड तो नहीं बन गया!)। हां, भारतीय लोग यहां हमेशा आते हैं उन्होंने राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत जरूर गाया होगा। मेरी आँखों में आंसू थे और लब थरथरा रहे थे। मेरे आसपास कुछ विदेशी लोग जुट आये थे। मेरे गीतों का मतलब  भले नहीं समझा हो लेकिन उनकी नजरों में प्रशंसा के भाव तिर रहे थे।

ठंडी बर्फीली हवा चल रही थी, ढेर सारे गर्म कपड़ों में लदी-फदी मैं कांप रही थी लेकिन गीत गाते वक्त जाने कहां से इतनी ऊर्जा, शक्ति मिली कि ठंड को भूला बैठी। अद्भुत क्षण था वो। मेरे गीत, मेरे सुरताल अंटार्कटिका की फिजाओं में मौजूद रहेंगे। वैज्ञानिकों का कहना है किसी के शब्द, आवाज अनंतकाल तक उस वातावरण, उस हवा, उस माहौल में जस का तस घुले रहते हैं, वे मिटते नहीं, लोप नहीं होते। क्या पता कभी आने वाली पीढ़ी यहां पहुँचे और मेरे गाये गीत का कुछ टुकड़ा उनके हाथ लग जाये! बंधु, मैंने अपना काम कर दिया है और आगे का काम प्रकृति पर छोड़ दिया। उसकी जो मर्जी वो करें। चाहे तो बर्फ के अन्दर मेरी आवाज दबा दे, बर्फीली लहरों में समाहित कर दे या फिर यूँ ही हवा में तैरता छोड़ दे। आखिर पूरी धरती पर प्रकृति का ही कानून चलता है। कहीं वो बर्फ की चादर फैला देती है तो कहीं बर्फ के पहाड़ खड़ी कर दे, तो कहीं बालुओं से भरा सूखा रेगिस्तान गढ़ दिया तो कहीं महासागरों व नदियों के पानी से जमीन के सारे गड्ढ़े भर दिये, तो कहीं गाछ-बिरछ से भरे जंगलों की तादाद दिख जाये। लाखों, करोड़ों तरह के जीव-जन्तु उत्पन्न किये और पूरी धरती पर विचरने के लिये छोड़ दिया और इनके बीच हम मनुष्यों की विशाल सेना !


अंटार्कटिका में धरती पर रहने वाले सबसे बड़े जीव व्हेल को देखा तो सील, पेंगुइन के साथ कई तरह के पक्षी भी देखने को मिला। एक पक्षी अल्बाट्रॉस को देखा जिसके पंखों का फैलाव 12 फीट तक हो सकता है तो वहीं पेंगुइन एक पक्षी, पंख होते हुए भी उड़ नहीं सकता।

नॉर्वे के रोआल्ड एमंडसन दुनिया के पहले शख्स थे जो पृथ्वी के साउथ पोल पहुंचे थे। ये अपने पूरे टीम के साथ निकले थे। इनके साथ 52 कुत्ते शामिल थे। दो महीने की तकलीफदेह यात्रा के बाद ये साउथ पोल पहुंचे थे। एमंडसन के एक महीने के बाद इंग्लैंड के रॉबर्ट स्कॉट की अगुवाई में इनकी टीम भी साउथ पोल पहुंची लेकिन वहां पहले से नॉर्वे का झंडा लहरा रहा था। स्कॉट को भारी दुख पहुंचा और लौटने वक्त स्कॉट के सभी साथी बर्फीले तूफान में मारे गये, साथ ही स्कॉट भी मारा गया। साउथ पोल पर यहां एमंडसन ने अपना झंडा गाड़ा था उसी स्थान पर एक साइंटिफिक बेस बनाया गया जिसका नामकरण इन दोनों के नाम पर यानी रोनाल्ड एमंडसन और रॉबर्ट स्कॉट के सम्मान में किया गया। सन् 1911 के 14 दिसंबर को एमंडसन पहुंचे थे और रॉबर्ट स्कॉट की टीम 17 जनवरी सन् 1912 को पहुँची। 

अगर मेरी नजर में ‘अंटार्कटिका’ कोई संगीत होता तो यह ‘रवीन्द्र संगीत’ होता। साहित्य होता इस केटेगरी में ढेरों साहित्यकार का नाम रखती जैसे प्रेमचंद, हरिवंश राय बच्चन, महादेवी वर्मा, शरतचंद, पंत, विमल मित्र, बंकिमचंद, दिनकर आदि-आदि। ये लिस्ट लम्बी हो सकती है। कला का पक्ष रखूं तो राजा रवि वर्मा हैं,ऊंचाई व विशालता की बात करूँ तो हमारा हिमालय है। तरलता की तुलना करूँ तो हमारी गंगा है। उदाहरण तो अभी भी बहुत है। खैर, धरती का यह सुन्दरतम हिस्सा चिरकाल तक ऐसा ही अछूता, अपने प्राकृतिक स्वरूप को बनाये रखे, इसकी पवित्रता बनी रहे इसके लिये पूरे विश्व को ये बात ईमानदारी से सोचनी होगी। शोधकार्य और पर्यटन के नाम पर अंटार्कटिका के अस्तित्व पर तनिक आंचनहीं आनी चाहिये। 

तो चलिये इसी बात पर अगर आप घूमने के शौकीन हैं, तो अपना सामान पैक कीजिये और अंटार्कटिका की सैर पर निकल जाइये। खर्चीला जरूर है लेकिन एक बार देखिये तो सही कि अंटार्कटिका क्या चीज है, कितना सुन्दर है, कितना मनोहारी है!