प्रेमचंद गंगा के भागीरथ: कमल किशोर गोयनका
प्रखर उपन्यास-सम्राट श्री प्रेमचंद जी ने खुद भी कहा है : ‘व्यक्ति की बुद्धि और उसकी भावनाओं को प्रभावित करनेवाली रचना को ही साहित्य कहते हैं’ वे आगे कहते हैं ‘जिस रचना में साहित्य का उद्घाटन हो, जिसकी भाषा प्रौढ़ एवं परिमार्जित एवं सुंदर हो, जिस में दिल और दिमाग़ पर असर डालने का गुण हो, जिस में जीवन की सच्चाइयाँ व्यक्त की गई हों वही साहित्य है।‘
कोई भी रचनाकार समय और समाज से निरपेक्ष होकर लेखन को अंजाम तलक पहुंचा ही नहीं सकता। काल और परिवेश का सूक्ष्म पारखी ही जीवंत रचनाओं को जन्म दे सकता है, क्योंकि रचना का जन्म शून्य से नहीं हुआ करता, अपितु सृजन के गर्भ से सृष्टा का वैयक्तिक एवं सामाजिक परिवेश से हुआ करता है। जब वैयक्तिक वेदनाएँ लेखनी को माध्यम बनाकर समूचे वर्ग की वेदनाएँ बन जाती हैं तो महान रचना का जन्म होता है। और इस प्रकार अभिव्यक्ति की व्यापकता रचना की ख्याति का सबब बनकर उसे कालजयी बना देती है। एक ऐसी ही कालजयी कृति है “प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन” जिसके के सृजनहार श्री कमल किशोर गोयनका जी हैं। उनके साहित्य के क्षितिज का विस्तार आज जिस फ़लक को छू रहा है वह यही प्रमाणित करता है कि वे एक ऐसे आलोचक और शोधकर्मी हैं जो देश-विदेश में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य को गंभीरता से लेते हैं, और साहित्य की नई प्रवृत्ति की दिशा में कुछ मान्यताएँ, कुछ शंकायें, कुछ समाधान जो उन्होंने अपनी क़लम की धारधार अभिव्यक्ति से, अनेकों साक्षात्कारों व बातचीत के दौरान विस्तार से खुलासा किये हैं, जिनको पढ़ते हुए जाना जाता है कि उनका लगाव हिन्दी के साहित्य के प्रति साधना बन गया है। इसी राह की विडंबनाएँ, अड़चनाएँ, उपेक्षाएँ अनेकों पड़ावों पर साहित्य का मूल्याँकन करने वालों की विचारधाराओं के रूप में सामने आई होंगी, उन्हें भी एक पड़ाव समझ के पार करते हुए उन्होंने अपनी विचारात्मक सोच-समझ, गहरे अध्ययन से एक रचना संसार का सृजन किया है। हिन्दी साहित्य के प्रचार-प्रसार तथा प्रतिष्ठा के लिये यह प्रोत्साहन का कार्य वह क़ाबिले-तारीफ़ है।
डॉ॰ बाल कृष्ण पांडेय जी का सिद्धांत : “लेखक का व्यक्तिगत जीवन उसकी विचार प्रतिकृया के निर्माण का हेतु होता है, क्योंकि लेखक का व्यक्तित्व ही विचारों का उदभावक होता है। इसलिए व्यक्तित्व के निर्माण से ही विचारों का निर्माण होता है।“ वैसे भी किसी लेखक को जानना-पहचाना अति कठिन होता है। फिर भी पठनीयता के आधार पर उनकी हस्ताक्षर रचनाओं से वाक़िफ़ होकर यही जाना जाता है कि रचनाकर अपनी रचना से दूर नहीं। उनकी रचनात्मक दुनिया उनके विचारों का परिचायक बनती है, या यूं कहें विचार प्रतिकृया का प्रतिफलन ही रचना है। रचना ही विचारों की संवाहिका होती है, लेकिन लेखक अपनी विचार प्रतिक्रिया ही रचना में ढालता है, इसलिए रचना विचाराभिव्यक्ति का साधन है।
