10 नवंबर 2023 से 25 फरवरी 2024 तक चलेगा यह उत्सव
कल्पना करें ऐसे रेगिस्तान की जिसमें जब सूर्यास्त होता है तो भी उत्सव होता है, जब सूर्यादय होता है, तब भी एक समां बन जाता है और जब उस पर चांद की दुधिया रोशनी पड़ती है तो भी उत्साह और ऊर्जा की लहरें नर्तन करने लगती हैं। और अगर वह रेगिस्तान ऐसा हो जिसमें रेत न होकर नमक हो, जिसके विस्तार में केवल सफेद चमकता नमक ही दिखाई दे, तो अवश्य ही कौतुहल चरम सीमा पर पहुंच जाता है। कच्छ का रण उत्सव प्रकृति की इसी चमत्कार को इंगित करता है। कहते हैं न कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा। यह इसलिए ही कहा जाता है कि वहां देखने को इतना कुछ है कि आंखें देखते नहीं देखती, पैर चलते नहीं ठहरते। परंपराओं का विस्तार है गुजरात की संस्कृति और परंपराओं के बारे में जानने और अपनी भाग-दौड़ भरी जिंदगी से बचना चाहते हैं तो इस उत्सव को देखने अवश्य जाएं। इस बार 10 नवंबर 2023 से शुरू हो कर यह उत्सव 25 फरवरी 2024 तक चलेगा। गुजरात पर्यटन निगम द्वारा आयोजित होने वाला यह समारोह 2005 से आरंभ हुआ था। यह उत्सव इतना पसंद किया जाता है कि हर साल इसकी अवधि बढ़ती जाती है। भुज से 80 किलोमीटर दूर धोरडो क्षेत्र में यह उत्सव आयोजित किया जाता है। कच्छ गुजरात का ऐसा जिला है जो मानव जातियों एवं परिस्थितियों में विभिन्नता दर्शाता है। कच्छ का शाब्दिक अर्थ है समय-समय पर गीला और सूखा होना। कच्छ जिले का बड़ा हिस्सा कच्छ के रण के नाम से जाना जाता है। रणोत्सव का आयोजन कच्छ के बन्नी विस्तार में किया जाता है। इस रणोत्सव में पारंपरिक लोकनृत्य, सफेद रण का भ्रमण, ऊंट की सवारी और अन्य तरह की गतिविधियों का आनंद लेने के सिवाय सबसे प्रमुख आकर्षण है टेंट सिटी में रहना। दरअसल कच्छ एक द्वीप है जो भारत की मुख्यभूमि से अलग है। कच्छ और मुख्यभूमि के बीच समुद्र का छोटा सा हिस्सा आता है जो बारिश के मौसम के बाद पूरी तरह से सूख जाता है और फिर यहां चारों तरफ दिखती है सफेद जमीन, जो नमक होता है। इसे ही कच्छ का रण कहते हैं। भौगोलिक परिस्थिति, दरियाई और बारिश के पानी के समन्वय से कुदरती रूप से सफेद रण का निर्माण होता है।
झिलमिलाता समुद्र गुजरात में अरब सागर से 100 किलोमीटर दूर बंजर रेगिस्तान में बर्फ की तरह सफेद नमक का यह विस्तृत मैदान है उत्तर में पाकिस्तान के साथ लगती सरहद तक फैला हुआ है। कछुए के आकार का यह इलाक़ा दो हिस्सों में बंटा है- ग्रेट रण 18,000 वर्ग किलोमीटर में फैला है। दूसरा हिस्सा लिटिल रण कहलाता है जो 5,000 वर्ग किलोमीटर में फैला है। इन दोनों को मिला दें तो नमक और ऊंची घास का विस्तृत मैदान बनता है जो दुनिया के सबसे बड़े नमक के रेगिस्तानों में से एक है। यहीं से भारत को 75 फ़ीसदी नमक मिलता है। हर साल गर्मियों के महीने में मॉनसून की बारिश होने पर रण में बाढ़ आ जाती है। सफे़द नमक के सूखे मैदान बिल्कुल ग़ायब हो जाते हैं और उनकी जगह झिलमिलाता समुद्र बन जाता है जो उत्सव मनाने का अवसर देता है। जून के आख़िर में यहां मॉनसून की मूसलाधार बारिश शुरू हो जाती है। अक्टूबर तक यहां बाढ़ के हालात रहते हैं। फिर धीरे-धीरे पानी भाप बनकर उड़ने लगता है और अपने पीछे नमक के क्रिस्टल छोड़ जाता है। पानी घटने पर प्रवासी किसान चौकोर खेत बनाकर नमक की खेती शुरू करते हैं। सर्दियों से लेकर अगले जून तक वे जितना ज़्यादा नमक निकाल सकते हैं, उतना नमक निकालते है। यह सफे़द रेगिस्तान इतना सपाट है कि आप क्षितिज तक देख सकते हैं, जैसा कि समुद्र में दिखता है।
