यात्रा वृत्त व छायांकन  / अनिता रश्मि 

जितना देखो, जिधर देखो, जब-जब देखो, मन की जमीन पर हर बार अँखुआ ही जाता है, हमारा झारखंड बेहद खूबसूरत है। नदी, पठार पर्वत, जलप्रपात, घाटियाँ, वन बाँहें फैलाकर बुलाते हैं यहाँ। पर्यटनाकाश पर चमकने को बेताब है झारखंड! बहुत दिनों से राँची के आस-पास के प्राकृतिक स्थलों के नवीनतम बदलाव से मिलने की इच्छा थी। पहले भी कई जलप्रपातों के सौंदर्य में भटक चुकी थी। यथा हुंडरू, जोन्हा, पंचघाघ, सीता फाॅल, तमासीन, गोवा आदि। इधर फिर से इच्छाएँ जोर मारने लगीं। और हम छः लोग पहुँच गए राँची-जमशेदपुर मार्ग पर राँची से 45 कि. मी. दूर बुंडु स्थित दशम जलप्रपात। रास्ते में तैमारा घाटी की अद्भुत रमणीयता आँखों में बसा लिया था। काँची नदी के जल से निर्मित फाॅल के दस धाराओं में गिरने के कारण इस नाम से नवाज़ा गया था। 

हमारी मंजिल फाॅल का निचला हिस्सा। 

सामने था, बेहद-बेहद खूबसूरत विहंगम दृश्य दशम का।  ढंग से बनाई गई सीढ़ियाँ, विभिन्न प्वांइट, जहाँ से प्रपात का दर्शन सुलभ। हम इस बार नीचे से पत्थरों पर नहीं चढ़ रहे थे, ऊपर से उतर फाॅल को करीब महसूस कर रहे थे। हर प्वाइंट से दिखलाई पड़ रहा था। झरनों से गिर काँची नदी सामने जिधर बहती-लचकती बढ़ गई थी, वह भी साफ नज़र आ रहा था। घनघोर जंगल भी। अन्य झरना चट्टानों के बीच-बीच से फूटता नज़र आ रहा था। लाख छटपटाती रह गई, सीढ़ियों से या नीचे से इन निर्झरों का स्त्रोत पता नहीं चल पाया।  नवनिर्मित पार्क, जंगल का अद्भुत विस्तार पर्यटकों की किलकारियों से गूँज रहा था। सबको स्वच्छता का ध्यान रखना था...पूरी व्यवस्था थी। कुछेक आदत से लाचार लोगों को छोड़ सब ध्यान रख भी रहे थे। 


हम एकदम नीचे जाकर झरने का आन्नद ले रहे थे। काफी समय वहाँ बिताया। ठंडी उज्ज्वल फुहारें आनन को भिगो उस कानन में एक अजीब तंद्रील अवस्था का सृजन कर रहीं थीं। जमा था वहाँ वनस्पतियों के कारण गहरा हरा जल। नदी झरने के रूप में गिरने के बाद आगे दूसरी दिशा में गहरी घाटी के मध्य बढ़ चली थी। दोनों ओर विटपों का भरा-पूरा संसार उन्हें जोहार कह रहा था। 

प्रकृति सदा आपको अलग तरह की अनुभूति से सराबोर कर देती है। आप नवीन ऊर्जा, उत्साह और प्रसन्नता से भर उठते हैं। अपनेआप से मिलने का यह अनुभव अछूता है। मौन साधक से बैठे हम देर तक अपने अंदर और प्रकृति के बीच के रिश्ते में खोए रहे। भीतर एक मौन, एक शांति व्याप्त, बाहर अनहद नाद! कुछ की हँसी, कुछ पर्यटक मौन साधना में रत! शांति के बीच हाऽऽ-हीऽऽ! का भी बाजार गर्म। 

   वहाँ से वापस सीढ़ी पर बढ़ते हुए चट्टानों में फूटते जीवन को देखती रही। जीवन का संदेश दे रहे हों जैसे। कहीं कठोर पाषाण को फाड़ उगता कोई नव कोंपल...कहीं पाषाण के टुकडे़ पर लहराता हरियाला बड़ा गाछ, तो कहीं अभी-अभी ठूँठ से जन्म लेता जीवन। मोबाइल में कैद होते रहे दृश्य। आँखों के रास्ते दिल में जगह बनाते रहे। स्थानीय लोगों को यहाँ रोजगार मिला है। कुछ विविध दुर्लभ वनोत्पाद बड़हर, पियार पिठौर, बेर, पपीता आदि की भी बिक्री कर रहे थे। गाइड, गोताखोर, स्थानीय आदमी जगह-जगह तैनात। अच्छी व्यवस्था पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए। 