यही साधन साधना की हद से सरहदों को किस तरह छू पता है, यह तब जाना जब श्री कमल किशोर गोयनका जी का शोध-ग्रंथ नुमां संग्रह “प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन” हाथ में आया और मेरी पठनीयता मुझे इस प्रेममय कृति में कुछ यूं धँसने पर मजबूर करती रही कि मैं अपने कुछ विचार अभिव्यक्त करने से बाज़ न आ सकी।
प्रेमचंद साहित्य के अध्येता-डॉ॰ कमल किशोर गोयनका के रचयित 757 पन्नों वाले इस प्रेमचंद शास्त्र को पढ़ते हुए एक बात निश्चित रूप से सामने आई कि उनकी रचनात्मक शिराओं में प्रेमचंद कुछ यूं रच बस गए हैं कि उन्होंने प्रेमचंद के जीवन, परिवेश, व साहित्य में धँसकर जिस साहित्य का सृजन किया है, वही उनके रचनधर्मिता की प्रामाणिकता है जो उन्हें प्रेमचंद स्कालर और प्रेमचंद विशेषज्ञ के नाम से एक अलग पहचान से अलंकृत करने से नहीं चूकी। यह हिन्दी में एक अनूठे ढंग का प्रयास है और भविष्य में मील का पत्थर माना जाएगा। यही नहीं इससे प्रेरणा पाकर कुछ और अन्वेषणकर्ता इस प्रकार के कार्य शुरू करेंगे, और हिन्दी में अन्य यशस्वी कवि-लेखकों के विश्वकोश के निर्माण –कार्य से संलग्न होंगे।
इस ग्रंथ के अन्त में परिशिष्ठ-ग के अंतर्गत लिखी प्रेमचंद की 26 पुस्तकों की, अन्य साहित्यकारों पर 17 पुस्तकें, हिन्दी के प्रवासी साहित्य पर 6 संग्रहों की सूची दर्ज है। हिन्दी साहित्य जगत में इन कृतियों की संपन्नता उनकी अक्षय कीर्ति की आधार शिला है और रहेगी।
प्रेमचंद की कहानियों के इस कालक्रमानुसार अध्ययन को आठ अध्यायों में विभाजित किया गया है।
अध्याय: एक- प्रेमचंद : कहानीकार का इतिहास, कहानी की स्थिति, कहानियों की संख्या और हिन्दी-उर्दू-कहानी संग्रह अध्याय: दो- प्रेमचंद की कालक्रमानुसार सूचि अध्याय: तीन- प्रेमचंद का कहानी दर्शन अध्याय: चार- प्रथम दशक (1908-1910) अध्याय: पाँच- द्वातीय दशक (1911-1920) अध्याय: छः – तृतीय दशक (1921- 1930) अध्याय: सात- चतुर्थ दशक (1931-1936) अध्याय: आठ –उपसंहार बावजूद इसके परिशिष्ठ क, ख, ग, में प्रेमचंद की कहानी सौत’ की मूल पाण्डुलिपि, कुछ कहानियों की अंग्रेज़ी रूपरेखाएँ, व कमल किशोर गोयनका की प्रकाशित पुस्तकों की सूची शामिल है।
इसी संदर्भ में श्री भारकुस ओरिधियस का कथन है “मनुष्य का जीवन उसकी वैचारिकता और मानसिकता पर निर्भर करता है”। सच ही है, जब किसी रचनाकार की साहित्य रुचि किसी एक खास विधा में हो और वह उसके लिये जुस्तजू बन जाये तो वहाँ लेखन कला साधना स्वरूप सी हो जाती है. ऐसी ही स्थिती में अगर लक्ष्य भी एकलव्य की तरह निशाना साधे हुए हृदय बुद्धि-चाक पर कसा हुआ हो तो यक़ीनन अनुभूतियों के विस्फोट को वाणी मिल जाती है। इसी परिभाषा में एक और कड़ी डॉ॰ श्याम सिंह ‘शशि’ जी ने उनकी अपनी कृति ‘सागरमाथा’ में जोड़ते हुए लिखा हैं -“जो साहित्य देश-समाज तथा समूची मानवता को कुछ नहीं देता, उसका सृजन करके कागज़ काले-पीले करने का कोई अर्थ नहीं।