लेहड़ा देवी मंदिर की सात मंगलवार लगातार दर्शन से होती हैं मनोकामनाएं पूरी
मूर्ति पर अंग्रेज अफसर के फायर के बाद बहने लगा खून
दीपक शरण श्रीवास्तव / महराजगंज।
ब्रह्मांड की अधीश्वरी महाशक्ति दुर्गा के ऋग्वेद से लेकर देवी भागवत तक 64 स्वरूप हैं। केरल तथा कई प्रांतों में इस महाशक्ति को भगवती, तमिलनाडु में कन्नकी, बंगाल में दुर्गा या फिर काली कहकर उपासना की जाती है। इस जनपद में स्थित लेहड़ा देवी मंदिर के प्रति लोगों में एक सुप्रसिद्ध पीठ के रूप में बड़ी मान्यता है। ऐसा माना जाता है कि पांच या सात मंगलवार देवी के दर्शन करने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है।
मां लेहड़ा देवी का मंदिर फरेंदा बृजमनगंज मार्ग पर प्राकृतिक छटाओं में वन क्षेत्र के मध्य स्थित है। किवदंतियों और लोककथाओं में भी मां लेहड़ा देवी की महिमा का बखान किया गया है। एक किवदंती के अनुसार इस सुप्रसिद्ध शक्ति पीठ पर महाभारत काल में अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने भी मत्था टेका था और अपने विजय की कामना की थी। मंदिर के निकट का वन क्षेत्र महाभारत काल में ही आद्रवन के नाम से जाना जाता था। कालांतर मे इसका नाम अदरौना हो गया। ऐसा माना जाता है कि दशकों पूर्व यहां के पुजारी पौहारी बाबा को उनके आश्रम में ही लेहड़ा देवी। आकर दर्शन दिया करती थीं तथा वह प्रतिदिन एक वृद्ध मल्लाह की नाव से आश्रम तक जाती थीं। एक दिन मल्लाह की तबियत खराब हो गई इसलिए रात में नाव चलाने के लिए मल्लाह का लड़का आया।
सुनसान रात, जंगल का इलाका और अकेला होने के कारण लड़के की नीयत खराब हो गई। उसने साधारण कन्या समझ कर देवी को स्पर्श कर लिया। इससे क्रुद्ध होकर देवी ने रौद्र रूप धारण कर लिया। नाविक ने जब देवी के रौद्र रूप। को देखा तो वह मां मां चिल्लाने लगा। इसी बीच नाव पानी में डूब चुकी थी। इसी स्थान पर देवी की जल समाधि हो गई। नाविक के पश्चाताप करने के कारण देवी ने उसे अपने साथ पूजित होने का वरदान दे दिया। इसीलिए देवी के मंदिर के बगल में नाविक का भी मंदिर है। लोग उस पर भी फूल मालाएं चढ़ाते हैं।
एक अन्य किवदंती के अनुसार ब्रिटिश काल में अंग्रेज अफसर इसे सिर्फ अंधविश्वास मानते थे। श्रद्धालुओं की भीड़ के कारण थोड़ी दूर पर स्थित सैनिक छावनी के कार्यों में बाधा पड़ती थी। एक दिन लेहड़ा स्टेट का मालिक लंगड़ा साहेब शिकार से लौटते समय घोड़े पर सवार होकर मंदिर के अंदर प्रवेश कर गया और उसने देवी प्रतिमा पर गोलियों की बौछार कर दी। इसके बाद मूर्ति से रक्त बहने लगा। यह देखकर लंगड़ा साहेब मानसिक रूप से विचलित हो गया। भयातुर वह तुरंत अपने घोड़े से छावनी की तरफ भागा। जरलहवा गांव के पास पहुंचते ही उसके घोड़ा अचेत होकर गिर गया और उसके मुंह से खून निकलने लगा। कुछ ही समय पश्चात घोड़ा तथा अंग्रेज अफसर दोनो की मौत हो गई। जरलहवा के पास आज भी उस अंग्रेज अफसर की समाधि मौजूद है।
इस प्रसिद्ध पीठ की लोकप्रियता को देखते हुए शासन स्तर पर भी कई सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही है। प्रत्येक नवरात्र में बड़े स्तर पर श्रद्धालु दर्शन कर अपने कष्टों को दूर करने का वरदान मांगते हैं।
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