लौटते हुए दशम फाॅल के ऊपरी हिस्से पर भी जाने का फैसला खुशियों से भर रहा था। ऊपर से नए बने रेस्तरां की छतरियाँ, काँची नदी बुला रही थी। ऊपर से गहरे झरने को ज्यादा पास से अच्छी तरह देख पाने का लालच भी कम नहीं था। वहीं से तो नदी चट्टानों को तोड़़ती-फोड़ती निर्झर के रूप में ढल जीवन की गतिशीलता से रू-ब-रू करानेवाली थी। जिजीविषा को जगानेवाली कि ऐसे ही राहें बनाई जाती हैं बिना रुके, बिना ठिठके, बिना झुके। वहाँ जाने को सीढ़ियाँ नहीं थीं, थे पथरीले रास्ते। हम वापस लौट, वहीं दाहिनी ओर से फूटे उबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते पर बढ़े। 

  जगह-जगह खाने-पीने की व्यवस्था। स्थानीय लोग आॅर्डर पर घरेलू भोजन कराते हैं। विभिन्न जगहों पर बाँस गाड़, प्लास्टिक लगाकर भोजनादि बनाने की तैयारी। बहुत कम कीमत पर वे भोजन बनाकर खिलाते हैं। कृशकाय बूढ़ा गाछों की ठंडी छाँव तले अपने हरे टेंटनुमा आशियाने के बाहर बैठा ग्राहकों का इंतजार कर रहा था। इंतजार सदा सुखद नहीं होता, उस बूढ़े के पेशानी पर पड़े भल बता रहे थे। नीचे निर्झर के पास खाना बनाना मना हो गया है अब।

सामने काँची नदी का अद्भुत विस्तार अभी सिमटा हुआ। पानी भरने पहुँची स्त्रियाँ, बच्चियाँ, चट्टानों पर कूदते-फाँदते बच्चे, तटिनी पारकर ऊपर छतरियों के निकट जाते लोग। इतना स्वच्छ नीलाभ जल कि बालू, चट्टान, पत्थर, खर-पतवार अंदर से झाँककर आमंत्रित कर रहे थे। झारखंड में कँगारु के बच्चों की तरह पीठ पर बेतरा में बच्चों को बाँधकर निरंतर खटती हुई स्त्रियों का संसार आसानी से नजर आ जाता है। यहाँ भी बेतरा बाँधे दो-एक जनीमन दिखलाई पड़ीं। सर पर ढोकर बर्तन, पानी लाती स्त्रियाँ, बच्चियाँ भी। हम वहीं पत्थर पर बैठ स्वच्छ, पारदर्शी जल को देखते रहे। चट्टानों की दखलअंदाजी से काँची बहुत आहिस्ते-आहिस्ते बह रही थी।

'हाँ! बैठे रहो सब। प्रकृति के सान्निध्य में देर तक उसके अनहद नाद को सुना जाए, महसूसा जाए।' - मन में।
'आस-पास आकाशचुम्बी लाल-लाल पत्तियोंवाले कुसुम, यूकलिप्टस और अन्य विटपों की मासूमियत को परखा जाए,  भोले-भाले वासिंदों के साथ समय बिताया जाए।'  यह भी मन में था।
कुछेक आदिवासी किशोर धड़ल्ले से चट्टानों पर हिरण-सम कुलाँचें भर रहे थे। कोई भय नहीं, कोई बाधा नहीं। जैसे रोजमर्रा का काम। ऐसे ही नहीं इन्हें वनवासी कहा जाता है। वन्य जीवों का सान्निध्य मिला हो जैसे और उन्होंने सीख लिया हो जंगल-पहाड़ों पर सहज कूदना। 

दिवाकर अपना तेज समेट रहा था और मुझे हर कीमत पर रास्ते के किंशुक (पलाश) को मोबाइल में कैद करना था। वन में 'आग' लगी थी जंगल की आग (पलाश) से। मुझे उस आग से भेंट करनी थी। 
हम गाड़ी की ओर लौट पड़े। एक जगह दो लोग छोटे से खप्परपोश आशियाने में महुआ का दारु बेचते हुए मिले। डेगचियाँ भरी थीं। एक वाशिंदे ने बताया, 
"यहाँ लोग गाँव में ही महुआ चुलाकर दारु बनाते हैं।"
"कौन पीता है?" 
"कउन नय पियेगा? गोटे गाँव के छौड़ा-छौंड़ी, जनीमन, मरद पीता है। आउर जे घूरने (घूमने) आता है, ऊ सोउब भी पीता है।"
 आस-पास गाँवों की उपस्थिति और विकास के कारण यह जगह गुलज़ार हो चुकी है। अब वहाँ भय का वातावरण नहीं। 
  "हर साल बलि लेता है दशम।" - सब कहते थे। लेकिन अब नहीं। चाक-चौबंद व्यवस्था। बहुत सारे  पर्यटन मित्र रक्षक! 
   बलि के पीछे की भी एक लोककथा यहाँ करवट लेती है। 
लोककथा -
यहाँ सांदु-नवरी की प्रेमकथा आकार लेती रही है। अपनी साँवली-सलोनी प्रेयसी नवरी से मिलने बाँसुरी वादक सांदु काँची नदी से निर्मित झरने को लता के सहारे पारकर रात में ऊपर पहुँच जाता। सांदु मुंडा बाँका छैला...उसके बिना गाँव का हर आयोजन अधूरा!...हर समय फेंटे में बँधी रहनेवाली बंसी में ऐसी धुन निकालता कि सब मंत्र-मुग्ध!...उसके छैल-छबीले स्वभाव के कारण ही सब उसे छैला कहते। 
  उसकी बाँसुरी की तान में राधा की तरह दीवानी उसकी प्रेमिका नवरी उस साँवले कृष्ण से मिलने को बेताब रहती थी। गाँववालों को उनकी रासलीला रास नहीं आ रही थी। लता के सहारे झरना पारकर अपनी प्रेमिका से मिलने जाता है छैला, शोर था। मन ही मन उसे प्यार करनेवाली उसकी भाभी के दिल में यह बात शूल की तरह चुभती। उसने हमेशा चाहा कि वह नवरी से नहीं मिले। लेकिन सांदु-नवरी का प्रेम अमर! 
अंततः एक रात बाँसुरी कमर में लटकाए छैला बने सांदु को झरना पार करते देख भाभी जल-भुन गई। उसने एक धारदार चाकू उठाया और चल पड़ी काँची नदी की ओर। उसने लता रेत दी। झरने के पास से दर्रे में गिरकर छैला की दर्दनाक मौत हो गई। बाँसुरी की मीठी तान मौत की चीख बन गई सदा के लिए। 
सब कहते थे, "आज भी सन्नाटा में बंसरी का मीठ तान सुनाई पड़ता है। ऊ छैलवा अब भी मुरली बजाता है।"
 