“ अब यह गणित जोड़ना कि गोयनका जी ने अपनी सृजनात्मक संसार में कितना किसपर लिखा, कितना उनपर लिखा गया है कहना बहुत कठिन है। ऐसी ही कालजयी कृतियों के सृजन हार के रूप में कमल किशोर जी को जानना, पहचानना रेत के कणों में से एक सुई को तलाशना है। उनके जीवन से पाठक के रूप में मैं बहुत ज़्यादा परिचित नहीं, फिर भी अनुमान लगाया जा सकता है कि कोई कलाकार अपने कलाकृति से दूर नहीं होता. शायद इसी एवज़ शरत बाबू ने कवि रविंद्रनाथ टैगोरे से कहा था; "अपनी आत्म कथा लिखकर मैं लोगों का बोझ नहीं बढ़ाना चाहता, जो मुझे जानना चाहता वह मुझे मेरी रचनाओं में देख सकता है. क्या मैं वहां नहीं हूँ? जो उनके लिए एक पुस्तक और बढ़ाऊँ?" पुस्तकें यक़ीनन सामाजिक क्रांति का प्रामाणिक दस्तावेज़ होती है। किताबें बोलती हैं, मन में उठे सवालों का जवाब देती है। श्री प्रेमचंद की कालजयी कृतियाँ कला तथा चिंतन की कृतियाँ हैं जो समय के निर्णय के सामने टिकी हुई हैं। उनकी रचनाओं में राष्ट्रीय मनोकृति का प्रतिबिंब निहित है। उनके मानस पटल पर संवेदनाओं, भावनाओं और विचारों के स्तर पर निर्माणित, अपने आस-पास की घटित घटनाओं को, क्रांतियों को, संघर्षों के पहाड़ों से रास्ता निकालने की क्षमता से, अपनी कृतियों को कहानी के किरदारों के माध्यम से सामान्य जन के सामने प्रस्तुत किया है। प्रेमचंद ने खुद भी कहा है-“जीवन से बड़ी पुस्तक कोई नहीं, न कोई वेद, न कोई शास्त्र, न कोई साधू न कोई संत।“ और उसी प्रेमचंद के जीवन की पुस्तक का हर पन्ना पलटने वाले कर्म योगी श्री गोयनका जी इस राह के पथिक बनकर अपनी श्रमशीलता व समर्पित भावना से ‘पहाड़ों से दूध का दरिया’ निकाल लाने की हर मुमकिन कोशिश में यह अथक यात्रा कर रहे हैं। विचारों की इस दृढ़ता और स्थिरता के कारण उन्होंने प्रेमचंद के इस कालजयी कार्य के संकल्प रूपी महायज्ञ में अपना जीवन समर्पित किया है। इस बदलते युग के परिवर्तनशील दौर में इन्सानी ज़िंदगी में आए हर नए बदलाव को महसूस करना, जनता की संवेदनाओं, समस्याओं को आवाज़ देना भी एक साधना है, जो साहित्य के माध्यम से उस ज़िंदगी के निस्बत और सच्चाई को बेपर्दा करे, यही इन्सानियत परस्ती का प्रमाण है। मार्क्सवादी दृष्टि से भी साहित्य का पहला सिद्धांत रचनाकार, कलाकार का अपने सामाजिक दायित्व के प्रति सचेत होना है। प्रेमचंद स्कालर और प्रेमचंद विशेषज्ञ श्री कमल किशोर गोयनका जी अकेले एक ऐसे आलोचक और शोधकर्मी हैं जो देश-विदेश में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य को भी इतनी गंभीरता से लेते हैं | आप ने प्रेमचंद और प्रवासी साहित्य पर अपना जीवन होम कर दिया | अमेरिका की साहित्यकारा सुधा ओम ढींगरा, जो अपनी साहित्य की रचनात्मक दुनिया में कई संस्थानों से जुड़ी रहकर हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार को नियमित रूप से आगे बढ़ा रही हैं, एक साक्षात्कार मंच पर उनसे रूबरू होती है जो कथाबिंब के 2011 अंक में प्रकाशित हुआ। उनकी बातचीत साहित्य प्रेमी कमल किशोर जी को अपने शोधार्थी जीवन की पगडंडियों पर ले आती है, जहां सुधा जी की प्रश्नावली उनके मन की गाठें खोलतीं जाती हैं। यह साक्षात्कार हमें उनके जीवन के महत्वपूर्ण कोणों से वाक़िफ़ करा पाने में बहुत सही, सटीक व सक्षम है। साक्षात्कार के कुछ अंश उनके अपने जीवन के बारे में और इस मार्ग पर जीवन यात्रा का एक अहम हिस्सा हैं, जो इस ऐतिहासिक शोध कार्य की नींव पर टिके अनेक सवालों की परतों से