लेखिका: संतोष श्रीवास्तव / समीक्षक:वन्दना रानी दयाल

बडबाई आंखों से मैने आखिरी अध्याय पूरा किया,संतोष श्रीवास्तव दीदी के नागा साधुओं को समर्पित ग्रंथ, "कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया" को।एक और अंतर्मन के मुलायम सुकोमल कोनों को तरंगित करता उत्कृष्ट प्रेम और प्रेम में समर्पण की पराकाष्ठा और दूसरी ओर नागा पंथ का दुर्गम,कठोर,अकल्पनीय दुर्वह जीवन जो किसी सांसारिक जीवन में किसी कमी या असफलता की वजह से आकार ले लेता है।

        एक प्रेम पुजारी के अनकहे, अनभिव्यक्त प्रेम का सांसें लेने से पहले ही दम तोड देना और अंततः एक नागा साधु की अत्यंत दुःसह जिंदगी को अंगीकार कर लेने के लिए विवश हो जाना..इस सम्पूर्ण कथानक का सार लगा मुझे।एक बेहद महत्वाकांक्षी युवक मंगल सिंह इसरो का वैज्ञानिक बन आकाश गंगा में गोते लगाकर वैश्विक विज्ञान में कुछ योगदान देना चाहता था,दीपा को अपना प्रेम निवेदित कर एक साधारण किंतु प्रेममयी जिंदगी जीना चाहता था।पर दीपा की अमर्यादित प्रेमाभिव्यक्ति ने मंगल सिंह को इस कदर झिंझोड़ डाला कि उसने संसार से वैराग ले गृह का त्याग कर दिया।मंगल सिंह से नरोत्तम नागा बनने तक का सफर हृदय को द्रवित करनेवाला है।

        पहले हिप्पियों का साहचर्य,फिर क्षिप्रा के तट पर नागा साधुओं से मिलने का अवसर,फिर धीरे धीरे ईश्वर से जुड़ाव....आत्म साक्षात्कार और फिर सारी सांसारिक समस्याओं का अंत....ऐसा ही विकासक्रम रहा मंगल सिंह के जीवन का और अंततः नागा पंथ अपनाने का।

           लेखिका ने इस पुस्तक में नागा पंथ से जुड़ी जानकारियों का विशद विवरण किया है और वह भी काफी रोचक तरीके से।मैने भी नागा साधुओं को कभी ना देखा,ना ज़्यादा जाना पर इस पुस्तक ने जैसे उनके जीवन से संबंधित सारा रहस्य खोलकर रख दिया,जैसे,नागा बनने में छह से लेकर बारह वर्षों तक का समय लगता है, उस दौरान उनका ब्रह्मचर्य, मोह माया,नाता रिश्ता,सब परखा जाता है,दीक्षा देने से पहले।इसमें स्वयं अपना पिंडदान किया जाता है और उसके बाद उनका पुनर्जन्म एक दूसरे नाम के साथ होता है।लिंग की नस को खींचकर तोड़ दिया जाता है ताकि ब्रह्मचर्य व्रत भंग ना हो।दिगंबर बन जाने के बाद कपड़ों के नाम पर संपूर्ण शरीर में भस्म लपेटा जाता है।इस भस्म को बनाने की लंबी प्रक्रिया भी बेहद रोचक है।हवनकुंड में पीपल,पाखड़, रसाला,बेलपत्र, केले के पत्ते, पींड़ और गाय के गोबर को जलाकर, उस राख को बारीक कपड़े से छानकर,कच्चे दूध में संकर लड्डू बनाया जाता है।इस लड्डू को सात बार अग्नि में तपाया जाता है।जब वह अंगारे सा दहकता है तब उसे कच्चे दूध से बुझाकर भस्म बनाया जाता है यही दिव्य भस्म उनका कवच होता है और तमाम प्रतिकूल हालातों,व्याधियों आदि में इनकी रक्षा करता है। समय के साथ नरोत्तम गिरि का आंतरिक स्वरूप ध्यान,योग, तप आदि की आंच में तपकर परिष्कृत होता जाता है।प्राप्त ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान की कालिमा छंटती है और वह मानव सुलभ कमजोरियों से निजात पाता चला जाता है....ऐसा लेखिका ने लिखा है।पर आगे के अध्याय में जब कैथरीन नामक एक ऑस्ट्रेलियन विदुषी, सादी,सौम्य,स्वतंत्र विचारधारा की मलिका का प्रवेश जब नरोत्तम नागा की जिंदगी में होता है तब उसके विराट,साधु व्यक्तित्त्व के पीछे छुपा प्रेम का बीज फिर से प्रस्फुटित होने लगता है,जो कभी दीपा के नाम का था।नरोत्तम को भी अपने मन की कमजोरी का अहसास होता है और काफी अन्यमनस्क हो जाता है कि वह पूर्ण रूप से नागा नहीं बन पाया।लेखिका ने भी इस संदर्भ में मेनका और विश्वामित्र का प्रसंग छेड़ा है।इन बातों से एक तथ्य की पुष्टि जरूर होती दिखाई देती है कि पंचमुखी रुद्राक्ष धारण करने पर भी,ब्रह्मचर्य व्रत खतरे में आ सकता हैऔर तमाम साधना करने के बावजूद इस बात की तस्दीक नहीं की जा सकती कि अमुक नागा की कामेच्छा मर चुकी है।

