एक दिन सारनाथ के खंडहरों में
प्रदीप श्रीवास्तव/ काशी (वाराणसी) से करीब सात किलोमीटर दूर बौद्धों का एक तीर्थ स्थल है- सारनाथ! यही पर भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र का शुभारंभ किया था. काशी के सीमांत के उपभाग के रूप में सारनाथ आज से लगभग ढाई हजार साल पहले भी एक प्रमुख स्थल था. उस समय इस उपभाग का नाम इसिपतन (ऋषिपत्तन) था. विद्वानों, ऋषियों और तपस्वियों का यह एकांत साधना स्थल था और उन महापुरुषों की इतनी अधिक प्रतिष्ठा थी कि जब तक उनकी स्वीकृति ओर समर्थन नही प्राप्त हो जाता था, तब तक कोई नया सिद्धांत या नया मत पारित नहीं होता था ,इसलिए भगवान बुद्ध ने भी अपने मध्यम मार्ग के के लिए पहले काशी आना ही उचित समझा. 'सारनाथ' नाम संदर्भ में यह कथा प्रचलित है कि पहले यह स्थान शैवों का गढ़ था और यहां के नगर देवता महेश्वर सारंगनाथ के नाम पर यह स्थान सारंगनाथ कहलाने लगा, जो बाद में सारनाथ बन गया 'सारनाथ' वाराणसी-गाजीपुर मार्ग पर आशापुर चौराहे से एक किलोमीटर उत्तर दिशा में है. इस चौराहे से उत्तर की ओर आगे बढ़ने पर बायीं तरफ एक ऊंचे टीले पर स्तूप है, जो चौखंडी के नाम से मशहूर है. कहते है इसे 1558 में अकबर ने अपने पिता हुमायूं के साथ सारनाथ की यात्रा की स्मृति के तौर पर बनवाया था. स्तूप के भीतर फारसी में ऐसा चरण मिलता है.
इसी स्तूप से कुछ आगे बढ़ने पर दायी तरफ एक पुरातत्व संग्रहालय है. जिसका निर्माण 1910 में सारनाथ में मिली सामग्री के संरक्षण के लिए किया गया था. इसी संग्रहालय के पहले खंड में लाल पत्थर की बनी हुई एक विशाल प्रतिमा है, जिसके पीछे पत्थर का छत्र-दंड बना हुआ है और पास ही विशाल पत्थर की छतरी रखी हुई है. इसके अलावा यहां दूसरी महत्वपूर्ण वस्तु है सिंह-शीर्ष. इसे भारत सरकार ने अपने राजचिन्ह के रूप में अपना लिया है. इसका इस्तेमाल मुद्राओं और सरकारी प्रपत्रों में किया जाता है. इस सिंह-शीर्ष में चार सिंह है, जो अपने आगे के दोनों पैर पृथ्वी पर टेक कर पीछे पीठ मिला कर बैठे हैं, उनके नीचे गोल पट्टी पर एक सिंह, एक घोड़ा, एक हाथी और दौड़ती हुई एक सांड प्रतिमा है. वास्तव में चारों जीव पराक्रम, बुद्धि और प्रजनन के प्रतीक हैं. इनके बीच में धर्म-चक्र बना हुआ है और सबके नीचे है उल्टा कमल, जो भारतीय संस्कृति में सुंदरता, कोमलता, स्वच्छता, निर्मलता, भव्यता और दिव्यता का प्रतीक माना जाता है. यह सिंह- शीर्ष उस अशोक स्तंभ के ऊपर था, जिसके टूटे हुए खंड आज भी सारनाथ में ही पड़े हुए है. इस सिंह शीर्ष की चमक ढाई हजार साल बाद भी ज्यों की त्यों बरकरार है.
इसके अलावा संग्रहालय के दूसरे खंड में कई मूर्तियों के सिख पात्र, भवनों के स्तंभ वगैरह हैं. संग्रहालय से ऊपर की ओर विस्तृत भू-स्थल दिखायी पड़ता है, जहां खुदाई की गयी है. यहीं बिहार के छह कत्रों की नींव देखी जा सकती है, जिसे 1951 में मेजर कीट ने खोद कर खोज निकाला था. मेजर कीट का मत है कि बिहार किसी अग्निकांड में नष्ट हुआ था, जिसके कारण बौद्ध भिक्षुक अपना सब कुछ छोड़ कर भाग खड़े हुए थे यहां कई बिहारों के खंडहर भी हैं इसके आगे धर्मचक्र है, जिनमें बिहार भी है. इसे कन्नौज के राजा गोविंद चंद्र की रानी कुमारी देवी ने 1126 और 1154 के बीच मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन के घातक हमले से कुछ ही दिन पहले तैयार करवाया था. तब इस बिहार की नींव ही बची है.