जवाबों द्वारा उनके बारे में कई रोचक सच्चाइयाँ सामने आती हैं। सुधा जी का एक सवाल : “अध्ययन और अनुसंधान का विषय ‘प्रेमचंद’ को क्यों चुना?” के संबंध में जवाब देते हुए गोयनका जी इस सत्य को नकार नहीं पाये कि नियति ने ही उन्हें इस कार्य के लिए चुना। एम ए के बाद उन्होने पी एच डी के लिए शोध विषय स्वीकारा तो वह था “प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प विधान”। तद उपरांत वे प्रेमचंद के प्रति समर्पित हो गए, और समर्पित भावना में निष्ठा कुछ यूँ घुल-मिल गई कि उनकी पहली पहचान प्रेमचंद, दूसरी पहचान प्रेमचंद और तीसरी पहचान भी प्रेमचंद है” अतः प्रेमचंद और गोयनका जी एक हो चुके हैं। कमाल किशोर गोयनका अर्थात.... प्रेमचंद .....! उनके अपने शब्दों में “1981 में प्रेमचंद: विश्वकोष (दो खंड-लगभग एक हज़ार पृष्ठों की सामाग्री पाठकों-समीक्षकों के सामने उन्हें चकित किए बिना न रह सकी) छपकर आया और जितना व्यापक उसका स्वागत हुआ, उसने तो मुझे हमेशा के लिए प्रेमचंद ही बना दिया। यह एक साधना–आराधना के प्रतिफल के इलावा क्या हो सकता है?
लाली मेरे लाल की जित देखूँ उत लाल
लाली देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल !
इस स्थिति का कारण भी यही होगा, प्रेमचंद साहित्य पर अपने जीवन की न जाने कितनी ऋतुएँ, कितने वसंत व्यतीत कर गए कि वे अपने अस्तित्व एवं काल बोध की चेतना की हर परिधी से परे रहे। बस काम साधना बन गया, उपासना बन गया। यहाँ मेरी दुविधा यह है कि मैं प्रेमचंद के साहित्य पर तव्वजो दूँ या गोयनका जी की साहित्य साधना पर, जो असाध्य कार्य उनपर किया है उसपर कुछ लिखूँ। हर परिस्थिति में प्रकाशमान दोनों ही हुए जाते हैं। एक के बिना दूजे के बारे में कुछ सोच नहीं सकते, एक दूसरे के पूरक जो सिद्ध हुए हैं।
शरद चन्द्र पर श्रम और निष्ठा पूर्वक कार्य करने वाले विष्णु प्रभाकर ने स्वयं कहा: “डॉ॰ गोयनका ने प्रेमचंद पर जितना कार्य किया है, वैसा संभवत: किसी शोधकर्ता ने किसी लेखक पर नहीं किया होगा।“ इसी सिलसिले में कड़ी जोड़ते हुए ‘प्रेमचंद विश्वकोश’ पर लिखे हुए एक लेख में श्री सर्वेशवर दयाल सक्सेना के शब्दों में उनका कथन: “गोयनका ने बड़ी खोजबीन के साथ दुर्लभ तथ्य, दस्तावेज़ आदि एकत्रित किए हैं और उन्हें तरतीब से लगा दिया है। ऐसा काम किसी लेखक पर पहली बार हुआ है, इस तरह यह ईंट, रोड़े हटाकर, सख़्त मिट्टी को तोड़कर समतल भुरभुरी कर एक खेत बनाने के जैसा महत्वपूर्ण काम किया है, जिसमें प्रेमचंद के आज के और आगे आने वाले अध्येता अपनी अपनी नज़र के बीज डालकर अपनी मन वांछित फ़सल उगा सकते हैं और फल-फूल बाँट सकते हैं। गोयनका ने प्रमचंद जैसे देहाती लेखक के लिए ठेठ देहाती काम किया है। खेत तैयार करने का और उसके लिए जो कड़ी धूप सही है, मेहनत की है और पसीना बहाया है, उसका मूल्य आगे फ़सल उगाने वाले ज़्यादा आसानी से पहचान सकेंगे,” (दिनमान-अगस्त 1982)
