जितना देखो, जिधर देखो, जब-जब देखो, मन की जमीन पर हर बार अँखुआ ही जाता है, हमारा झारखंड बेहद खूबसूरत है। नदी, पठार पर्वत, जलप्रपात, घाटियाँ, वन बाँहें फैलाकर बुलाते हैं यहाँ। पर्यटनाकाश पर चमकने को बेताब है झारखंड! बहुत दिनों से राँची के आस-पास के प्राकृतिक स्थलों के नवीनतम बदलाव से मिलने की इच्छा थी। पहले भी कई जलप्रपातों के सौंदर्य में भटक चुकी थी। यथा हुंडरू, जोन्हा, पंचघाघ, सीता फाॅल, तमासीन, गोवा आदि। इधर फिर से इच्छाएँ जोर मारने लगीं। और हम छः लोग पहुँच गए राँची-जमशेदपुर मार्ग पर राँची से 45 कि. मी. दूर बुंडु स्थित दशम जलप्रपात। रास्ते में तैमारा घाटी की अद्भुत रमणीयता आँखों में बसा लिया था। काँची नदी के जल से निर्मित फाॅल के दस धाराओं में गिरने के कारण इस नाम से नवाज़ा गया था।
हमारी मंजिल फाॅल का निचला हिस्सा।
सामने था, बेहद-बेहद खूबसूरत विहंगम दृश्य दशम का। ढंग से बनाई गई सीढ़ियाँ, विभिन्न प्वांइट, जहाँ से प्रपात का दर्शन सुलभ। हम इस बार नीचे से पत्थरों पर नहीं चढ़ रहे थे, ऊपर से उतर फाॅल को करीब महसूस कर रहे थे। हर प्वाइंट से दिखलाई पड़ रहा था। झरनों से गिर काँची नदी सामने जिधर बहती-लचकती बढ़ गई थी, वह भी साफ नज़र आ रहा था। घनघोर जंगल भी। अन्य झरना चट्टानों के बीच-बीच से फूटता नज़र आ रहा था। लाख छटपटाती रह गई, सीढ़ियों से या नीचे से इन निर्झरों का स्त्रोत पता नहीं चल पाया। नवनिर्मित पार्क, जंगल का अद्भुत विस्तार पर्यटकों की किलकारियों से गूँज रहा था। सबको स्वच्छता का ध्यान रखना था...पूरी व्यवस्था थी। कुछेक आदत से लाचार लोगों को छोड़ सब ध्यान रख भी रहे थे।
हम एकदम नीचे जाकर झरने का आन्नद ले रहे थे। काफी समय वहाँ बिताया। ठंडी उज्ज्वल फुहारें आनन को भिगो उस कानन में एक अजीब तंद्रील अवस्था का सृजन कर रहीं थीं। जमा था वहाँ वनस्पतियों के कारण गहरा हरा जल। नदी झरने के रूप में गिरने के बाद आगे दूसरी दिशा में गहरी घाटी के मध्य बढ़ चली थी। दोनों ओर विटपों का भरा-पूरा संसार उन्हें जोहार कह रहा था।
प्रकृति सदा आपको अलग तरह की अनुभूति से सराबोर कर देती है। आप नवीन ऊर्जा, उत्साह और प्रसन्नता से भर उठते हैं। अपनेआप से मिलने का यह अनुभव अछूता है। मौन साधक से बैठे हम देर तक अपने अंदर और प्रकृति के बीच के रिश्ते में खोए रहे। भीतर एक मौन, एक शांति व्याप्त, बाहर अनहद नाद! कुछ की हँसी, कुछ पर्यटक मौन साधना में रत! शांति के बीच हाऽऽ-हीऽऽ! का भी बाजार गर्म।