खैर! अब हम वापसी में जगह-जगह पुराने ढंग के साफ-सुथरे घर, खलिहान, ज़िंदगी को आसान बनानेवाली बकरी-छगरी, मुर्गे-बत्तख प्रकृति की गोद में सुस्ताते हुए मिले। 
कहीं-कहीं झोपड़ियों की मिट्टी की भीत पे सोहराई पेंटिंग की चमक। 
 बुल्लू इमाम और उनके बेटे-बहू की निरंतर कोशिश से यह धमक दिल्ली सहित देश-विदेश तक पहुँच गई है आज। झारखंड की कोहबर, सोहराई कला काफी प्रसिद्ध। हाँ, प्राकृतिक रंगों की जगह अब सिंथेटिक रंगों ने ले ली है।      वही हिरण, हाथी, मोर, बाँस, चिड़ियाँ-चुरुँग, बीर-बुरु (पहाड़), परब-त्यौहार और पारंपरिक खेती की चटख उपस्थिति दीवारों को अजब खूबसूरती प्रदान करती है।
प्राचीन शैल-भित्ति चित्रादि देखने के लिए झारखंड के अंदरुनी इलाकों की सैर पर सोहराई, कोहबर आम। चलती गाड़ी से मोबाइल में कैद। 
  शहरी क्षेत्रों, कई बस्तियों, ग्रामों  में फूस-खपडे़ की छत को आजकल पक्के घरों ने परे खिसका दिया है। सब जगह बिजली के तार कच्चे घरों के अंदर रौशनी की उपस्थिति की गवाही दे रहे थे। 
वहाँ पर खेतिहर व्यक्तियों की बस्ती। दीवारों पर टँगे, बारी में बिखरे, खलिहानों में सजे खेती के विविध औजार जैसे - हल-फाल, जुराठ, कुदाल, फावड़ा और पुआल देखते हुए हम बैक टु दी पैवेलियन। 
हाँ! डूबते प्रभाकर...ललहुन रौशनी के बढ़ते वृत्त के बावजूद जंगल की आग को कैदी बना लेने में सफल रही, यह संतुष्टि साथ थी। कुछेक डालियाँ तोड़ लीं। वहाँ दो-तीन ग्रामीण बालाएँ पलाश की डालियों के साथ मिलीं। कुछेक के पास भर अँजुरी  तोते की चोंचवाले परास के नारंगी फूल।

"क्या करोगी इनका?" 
"इकर से रंग बनाबएँ। होरी आ रहा है न।"
"अभी भी इनसे बनाती हो?"
"हाँ जून! काहे नय बनाएँगे? हम तो ऐही सब रंग से होरी खेलते हैं।"
"इससे बनाकर? और रंगों से...।" "...हाँ, उसको भी किनते (खरीदते) हैं।"
फिक् से हँस दी गहरे साँवले रंग की सलोनी किशोरियाँ। 
उनकी हामी से आश्चर्य में। प्रकृति पूजक अभी भी प्राकृतिक तरीके से जीने के आदी हैं। यहाँ के सुदूर जंगलों में, पठार, चट्टानों पर, वनों में अब भी हाड़ोपैथी (जड़ी-बूटी से इलाज की पद्धति) का बोलबाला। शहरों, कस्बों, गाँवों में परिवर्तन की बयार में यह सहजता कम हो रही है।  लौटते समय झरने सी हँसी हम सबके चेहरे पर सबको उद्भासित करती हुई।