इस समर्पित भावना में सिर्फ़ और सिर्फ़ एकलव्य की मानिंद लक्ष्य सामने रखकर जिस साहित्य साधना में वे इतने लीन हुए और आज भी हैं, उससे तो ज़ाहिर होता है, वे प्रेमचंद में सम्पूर्ण रूप से तन्मय होकर उनसे अटूट रूप में जुड़कर उन्हीं की भांति इस अमर प्रेम में खुद प्रेमचंद बन गए हैं। डॉ॰ कमला रत्नम जी ने “प्रेमचंद गंगा के भागीरथ: कमल किशोर गोयनका’ नामक लेख में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है- “कमल किशोर गोयनका ने प्रेमचंद अध्ययन में अद्भुत और मौलिक मानदंण्ड स्थापित किए हैं। मात्र पंद्रह सालों वर्षों में उन्होंने ने प्रेमचंद के सम्बंध में अकेले जितनी दुर्लभ और प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत की है, उतनी दस व्यक्ति मिलकर इतने समय में कर पाते, इसमें संदेह है। इसलिए गोयनका को प्रेमचंद–गंगा का भागीरथ कहा जा सकता है।“ ये अलंकार उनके संकल्प- ‘प्रेमचंद को समर्पित उनके जीवन की वाटिका’ के सप्तरंगी सुमन है, जो हमेशा खिलते रहेंगे, महकते रहेंगे। हिन्दी-कहानी इतिहास में प्रेमचंद को वैसे भी अमरत्व प्राप्त है, जैसे वाल्मीकि, व्यास, कालीदास, तुलसीदास कबीर को प्राप्त है। यदि भविष्य में कोई लेखक इस अमरत्व को सिद्ध करता है तो उसे इन्हीं भारतीय साहित्यकारों के साहित्य-पाठ से गुज़रना होगा।
प्रेमचंद की कहानियों के कालक्रमानुसार अध्ययन: में 1908 -1936, 29 वर्ष के अपने रचनात्मक काल में 301 कहानियों की रचना की। कहानियों का अध्ययन, बताता है कि उनमें पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राष्ट्रीय, संस्कृतिक, धार्मिक आदि सम्बन्धों से बुनी हुई कहानियों में जहां रिश्तों के निबाह और निर्वाह के अविस्मरणीय प्रसंग दर्शाये हैं वहीं मनोवैज्ञानिक ढंग से मनुष्यता के अनेक चेहरों-रूपों का चित्रण कराते हुए मानवता की स्थापना कराती हुई उनकी कहानियाँ भारतीयता की अनुभूति कराती हैं, जो पाठक को ‘इंडिया’ की नहीं ‘भारत’ की यात्रा कराती हैं। एक नहीं, अनेक ऐसी बातें पाठक के रूप में जानना मेरे लिए एक आश्चर्यजनक अनुभूति है। एक-दो विशेष उल्लेख ज़रूर करना चाहूंगी। (संदर्भ: कल्पान्त -2009, डॉ॰ कमल किशोर गोयनका –हिन्दी कथाकार प्रेमचंद साहित्य के मर्मज्ञ- में से) डॉ॰ रमेश कुंतल मेघ अपने एक पत्र में लिखते है-सिर्फ अंश है- “आपने प्रेमचंदायन को व्यापक गति दी है। दृष्टिकोण अपने-अपने हैं। वे सुरक्षित रहेंगे। मैं आपकी मेहनत, लगन और शोध-साधना का सदैव से क़द्रदान रहा हूँ बावजूद इसके कि हमारी विचारधाराएँ परस्पर विरुद्ध हैं।“ आगे वे लिखते हैं- “भोपाल के भारत भवन से हटें नहीं डटें। खिड़कियाँ चारों दिशाओं में खुलवाएँ। आपने जो कार्य किया है प्रेमचंद पर, वह एक संस्था भी नहीं कर सकती।“ साथ में उनके व्यक्तित्व के कुछ अहम पहलू, विचार स्वरूप सामने आते हैं। उन्हें छल , झूठ, और दोहरा व्यक्तित्व कतई प्रिय नहीं, अपने विचारों की इस दृधता और स्थिरता के कारण भी उनके शत्रु भी उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। उनकी विनम्रता का एक पक्ष कमलेश्वर जी के पत्र से उद्घाटित हुआ है। कुछ अंश उसी ख़त से .... “आपका 30. 03. 