राजस्थान का लोकसंगीत और पर्यटन एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं। यहां का संगीत न केवल राज्य की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजता है, बल्कि पर्यटकों को भी आकर्षित करता है
जयपुर, राजस्थान का लोकसंगीत और पर्यटन एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं। यहां का संगीत न केवल राज्य की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजता है, बल्कि पर्यटकों को भी आकर्षित करता है।राजस्थान का लोकसंगीत और पर्यटन राज्य की समृद्ध संस्कृति और परंपराओं का प्रतीक है, जो सदियों से यहां की आत्मा को संजोए हुए है। राजस्थान की लोक संगीत शैलियां और वाद्ययंत्र श्रोताओं को सदियों से मंत्रमुग्ध करते रहे हैं। राजस्थान का लोक गीत- संगीत न केवल एक धरोहर है, बल्कि यह राज्य की पहचान भी है। इन लोक गीत-संगीत और वाद्य यंत्रों पीढ़ी-दर पीढ़ी आगे बढ़ाते रहे हैं प्रदेश के लोक कलाकार और इन लोक कलाकारों का संरक्षण करने में जुटा हुआ है प्रदेश का पर्यटन विभाग। विभाग द्वारा लोक कलाकारों के लिए किए जा रहे प्रयास न केवल उनकी कला को प्रोत्साहित करते हैं, बल्कि उनकी आजीविका को भी सुदृढ़ करते हैं। पर्यटन विभाग लोक कलाकारों को आर्थिक सहायता और प्रोत्साहन प्रदान करता व साथ ही कलाकारों को प्रशिक्षण, प्रदर्शन और यात्रा के लिए आर्थिक मदद देते हुए उन्हें अपनी कला के लिए मंच प्रदान करता है।
पर्यटन विभाग के उपनिदेशक श्री दलीप सिंह राठौड़ के अनुसार राजस्थान का लोक संगीत स्थानीय लोगों की परंपराओं, कहानियों और लोककथाओं से प्रेरित है। इसे मुख्यतः मौखिक परंपराओं के माध्यम से ही सहेजा गया है। राजस्थान के लोक संगीत के कुछ प्रमुख उदाहरण पनिहारी, पाबूजी की फड़ और मांड हैं। राठौड़ के अनुसार राजस्थान के लोक संगीत को तीन मुख्य श्रेणियों जैसे पेशेवर लोक गीत, क्षेत्रीय लोकगीत व आम आदमी से प्रेरित गीत में विभाजित किया जा सकता है। कला विशेषज्ञों के अनुसार पेशेवर लोक गीत मुख्यतः राजाओं के दरबारों में गाए जाते थे। इन गीतों में शासकों और उनके परिवारों की प्रशंसा होती है। यह कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती रही है। लंगा, राव, कालबेलिया, भट्ट, भोपे, भवाई, राणा, जोगी, कामद और गंधर्व जैसी जातियां इस परंपरा को आगे बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। इन गीतों में सोरढ, मारू, परज, कामज, असावरी, सोरता, बिलावल, पीलू और मांड जैसी लोकप्रिय शैलियां शामिल हैं जबकि क्षेत्रीय लोक गीत राजस्थान की भौगोलिक स्थिति के अनुसार ढा़ले गए हैं। उपनिदेशक दलीप सिंह राठौड़ के अनुसार प्रदेश की विभिन्न संगीत शैलियां और वाद्ययंत्र भी श्रोताओं को सदियों से मंत्रमुग्ध करते रहे हैं।
भौगोलिक स्थिति के अनुसार क्षेत्रीय गीत रेगिस्तानी क्षेत्रीय गीत: बाड़मेर, बीकानेर, जैसलमेर और जोधपुर में गाए जाते हैं। जैसे मूमल, केवड़ा घुघरी, पीपली और रतन राणो। मैदानी क्षेत्र के क्षेत्रीय गीत: जयपुर, अलवर, भरतपुर, धौलपुर आदि में गाए जाते हैं। जैसे श्रृंगार रस और भक्ति रस। पर्वतीय क्षेत्र के गीत: सिरोही, डूंगरपुर और बांसवाड़ा, उदयपुर व राजसमंद में गाए जाते हैं। जैसे पटेलियो, बिचियो लालार, मचर और हम्सीडो। आम आदमी से प्रेरित गीतः इन गीतों की उत्पत्ति विभिन्न अवसरों पर स्थानीय लोगों से होती है। इन्हें अनुष्ठानों, त्योहारों, ऋतुओं और धर्म से संबंधित श्रेणियों में बांटा जा सकता है।