          गंगोत्री,गोमुख,तपोवन,भोजवासा के घने जंगल,हिमालय के बर्फ से अटे उत्तुंग शिखर,हरिद्वार का शानदार, ऐश्वर्यपूर्ण कुंभमेला,विभिन्न अखाड़ों द्वारा शाही स्नान,नए साधुओं की ट्रेनिंग,उनका दीक्षा ग्रहण......आदि आदि थी नरोत्तम गिरि की दुनिया, जिसमें एक दिन भोजवासा की गुफा मेंअचानक इस उपन्यास की नायिका कैथरीन का प्रवेश हो जाता है जो पेशे से लेखिका है और नागा साधुओं पर एक शोधपरक किताब लिख रही है।यह घटना मुझे इस कथानक का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव लगी जिसके बाद कहानी में रस घुल गया,कहानी तो फिर चल पड़ी।प्रेम और ब्रह्मचर्य दोनों एक तराजू के अलग अलग पलड़े पे...कभी एक ऊपर, कभी दूसरा...दोनों एक दूसरे को मात देते हुए...

कैथरीन के प्रबुद्ध सवालों ने नागा साधुओं को अच्छी तरह खंगाला,कई बार तो उनकी बोलती बंद कर दी।जैसे,लिंग भंग संस्कार जैसे अमानवीय और सृष्टि के प्रति क्रूर संस्कार की क्या जरूरत पूर्ण को अपूर्ण बनाने की क्या जरूरत?क्या तप से इंद्रियों को वश में नहीं किया जा सकता? इस तरह के उनके आपसी संवादों ने कहानी को खूब रुचिकर बनाते हुए लेखिका के उद्देश्य को अंजाम दिया है।

कैथरीन का शुरू से ही नरोत्तम गिरि के व्यक्तित्व की ओर एक खिंचाव सा दिखता है,भोजवासा की गुफा में तीन नागाओं से मिलने पर उसने सिर्फ नरोत्तम का स्केच बनाने की इच्छा जाहिर की और उसके मुख से निकला,"आप भव्य व्यक्तित्व के मालिक लग रहे हैं,जैसे कोई रोमन सम्राट हो जो राज पाट त्यागकर गुफा में तप कर रहा हो ! "उन दोनों के प्रेम के चरम को देखते हुए ही लेखिका ने एक संदेश प्रेषित किया है कि जैसे आत्मा मरती नहीं,ठीक वैसे ही शाश्वत प्रेम अगर एक बार अंकुरित हो गया तो फिर कभी नहीं मरता,नागा बन कर भी नहीं।नरोत्तम ने भी एक जगह इस सच को स्वीकार किया है कि "उसकी मरुभूमि में एक बिरवा फूट आया था प्रेम का,कब,वह समझ नहीं पाया।"