ढलते सूर्य का सौंदर्य वहां जाने से पहले केवल उत्सुकता थी कि आखिर कैसा होगा नमक का रेगिस्तान। सफेद रेगिस्तान देखने की चाह इतनी तीव्र थी कि धोरड़ो पहुंचने और टेंट सिटी में रुकने के बाद लग रहा था कि तुरंत वहां पहुंच जाऊं। पर शाम होने का इंतजार करना था, क्योंकि सूर्यास्त में उसे देखना था सबसे पहले। वहां उस रेगिस्तान पर बैठे कलाकारों को संगीत, नृत्य के कार्यक्रम को देख मन प्रसन्न हो उठा। तभी सूर्य धीरे-धीरे ढलने लगा और उसकी लालिमा जब सफेद नमक पर पड़ी तो नमक की चमक भी बढ़ गई। एकदम पास से ढलता हुआ लगा सूरज वहां से…मानो उस रेगिस्तान में ही तिरोहित हो रहा है। वह संपूर्ण लाल-नारंगी गोला धीरे-धीरे अस्त हो रहा था आसमान व रेगिस्तान का विस्तार एकाकार होते प्रतीत हो रहे थे। अब इंतजार था चांद के निकलने का। नौ बजे से पहले नहीं निकलेगा, ऐसा लोग कह रहे थे। हालांकि पूर्णिमा की रात में यहां नजारा कुछ और ही होता है पर उस दिन चौथ का चांद था, सो उसकी रोशनी भी कम नहीं होती। मजे की बात तो यह थी कि केवल पर्यटक ही नहीं, इस नजारे को देखने के लिए स्थानीय लोगों की भी भीड़ लगी हुई थी। इस उत्सव का रोमांच इतना है कि सैलानी यहां पैकेज टूर के साथ आते हैं।खास एक मचान सी बनाई जाती है ताकि उस पर चढ़कर चांद-सूरज के करतब को देखा जा सके। दूधिया रोशनी में रण टहलते हुए मैंने तारों से जगमगाते आकाश को देखा। शहर में तो तारे देखे न जाने कितने दशक बीत चुके हैं। बहुत नखरे दिखाने के बाद चांद निकला। सर्दी के कारण हाथ-पैर ठिठुर रहे थे, पर उसकी रोशनी जब श्वेत लवण पर पड़ी तो सुधबुध ही खो बैठी। लग रहा था कि हर ओर ओस की बूंदें छिटक आई हैं। बार-बार नमक उठाकर देख रही थी, सच में नमक ही था। दूर-दूर तक फैला केवल नमक। कहीं-कहीं अभी भी नमी थी इसलिए जूते रेगिस्तान में धंसे जा रहे थे, पर मन कर रहा था कि चलते ही जाएं। ऊपर मुस्काता चांद और नीचे गिरती चांदनी, हवा में तैरता लोक संगीत…अद्भुत, अनोखा,…शब्द ही नहीं हैं उस अनुभूति को बयान करने के लिए। रात गहरा रही थी, जाना ही पड़ा क्योंकि सुबह आना था सूर्यादय का चमत्कार देखने। बिखरी जब किरणें सुबह-सुबह साढ़े पांच ही ठंड में कंपकंपाते पहुंच गई। पता था कि साढ़े छह बजे से पहले सूरज दर्शन नहीं देगा, पर चाहती थी कि उसके उदय के एक भी पल से वंचित न रह जाऊं। यहां से पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र का नजारा भी देखने को मिलता है जो कच्छत से थोड़ी दूर पर ही स्थि‍त है। यह क्षेत्र स्वामी विवेकानंद के कारण भी काफी मशहूर है। कहा जाता है कि अट्ठारह सौ तिरानवे में शिकागो सम्मेलन के लिए रवाना होने से पहले उन्होंीने कच्छ की यात्रा की थी। धीरे-धीरे सूरज उगने लगा और काला, स्लेटी आसमान और लालिमा के विभिन्न वर्ण रेगिस्तान को आलोकित करने लगे। आकाश के विविध रंग थे और सूरज के भी। अप्रतिम सौंदर्य के दर्शन हुए मुझे उस दिन सूरज के। यहां जो खूबसूरत नजारा दिखाई देता है, उसे शब्दों में बयान कर पाना मुमकिन नहीं है। तेज हवा चल रही थी, फिर भी वहीं खड़ी रही बहुत देर। लेकिन बाकी साथी वापस लौटने के लिए शोर मचाने लगे क्योंकि आगे भी यात्रा के लिए निकलना था। टेंट सिटी जाकर नाश्ता करके अगले पड़ाव पर पहुंचना था।
