हिंदी आज तक रोज़गार की भाषा नहीं बन सकी : हरिओम
संगीत नाटक अकादेमी में कार्यशाला
दिल्ली स्थित संगीत नाटक अकादेमी में हिन्दी पर्व का आयोजन किया जा रहा है। इसी के अन्तर्गत 6 अक्टूबर 2023 को “राजभाषा नीति और नियम” विषय पर कार्यशाला का आयोजन किया गया। कार्यशाला का आरंभ करते हुए सहायक निदेशक (राजभाषा) श्री तेजस्वरूप त्रिवेदी ने सभी आमंत्रित वक्ताओं का स्वागत किया। दूरसंचार विभाग के सहायक निदेशक के पद से सेवानिवृत्त श्री इक़बाल अहमद ने कार्यशाला के आरंभ में देश की राजभाषा नीति और नियमों पर विस्तार से बात की। उन्होंने कहा कि देश की राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए हमें चीन और तुर्की जैसी इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। उन्होंने बताया कि हज़ारों भाषा-भाषी वाले चीन में किस तरह से मंदारिन को सर्वस्वीकार्य बनाया गया।
कोलकाता स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी श्री मनोज कुमार पाण्डेय ने अपने संबोधन में कहा कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारत की कूटनीतिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उपस्थिति बढ़ रही है। इस आलोक में हिंदी भाषा की स्वीकार्यता भी बढ़ रही है। मूल प्रश्न बाहरी नहीं, भीतरी है। हमें औपनिवेशिक सोच से मुक्त होने में अधिक समय लग रहा है। जैसे ही हम इससे मुक्त होंगे, हिंदी स्वतः ही हमारी सांस्कृतिक पहचान का अंग बन जाएगी।
श्री पाण्डेय के बाद संस्कृति मंत्रालय के उप निदेशक (राजभाषा) श्री शिशिर शर्मा ने संगीत नाटक अकादेमी के कार्मिकों को तिमाही रिपोर्ट के महत्व और इसको सही ढंग से भरने के तरीक़ों पर बात की और कार्मिकों को बताया कि तिमाही रिपोर्ट कैसे तैयार की जानी चाहिए। इसके बाद, संगीत नाटक अकादेमी के उप सचिव (प्रशासन) श्री हरिओम कौशिक ने बड़ा ही सारगर्भित भाषण दिया। उन्होंने विभिन्न आँकड़ों के आधार पर हिंदी की वैश्विक स्थिति के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि यह आश्चर्य की बात है कि बाज़ार की भाषा बन जाने के बाद भी हिंदी आज तक रोज़गार की भाषा नहीं बन सकी है। उन्होंने कहा कि इस पहेली को हल किए जाने की ज़रूरत है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक श्री गोपेश्वर दत्त पाण्डेय ने अपनी बात रखते हुए कहा कि भाषा सिर्फ सम्प्रेषण का माध्यम नहीं है बल्कि यह विस्तारवादी राजनीति का अमोघ अस्त्र भी है। इस संदर्भ में उन्होंने चीन का उदाहरण देते हुए बताया कि कैसे चीन अपने पड़ोसी देशों की सीमाओं पर मंदारिन भाषियों की बस्तियाँ बसाते हैं और उनके माध्यम से दो-तीन दशकों तक पड़ोसी देश के सीमाई क्षेत्रों में क्रमशः अपनी भाषा और संस्कृति का विस्तार करते हैं और कालांतर पर इसी आधार पर उसे चीन का हिस्सा घोषित कर देते हैं। उन्होंने कहा कि हमें जागरूक होना होगा और अपनी भाषा को लेकर हीनताबोध से मुक्त होना होगा। श्री पाण्डेय ने भी भाषा और रोज़गार के बीच के अंतर्संबंधों पर बात की और कहा कि जब तक हिंदी को रोज़गार से नहीं जोड़ा जाता, तब तक वर्तमान परिस्थितियों में बदलाव की संभावना कम ही है।
श्री पाण्डेय के बाद श्री संजय कुमार मिश्र ने अपनी बात रखी। संजय कुमार मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न केन्द्रीय संस्थानों की हिन्दी समितियों के सदस्य भी हैं। इन्होंने कहा कि साल में एक बार हिन्दी पखवाड़ा का आयोजन करने मात्र से हिन्दी को स्थापित नहीं किया जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि चीन की साम्यवादी सरकार वास्तव में तानाशाही वाली सरकार है, अतः चीन वाली शैली का अनुकरण भारत के संदर्भ में संभव नहीं है। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ सर्वसम्मति और आपसी सहमति से ही हिन्दी को विस्तार देने का काम संभव हो सकता है। श्री मिश्र ने कहा कि हिन्दी को रोज़गार से जोड़ना ज़रूरी है।
श्री तेजस्वरूप त्रिवेदी ने सभी वक्ताओं को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि इस कार्यशाला से राजभाषा संबंधी नीतियों और नियमों के प्रति अकादेमी के कार्मिकों में समझ का निर्माण होगा और भविष्य के कार्यों में वह इनका पालन सुनिश्चित करेंगे।
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