04, का पत्र साथ में ‘प्रेमचंद का कालक्रमानुसार अध्ययन’ योजना की रूपरेखा। यह आपकी सदाशयता है कि इस योजना पर आपने सम्मति मांगी है। मैं आभारी हूँ। ......., ......, “वैसे प्रेमचंद का विचार पक्ष ही इस शोध का निकष होगा। आपके इस साहित्यिक महामंथन से जो अमृतकलश निकलेगा उसे आप यदि देव-दानवों की छीना-झपटी में छलकने नहीं देंगे तो बेहतर होगा। यही आपकी साहित्यिक और बौद्धिक शुचिता का प्रमाण होगा।“ बेपनाह विषय सामाग्री सामने है है, जितना पढ़ती हूँ , उतना गहरे धंस जाने की संभावना प्रबल होती जा रही है। पढ़कर यही अहसास बरक़रार रहता है- “The more I read, the more I know about him, still I get the feel, as to how little I know. Definitely knowledge is vast.....! ” प्रेमचंद के जीवन और साहित्य के संबंध में इतनी प्रभूत सामाग्री उपलब्ध है जिसके आधार पर प्रेमचंद की एक आलोचनात्मक जीवनी लिखी जा सकती है। डॉ॰ गोयनका ने इस सामग्री की प्रामाणिकता का पूरा ध्यान रखा है और सर्वथा वैज्ञानिक रीति से इसका संकलन, वर्गीकरण, आदि किया है। उनके शोधकारी अध्ययन के कार्य के लिए मात्र यही कहना एक सच होगा कि यह अनुसंधान कार्य भविष्य के लिए प्रकाश-स्तंभ या मार्गदर्शक के रूप में मान्य होगा। इस संदर्भ ग्रंथ में गोयनका जी ने अपनी सृजन प्रक्रिया से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर सुलभ किया है, वह न केवल गंभीर पाठकों के लिए, पर शोधार्थियों के लिए उपयोगी प्रमाणित हुआ है। निश्चय ही सम्पूर्ण साहित्य जगत, प्रेमचंद साहित्य के अध्येता व भावी पीढ़ियों के अध्येताओं के लिए भी यह ऐतिहासिक देन महत्वपूर्ण ही नहीं, स्थायी रूप से मार्गदर्शन भी करेगी। डॉ॰ गोयनका के श्रमसाध्य प्रयास से अज्ञात अछूते पहलुओं को प्रकाशमान करके खोज-संघर्ष के इतिहास में इस अविस्मरणीय योगदान के लिए साहित्य के साधक हमेशा ऋणी व कृतज्ञ रहेंगे। जयहिंद
पुस्तक का नाम: " प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन", लेखक: कमल किशोर गोयनका, मूल्य: रु.1100/-, पृष्ठ 760, प्रकाशक: किताब घर प्रकाशन, 4855-56/24, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002/ ISBN 978 93 83233 07 6
देवी नागरानी
जन्म: 1941 कराची, सिंध (तब भारत) 12 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, कहानी संग्रह-8, भजन-संग्रह-2, सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी संग्रह-12, अंग्रेजी-हिंदी काव्य-6, सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट-- साहित्य अकादमी प्रकाशन, अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक, -धारवाड़रायपुर, जोधपुर, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। डॉ. अमृता प्रीतम लिटरेरी अवार्ड -2014, मीर अली मीर पुरूस्कार . 2007-राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत। 14 सितम्बर, 2019, महाराष्ट्र राज्य सिन्धी साहित्य अकादमी से ‘माँ कहिंजो ब न आहियाँ’ संग्र के लिए पुरुस्कृत. अप्रैल, 2021 ‘गुफ़्तगू संस्था’ की ओर से प्रयागराज में ‘साहिर लुधियानवी जन्म शताब्दी समारोह’ के अवसर पर ‘साहिर लुधियानवी सम्मान’. SETU Excellence Award-2022 .
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