हस्तशिल्प के लिए प्रसिद्ध है रण उत्सव अरब सागर से घिरे रण ऑफ कच्छ का नाम सुनते ही गुजरात राज्य के उस क्षेत्र का चित्र जहन में उभरता है,जहां के निवासी अपने हस्तशिल्प के अलावा ब्लॉक प्रिंटिंग, पॉटरी, वुड कार्विग तथा मैटल क्राफ्ट के लिए सारी दुनिया में प्रसिद्ध हैं। पूरे साल तो यहां भीड़ रहती ही है, पर इस उत्सव के कारण यह क्षेत्र और भी जीवंत हो उठता है। सैलानियों को यहां के लोगों के रहन-सहन और संस्कृति से परिचित कराने के अलावा, आसपास की हस्तशिल्प कला के लिए प्रसिद्ध गांवों में काम करते लोगों से रूबरू कराना, भी इस उत्सव का उद्देश्य है। यहां के दर्शनीय स्थलों में ‘ढोलावीरा’ जहां हड़प्पन सभ्यता देखने को मिलती है, वहीं धार्मिक स्थलों में भगवान शिव को समर्पित नारायण सरोवर, कोटेश्वर मंदिर, थान मोनेस्ट्री तथा लखपत किला प्रसिद्ध हैं।
विशिष्ट भुंगा धोरड़ो गांव में पारंपरिक घर ‘भुंगा’ भी देखे जो बहुत ही दिलचस्प ढंग से बनाए जाते हैं। मिट्टी से बने ये घर अपनी विशिष्ट गोलाकार आकृति के कारण बड़े से बड़े भूकंप में इनका कुछ नहीं बिगड़ता। इन घरों की छतें शंकु आकार की होती हैं। घरों के बीच एक खंभा होता है और इनमें लकड़ी की पट्टियां डाली जाती हैं। खंभे की वजह से भूकंप में अगर यह गिरता भी है तो एक ही तरफ से जिससे अधिक नुकसान नहीं होता है। इसके ऊपर जो घास डाली जाती है उसके कारण गर्मी में ठंडक बनी रहती है और सर्दियों में उष्मा । कच्छ के विस्तार से होकर समुद्र की लहरें ज्वार- भाटे के दौरान रण विस्तार में आ जाती हैं। समुद्र का यह खारा पानी धूप और हवा की वजह से सूखने के बाद कुदरती नमक में परिवर्तित हो जाता है। बारिश के मौसम में यह सारा नमक चिपचिपा हो जाता है। सर्दी की शुरुआत होते ही, ठंड में ये सारा नमक जम जाता है और संगमरमर की भांति चमकने लगता है। लगभग 250 किलोमीटर के विस्तार में इस कुदरती प्रक्रिया के तहत सफेद रण का निर्माण होता है। बरसों से यह कुदरती प्रक्रिया निरंतर चलती आ रही है, इससे हर साल नमक की नई परत बनती रहती है।
टेंट सिटी टेंट सिटी अपने आप में बहुत ही अद्वितीय है और आने वाले पर्यटकों को मंत्रमुग्ध करती है। इसमें 400 टेंट सारी सुविधाओं के साथ बने हुए हैं। वातानुकूलित या गैर-वातानुकूलित टेंट का विकल्प चुना जा सकता है। इसके कमरों में हीटर लगे हुए हैं और गर्म पानी की भी आपूर्ति की जाती है। इसमें शॉपिंग कॉम्प्लेक्स भी है, जहां से हस्तशिल्प की वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं। इसमें डाइनिंग हॉल है जिसमें सुस्वादों भोजन का आनंद लिया जा सकता है। टेंट सिटी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ठहरने के लिए खास दरबारी राजवाड़ी टेंट भी है। कैसे पहुंचे यहां हवाई सेवा, रेल और सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है. भुज हवाई सेवा से जुड़ा है तथा देश के प्रमुख शहरों से हवाई सेवा द्वारा पहुंचा जा सकता है। इसके अलावा भुज देश के प्रमुख रेल नेटवर्क से भी जुड़ा है। सड़क मार्ग से राज्य के प्रमुख शहरों से यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। सुमन बाजपेयी , दिल्ली