इसकी पूर्व-दिशा की ओर धमेख स्तूप है पुरातत्ववेत्ता की धारणा है कि यह स्तूप गुप्त युग में बनवाया गया था. यहीं पर मैत्रेय ने गौतम बुद्ध से आश्वासन प्राप्त किया था कि तुम ही (मैत्रेय) भावी बुद्ध होगे. 2500 वीं बुद्ध जयंती के अवसर पर पुरातत्व विभाग ने इसके पास पूजा के लिए पत्थर की वेदिका बनवायी. स्तूप के चारों ओर परिक्रमा के लिए पथ भी बना है. धमेख स्तूप के पास ही नवीन बिहार है, जिसे 1910 में अनागरिक धर्मपाल ने बनवाया था. इसी भवन के हिस्से में धर्मपाल निवास करते थे. इनका शरीर 29 अप्रैल, 1933 को पंचतत्व में विलीन हो गया.
अनागरिक धर्मपाल ने 'मूलगंध कुटी विहार' के नाम से एक मंदिर बनवाया, जो सारनाथ का हृदय स्थल है. 1890 में एक जापानी बौद्ध भिक्षुक के साथ अनागरिक धर्मपाल ने यहाँ आ कर कई बौद्ध स्तूपों को तिरस्कृत अवस्था में देखा और संकल्प लिया कि इस स्थान को फिर से गौरवशाली बनाया जाये. इस मंदिर का निर्माण 'महाबोधि-सोसाइटी' ने ऊंचे शिखर और कलश के साथ करवा दिया और भारत सरकार ने बुद्ध के अवशेष भी इसी में सुरक्षित करवा दिये हैं.इस मंदिर की भीतरी दीवारों ने जापान के प्रसिद्ध चित्रकार की कोमेत्य बोलू ने गौतम बुद्ध का संपूर्ण जीवन चरित्र कलात्मक चित्रों के रूप में अंकित किया, पर अब उचित देखभाल के अभाव में इन कलात्मक भित्तिचित्रों पर से रग उड़ते जा रहे हैं और चित्र अस्पष्ट होते. जा रहे हैं.अनागरिक धर्मपाल ने इसका नाम 'मूलगंध कुटी बिहार' इसलिए रखा कि सारनाथ की खुदाई में यहां पर पटिया पर 'गध-बुटी' जैसी बात लिखी मिली थी. बुद्ध के निवास के लिए उनके शिष्यों ने जिन आवासों का निर्माण किया था.वे सभी गंध-कुटी (सुगंधित आवाम ) के नाम से जाने जाते थे. पर सारनाथ में भगवान बुद्ध हेतु निर्मित हम कुटी का नाम मूलगंध कुटी विहार रखा गया, क्योंकि इस भवन में बुद्ध ने सर्वप्रथम वर्षा प्रयास किया था. यही पर उपदेश मुद्रा में बुद्ध की प्रतिमा है, जिसमें बुद पद्मासन लगा कर बैठे हैं. इस मूर्ति पर पारदर्शी वस्त्र का जो सूक्ष्म अंकन किया गया है, वह वास्तव में प्रस्तर कला का बेजोड़ नमूना है.
मूलगंध कुटी के मुख्य द्वार पर बायीं तरफ तीन बोधि वृक्ष है ये वृक्ष लंका के अनुराधापुर में लगे हुए उस मशहूर बोधि वृक्ष के पौधे थे, तो सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा ने लंका में जा कर लगाया था. इस मुख्य द्वार से निकल कर बायीं तरफ कच्ची सड़क में थोड़ा मा आगे चलने पर ऊंचे टीले पर एक चौकोर जलकुंड के तट पर शिवजी का मंदिर है, जहां हर साल श्रावण के हर सोमवार को विशाल मेला लगता है. शिव मंदिर होने के कारण यह हिंदुओं का मशहूर तीर्थ स्थल है. बौद्ध धर्मावलंबियों का तो यह केंद्र है ही, पर समय के साथ यह स्थल भी लुप्त हो गया था. 1794 के आसपास लोगों को इस जगह के बारे में दोबारा पता चला.
1836 में सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने इस स्थान का उत्खनन करवाया और उसकी संपूर्ण उपलब्धियों को कोलकाता के संग्रहालय में भिजवा दिया. 1851-52 में मेजर कीट ने चुदाई का काम फिर से शुरू करवाया, जिसमे एक जैन मंदिर का अवशेष मिला इसके अलावा मिट्टी की मुहरें, अशोक का सिंह, स्तंभ, अलंकृत ईट वगैरह मिली.