कैथरीन के प्रेम की अपूर्णता को लेखिका की कुशल लेखनी ने बड़ी खूबसूरती से शब्दबद्ध किया है,जब कैथरीन गोमुख में, चांदनी रात में प्रकृति का सौंदर्य पान आंखों से कर रही है, कैथरीन चांद से कहती है,"चांद,नीचे आओ ना,इस स्वर्ग में।पर तुम बहुत अनुशासित हो।27 पटरानियां हैं तुम्हारी पर तुम तो केवल रोहिणी के प्यार में आसक्त हो।तुम्हें पता है ना,तुम्हें देखकर प्रेमी युगल रोमांस में डूब जाते हैं।खलबली मचा देते हो तुम,उनके हृदय में।कितनी बार तुम तिरस्कृत हुए,शापित हुए।अपनी पूर्णता खोकर शुक्ल और कृष्ण पक्ष में बंट गए।लेकिन तुम्हें प्रेम का क्या प्रतिदान मिला?"हालांकि उसके ये उद्गार अपने पुराने प्रेमी प्रवीण को लेकर थे,पर कालांतर में नरोत्तम के साथ भी प्रेम का यही हश्र हुआ....वही अधूरापन!

कैथरीन के भावोदगार जो नरोत्तम के लिए थे,हृदय में जैसे छप गए,"एकदम जैसे फरिश्ता,बेहद भव्य,लंबे काले बालों की जटाएं जूड़े की शक्ल में सिर पर,पूरे शरीर पर चांदी सी भस्म,उन्नत माथे पर भस्म तिलक,आंखें विशाल जैसे सृष्टि को अपने में समेट लेने को आतुर, अधरों पर ठहरी हुई प्यास बनी की बनी,गहरे गंभीर अर्थों में खोया चेहरा, जो देखे, वह उसी का होकर रह जाए।"....कितनी अप्रतिम कल्पना लेखिका ने की है,कितना सुंदर शब्द संयोजन है, कि जैसे पाठक भी उसी का होकर रह जाए।

कैथरीन और नरोत्तम की प्रेम कथा के अलावा लेखिका ने अघोरी पंथ का भी बड़ा विस्तृत विवेचन किया है,जो बेहद विस्मयकारी है।अघोर अर्थात जो घोर ना हो,सरल हो,सुगम्य हो।जो भेद करना नहीं जानता हो,साफ और दूषित में,पवित्र और अपवित्र में।जो मौत का आनंद लेते हुए उसका सम्मान करता हो,शिव के अघोरी रूप का उपासक हो।श्मशान में तंत्र मंत्रों की सिद्धि करता हो,शमशान में शव का भक्षण भी करता हो।

नागा और अघोरी के बीच लेखिका ने कुछ साम्य और कुछ भिन्नता का जिक्र स्पष्ट रूप से किया है।

सभी ग्रहों,सारे ज्योतिर्लिंगों व शक्ति पीठों का भी पूर्ण विवरण इस पुस्तक में मिलता है।

लेखिका के खूबसूरत अल्फाज़ ने कायनात के लावण्य  को खूब निखार दिया है और प्रेम को अलौकिक बना दिया है,जैसे,"पूरी रात चांद गोमुख को अपने आगोश में लिए रहा।गोमुख ग्लेशियर सौंदर्य का पर्याय बन गया।नायिका चांद को अपने बाज़ू में महसूसती रही।उसे लगा वह चांद को सहला रही है...चुम्बन के लिए उसने होंठ खोले हैं,पर चांद आसमान में लुढ़क गया....वह हंसती रही....देर तक हंसती रही।उसकी खूबसूरत हंसी गोमुख पर बेला के फूल की तरह बिखर गई..."

इस पुस्तक के अनुसार नापगाओं ने देश की ज़रूरत पर  शास्त्र धारण किया है और धर्म की रक्षा के लिए शास्त्र।ये भी एक नई जानकारी है।हालिया इतिहास में इनके ऐसे योगदान का कहीं कोई  जिक्र नहीं दिखता।सचमुच ये कुंभ के बाद और पहले कहां रहते हैं,यह भी एक रहस्य की मानिंद है।