• सगाई गीत: सगाई के अवसर पर गाया जाता है। • चाकभात: विवाह पूर्व समारोहों में गाया जाता है। • हथलेवा: फेरों के समय गाया जाता है। • जुआ जुई: शादी के बाद गाया जाता है। • बिंदोला: दूल्हा-दुल्हन के सम्मान में गाया जाता है। • वर निकसी: बारात निकलने के समय गाया जाता है। • कंगनडोरा: कंगनडोरा बांधते समय गाया जाता है। • तोरण: विवाह स्थल पर तोरण बजाते समय गाया जाता है। • जच्चा: बच्चे के जन्म का जश्न मनाने के लिए गाया जाता है। • जल्ला: बारात देखने जाती महिलाओं द्वारा गाया जाता है।
ऋतुओं से संबंधित गीतों में बदली, कजली, फाग, बारहमासा और पपीहा प्रमुख हैं। धार्मिक मान्यताओं से जुड़े लोकगीतों में में लांगुरिया, तेजाजी और चिरजा शामिल हैं। लोक वाद्य यंत्र और लोक शैलियां मांड शैलीः मांड मुख्यतः राग है लेकिन इस पर इतना रिसर्च हो चुका है कुछ कला मर्मज्ञ इसे मांड शैली भी कहते हैं। मांड राजस्थान का सबसे समृद्ध लोक संगीत में शुमार है। "केसरिया बालम आवो नी पधारो म्हारे देस " यह राजस्थान पर्यटन का ध्येय वाक्य भी है। यह मांड शैली का एक प्रसिद्ध गीत है, जो आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय है। मांड संगीत की धुनें बहुत ही मधुर और दिल को छू लेने वाली होती हैं, जो श्रोताओं को राजस्थान की संस्कृति से परिचित कराती हैं। लंगा शैलीः लंगा शैली की उत्पत्ति राजस्थान के जैसलमेर और बाड़मेर क्षेत्रों में हुई। यह संगीत शैली लंगा समुदाय के सदस्यों द्वारा प्रस्तुत की जाती है। सारंगी इस लोक संगीत शैली में प्रमुख वाद्ययंत्र हैं। "निबुड़ा" गीत ने इस शैली को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता दिलाई। तालबंदी शैलीः तालबंदी शैली विदेशी आक्रमणों और मुगल शासन के प्रभाव से उत्पन्न हुई थी। ब्रज क्षेत्र के संन्यासियों ने इस शैली को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। नगाड़ा इस संगीत शैली का मुख्य वाद्ययंत्र है, जो इसे लय प्रदान करता है। मांगनियार शैलीः- मांगनियार समुदाय के सदस्यों द्वारा प्रस्तुत यह संगीत शैली बहुत ही सुंदर और प्रभावशाली होती है। यह शैली जैसलमेर और बाड़मेर क्षेत्रों में प्रचलित है। कमायचा, खड़ताल और ढोलक इस संगीत शैली के प्रमुख वाद्ययंत्र हैं। मांगनियार संगीत में राजस्थानी संस्कृति की गहराई और समृद्धि का अद्भुत समागम देखने को मिलता है। पाबूजी की फड़ः- यह शैली राजस्थान के वीर लोकदेवता गाथाओं पर आधारित होती है। पाबूजी की फड़ एक लंबी कथा होती है, जिसे भोपाओं द्वारा पेंटिंग की एक बड़ी चादर (फड़) के सामने गाया जाता है। इस संगीत शैली में रावणहत्था, सारंगी और ढोलक जैसे वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है। पाबूजी की फड़ राजस्थान के लोक संगीत की अनूठी और विशिष्ट शैली है, जो श्रोताओं को पाबूजी के जीवन में घटित घटनाओं, वीरता और पराक्रम से हमें रूबरू कराती है।