वहाँ से वापस सीढ़ी पर बढ़ते हुए चट्टानों में फूटते जीवन को देखती रही। जीवन का संदेश दे रहे हों जैसे। कहीं कठोर पाषाण को फाड़ उगता कोई नव कोंपल...कहीं पाषाण के टुकडे़ पर लहराता हरियाला बड़ा गाछ, तो कहीं अभी-अभी ठूँठ से जन्म लेता जीवन। मोबाइल में कैद होते रहे दृश्य। आँखों के रास्ते दिल में जगह बनाते रहे। स्थानीय लोगों को यहाँ रोजगार मिला है। कुछ विविध दुर्लभ वनोत्पाद बड़हर, पियार पिठौर, बेर, पपीता आदि की भी बिक्री कर रहे थे। गाइड, गोताखोर, स्थानीय आदमी जगह-जगह तैनात। अच्छी व्यवस्था पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए।
लौटते हुए दशम फाॅल के ऊपरी हिस्से पर भी जाने का फैसला खुशियों से भर रहा था। ऊपर से नए बने रेस्तरां की छतरियाँ, काँची नदी बुला रही थी। ऊपर से गहरे झरने को ज्यादा पास से अच्छी तरह देख पाने का लालच भी कम नहीं था। वहीं से तो नदी चट्टानों को तोड़़ती-फोड़ती निर्झर के रूप में ढल जीवन की गतिशीलता से रू-ब-रू करानेवाली थी। जिजीविषा को जगानेवाली कि ऐसे ही राहें बनाई जाती हैं बिना रुके, बिना ठिठके, बिना झुके। वहाँ जाने को सीढ़ियाँ नहीं थीं, थे पथरीले रास्ते। हम वापस लौट, वहीं दाहिनी ओर से फूटे उबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते पर बढ़े।जगह-जगह खाने-पीने की व्यवस्था। स्थानीय लोग आॅर्डर पर घरेलू भोजन कराते हैं। विभिन्न जगहों पर बाँस गाड़, प्लास्टिक लगाकर भोजनादि बनाने की तैयारी। बहुत कम कीमत पर वे भोजन बनाकर खिलाते हैं। कृशकाय बूढ़ा गाछों की ठंडी छाँव तले अपने हरे टेंटनुमा आशियाने के बाहर बैठा ग्राहकों का इंतजार कर रहा था। इंतजार सदा सुखद नहीं होता, उस बूढ़े के पेशानी पर पड़े भल बता रहे थे। नीचे निर्झर के पास खाना बनाना मना हो गया है अब।
सामने काँची नदी का अद्भुत विस्तार अभी सिमटा हुआ। पानी भरने पहुँची स्त्रियाँ, बच्चियाँ, चट्टानों पर कूदते-फाँदते बच्चे, तटिनी पारकर ऊपर छतरियों के निकट जाते लोग। इतना स्वच्छ नीलाभ जल कि बालू, चट्टान, पत्थर, खर-पतवार अंदर से झाँककर आमंत्रित कर रहे थे। झारखंड में कँगारु के बच्चों की तरह पीठ पर बेतरा में बच्चों को बाँधकर निरंतर खटती हुई स्त्रियों का संसार आसानी से नजर आ जाता है। यहाँ भी बेतरा बाँधे दो-एक जनीमन दिखलाई पड़ीं। सर पर ढोकर बर्तन, पानी लाती स्त्रियाँ, बच्चियाँ भी। हम वहीं पत्थर पर बैठ स्वच्छ, पारदर्शी जल को देखते रहे। चट्टानों की दखलअंदाजी से काँची बहुत आहिस्ते-आहिस्ते बह रही थी।
दिवाकर अपना तेज समेट रहा था और मुझे हर कीमत पर रास्ते के किंशुक (पलाश) को मोबाइल में कैद करना था। वन में 'आग' लगी थी जंगल की आग (पलाश) से। मुझे उस आग से भेंट करनी थी।
खैर! अब हम वापसी में जगह-जगह पुराने ढंग के साफ-सुथरे घर, खलिहान, ज़िंदगी को आसान बनानेवाली बकरी-छगरी, मुर्गे-बत्तख प्रकृति की गोद में सुस्ताते हुए मिले।
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