लेखिका ने नागा पंथ के समूचे तंत्र और सुप्रबंधन का भी सुंदर और स्पष्ट विवेचन किया है,जैसे,उनके पद,अधिकार,वरिष्ठता के आधार पर कार्य विभाजन,कुशल स्वयं सेवकों की टीम,संपत्ति की देखभाल के लिए थानापति, अष्टप्रधान, कारबारी,मुख्तार..... आदि सब मिलकर एक पूरा इंस्टीट्यूट है जो लोकतंत्र पर आधारित है।गलतियां करने पर सज़ा का प्रावधान भी है।

कई सशक्त किरदारों इंस्पेक्टर कीरत सिंह,उनके मां बाप,दीपा,मंगल सिंह,पवन,जानकी, आद्या, प्रवीण,शेफालिका, लॉएना,प्रोफेसर शांडिल्य,विशाल सिंह,नायिका कैथरीन और नरोत्तम गिरि द्वारा लेखिका ने कथानक को इतना खूबसूरत,बोधगम्य,रुचिकर और जानकारियों के खजाने से लबरेज बुना है कि पता ही नहीं चलता कि कब हमने नागाओं की विचित्र,रहस्यमयी और तिलिस्म भरी दुनिया की सैर कर ली।

जैसा कि लेखिका ने इंगित किया कि अब जो युवक नागा पंथ की ओर आकृष्ट होते जा रहे हैं, वे अच्छे खासे पढ़े लिखे और डिग्रीधारी लोग हैं।ये तथ्य शोचनीय है कि युवक केवल शिवभक्ति के लिए उस ओर अग्रसर हैं या प्रेम में धोखा,करियर में नाकामी या अन्य कोई सांसारिक वजह??

अंततः मैं यही कहना चाहूंगी कि वरिष्ठ लेखिका संतोष श्रीवास्तव जी ने इस लेखन के महायज्ञ को पूर्ण करने के लिए जो सात आठ वर्षों की साधना की है,वो अनुकरणीय और प्रेरक है।एक अव्वल दर्जे का जुनूनी और लगनशील व्यक्ति ही ऐसे शोधपरक सृजन को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचा सकता है और वो भी अनवरत एक उत्सुकता और जिज्ञासा बनाए हुए।

नरोत्तम नागा और कैथरीन का एक दूसरे के प्रति अलौकिक, दिव्य आकर्षण पाठकों को एक रेशमी एहसास देता हुआ नागा लोक के दर्शन कराता है।हर पुस्तकालय के लिए यह एक ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण पुस्तक हो जायेगी,ऐसा लगता है।और जो शोधार्थियों का ध्यान अपनी ओर खींचेगी।

 

कुछ पंक्तियों और घटनाओं ने मुझे बेहद प्रभावित किया,जैसे,

नरोत्तम ने अपने अंतिम क्षणों में अपने प्रेम यज्ञ को अगले जन्म में पूर्ण करने का संकल्प लेते हुए कहा,

"तुम्हारे प्यार का मूल्य नहीं चुका पाया कैथरीन... कर्ज़ लेकर जा रहा हूं,अगले जन्म के लिए।"

और कैथरीन की गर्म हथेलियों ने बर्फ से ठंडे नरोत्तम के हाथों को पकड़कर,जवाब में कहा,

"प्यार का कोई मूल्य नहीं होता ,नरोत्तम! मैं सदा से तुम्हारी हूं।"

और इन भावुक लम्हों के पश्चात महाप्रयाण,सुदर्शन,ज्ञानवान,शिवभक्त नरोत्तम गिरि का।

कैथरीन ने भी अपने शाश्वत प्रेम के हवनकुंड में अपने सांसारिक जीवन की आहुति दे कर प्रेम को अमर कर दिया।कथानक में आया यह मोड़ बेहद अचंभित कर गया,पर साथ ही एक छिपी सी खुशी भी दे गया कि कैथरीन अब अपने प्रेमी नरोत्तम नागा के अधूरे कार्यों को पूर्ण कर उसकी आत्मा के और करीब हो जायेगी।

संतोष दी पर मां सरस्वती अपनी कृपा बनाए रखें और आनेवाले दिनों में उनकी लेखनी विश्व में परचम लहराए।

वन्दना रानी दयाल के फेसबुक वाल से आभार सहित.

पुस्तक: कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया,लेखिका:संतोष श्रीवास्तव ,प्रकाशक:किताबवाले,नई दिल्ली, कीमत: 1000/-