डा.जवाहर धीर को मैं तब से जानता हूं जब वह मेडिकल साइंस में अपना भविष्य खोज रहे थे। जल्दी ही वह लेखन में सक्रिय हो गए। पारिवारिक वातावरण भी इसमें सहायता कर रहा था। उम्र में वह मेरे हमकदम ही हैं। निहायत ही शालीन, सुसंस्कृत, मिलनसार,परदुखकातरता से भरपूर ऐसे स्मरणीय व्यक्ति के प्रति मेरी सदा सद्भावना रही है।जो भी उनसे मिलता है,कायल हो जाता है।
उनसे मिलकर या उनके साहित्य अनुराग से गुजरते हुए आप उन्हें एक अध्यात्मिक व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति पायेंगे। ऐसा व्यक्ति जाति भेदभाव से ऊपर उठ जाता है। उसे समूचे जगत के प्राणियों में ईश्वर का अंश नज़र आने लगता है।
'मॉं कभी मरती नहीं 'किताब उनकी नई सम्पादित किताब है,जिसका लोकार्पण इसी अगस्त माह में फगवाड़ा में दोआबा साहित्य एवं कला अकादमी द्वारा आयोजित किया गया। लोकार्पण के समय समूह में शामिल विद्वान लोगों के सामने उनकी कही दो बातें मेरे हृदयतल में समा गईं। पहली, उन्होंने अपने गंभीर रूप में अस्वस्थ रहने के बाद घर लौटने पर मॉं को सामने पाया जो उनका मनोबल बढ़ा रही थीं। जागरण अवस्था में उन्हें विश्वास हो गया कि मॉं कभी मरती नहीं। जिसे उन्होंने एक स्मरणीय पुस्तक में बदलने का निर्णय किया। परिणाम हम सब के सामने है। आस्था प्रकाशन जालंधर से छप कर यह किताब लोगों तक पहुंच गई है।
दूसरे,उन्हें किसी ने नकारात्मक ढंग से कहा कि मॉं कभी मरती नहीं,यह भी कोई बात है। मॉं जब मर जाती है तो उसका दाह संस्कार कर दिया जाता है। सूक्ष्मदर्शी जरुर कहेंगे कि मॉं की मृत्यु के बाद जो क्रियाएं होती हैं, उसमें कहा जाता है कि मॉं का देहांत हो गया है। लेकिन आप मन का क्या करोगे,आप मॉं के आशीर्वाद के असर का क्या करोगे,उन स्मृतियों का क्या करोगे जो बरसों बरसों आपके सिर पर ठंडी छांव की तरह रही है,हर मुश्किल वक्त में उनके बताए हुए अनुभव जो आप को बड़ी से बड़ी मुसीबत से निकलने में मदद करती है। मॉं शारीरिक रूप से चली जाती है, लेकिन आपकी हर संग्राम में विजयी रहने का आशीर्वाद कहीं न कहीं जाता।
मैं व्यक्ति पूजा या भावाकुल हो कर पीछे मुड़कर देखने की बात नहीं कर रहा लेकिन उस रोशनी की छांह गह कर जिस रास्ते को आप कंटकहीन बना कर दूसरों की भी सहायता कर सकते हो।उसके होने को स्वीकार करने की बात कह रहा हूं।
सुना होगा आपने बादशाह अकबर की मॉं जब दुनिया से चली गई तो मंत्री मंडल के सयाने लोगों ने सहारा देने के शब्द कहे। तब बादशाह अकबर ने कहा -मुझे सलाहियत के, अच्छा होने के, बादशाह होने के लफ्ज़ सुनाई देते रहेंगे लेकिन मुझे 'अक्कू' कह कर आज के बाद कोई नहीं पुकारेगा।
अच्छा है कि हम व्यवहारिक हो रहे हैं , यथार्थवादी हो रहे हैं लेकिन संस्कृति के नैतिकतावादी मूल्यों की जो विरासत मॉं से मिलती है,उससे मुंह न मोड़ लें। आखिर हम मानवीय मूल्यों को परे नहीं धकेल सकते। सारे सम्बंधों,सारी नैतिकता को तिलांजलि नहीं दे सकते,ये सब मॉं से ही मिलते हैं। जो शिवाजी महाराज को तैयार कर सकती है, जो लव-कुश को संकट का सामना करने की शक्ति दे सकती है,वह मॉं ही है।
यह किताब दिखाती है कि भारतीय संस्कृति मरती नहीं। ( डा.धीर का पता है:-87, प्रोफेसर कालोनी,बंगा रोड,फगवाड़ा।पंजाब। 144401.मो.9872625435) डा.तरसेम गुजराल, ,जालंधर / .9463632855.
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