प्रणाम पर्यटन का यह विशेषांक यात्रा के शौकीन लोगों के लिए बेहद उपयोगी साबित होगा

समीक्षक : अंजू निगम / लखनऊ

प्रणाम पर्यटन का यात्रा संस्मरण विशेषांक नायाब हीरों के रूप में सत्रह संस्मरण समेटे है। इसमें भारत के हर कोने ,यहाँ तक की विदेश की धरती को भी इस किताब में सहेजा गया है। लगभग सारे संस्मरण रोचक और नयी, अनोखी जानकारियों से आवृत है जिसे पढ़ लेने की उत्सुकता रही।चुंकि मेरे पति भी भारतीय पुरातत्व विभाग में कार्यरत थे अतः घुमक्कड़ी का शौक सदैव रहा। संस्मरण में मुख्य रूप से स्थान के बारे में विस्तृत  जानकारी, उस जगह तक पहुँचने का जरिया, किस समय उस स्थान पर जाना उचित रहेगा आदि के बारे में ठोस तथ्य देना आवश्यक है जिससे भविष्यमें इन स्थानों पर जाने वाले पर्यटन इस किताब  को 'केटालॉग' की तरह इस्तेमाल कर उस स्थान  का भरपूर आनंद ले सकते है। इस किताब के हर संस्मरण में ऐसी जानकारियां उपलब्ध है। अत: यह विशेषांक और भी महत्वपूर्ण हो उठता है।हालांकि एक-दो स्थानों को छोड़कर मैं लगभग सभी जगह घूम चुकी हूँ लेकिन मेरा हमेशा यही मानना है कि हर पर्यटक का किसी भी स्थान विशेष को देखने का अपना नजरिया होता है। मसलन मैं हाल ही में केरल जा चुकी हूंँ मगर उस समय मैंने केवल त्रिवेंद्रम, कन्याकुमारी, रामेश्वरम को कवर किया था। दीपा पाण्डेय जी के संस्मरण में मैंने मुन्नार से ठेककड़ी की भी यात्रा कर ली और हाथी की सवारी, कथककली नृत्य मार्शल आर्ट का भी आनंद लिया। वर्णन बेहद संजीव था।


डा.यशोधरा जी के साथ मैंने भी राजा राम के ओरछा का आध्यात्मिक रूप देखा। मार्ग में आई कठिनाई के बावजूद मन में ईश्वर दर्शन की अदम्य इच्छा ने प्रभावित किया। राजा राम के ओरछा में विराजमान होने की जो अद्भुत कथा इस संस्मरण के द्वारा पढ़ने को मिली उसने मुझे धन्य-धन्य कर दिया। एक नवीन जानकारी मिली कि यहाँ गिद्धों को संरक्षण दिया जाता है और इसके पीछे भी कोई रोचक कारण जरूर रहा होगा।

मैं 1990 में असम-मेघालय गई थी और एक आम पर्यटक की तरह ही असम-मेघालय के प्राकृतिक सौंदर्य को आत्मसात किया था और इतने सालों  में कई यादें विस्मृत भी होने लगी थी मगर डा. रीना सिंह जी ने उन यादों को पुनः साकार कर दिया। शिलांग के पहाड़ी घरों की बुनावट ने मुझे उस कच्ची उम्र में चौंकाया था क्योंकि ईंट -गारों के घरों से इतर ये घर मौसम और सामान की उपलब्धता के अनूकुल बनायें जाते है। बांस से बने ये घर तब मुझे बेहद खुबसूरत लगे थे। डाउॅकी रिवर की जानकारी मेरे लिए नवीन और अनूठी थी। सन्ध्या सुरगम्या जी का संस्मरण छोटा जरूर था मगर उन्होंने नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की जो विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई उससे शिव भक्त जरूर लाभान्वित होंगे।


अशोक वाधवानी और धर्म चंद्र आहूजा जी ने बैंगलोर के बारे में बहुत विस्तार से जानकारी दी है। संस्मरण बारीक और बंगलौर के ज्यादातर और महत्वपूर्ण हिस्सों को समेटे है। अशोक ने क्रमानुसार हर दशर्नीय स्थल को समेटा है जिसमें टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन महल , लालबाग बोटैनिकल गार्डन से लेकर बन्नेरपट्टा राष्ट्रीय उद्यान को भी समेटे है। इसके अलावा उन्होंने उन पर्यटकों का भी ख्याल रखा है जो अनजान शहर में अच्छे और सस्ते खाने की खोज में रहते हैं।आहूजा जी ने भी बैंगलोर का विस्तृत खाका खींचा है और खाने-पीने के लिए भी कुछ नफीस जगहों को पाठकों के लिए उपलब्ध कराया है। संतोष बंसल जी की संस्मरण लिखने की शैली ने मुझे बेहद प्रभावित किया। उनके संस्मरण में 'ब्लैक फॉरेस्ट ' का बेहद रोचक और विस्तृत वर्णन है। हमने 'ब्लैक फॉरेस्ट ' का केक और पेस्ट्री तो की बार खाई है पर कभी इसकी तह में जाकर ये पता नहीं किया कि आखिर ये अनोखा नाम आया कहाँ से ? उनका वर्णन सजीव तो था ही ,इसकी शैली भी इतनी महीन बुनी थी कि धीरे-धीरे ही पढ़ कर ही आत्मसात किया। इसके अलावा 'कुकु क्लॉक' की भी विस्मित करती जानकारियां मिली।


कुंभकोणम के शब्दार्थ को अभिव्यक्त करता ये संस्मरण है। इसमें एक जगह यह उद्धरित किया गया है कि मंदिर परिसर में ही २१ कुंए है जिनमें भारत की २० नदियों का जल मिलाया जाता है। ठीक ऐसा ही संस्कार रामेश्वर के रामनाथ स्वामी मंदिर में भी किया जाता रहा है। एक नयी बात भी पता चली कि कुंभकोणम को  भारत का क्रैबिज भी कहा जाता था जो इस स्थान की शैक्षिक स्तर की उच्चता के आधार पर दिया गया होगा। इसके अलावा इस संस्मरण में कुंभकोणम के अन्य दर्शनीय स्थलों को भी सहेजा गया है।उत्तराखंड में अल्मोड़ा के पास स्थित कैंची नाम मंदिर के नीम करौली बाबा , जागेश्वर के शिव मंदिर एवं जागेश्वर के ही चितई गोलू देवता के बारे में प्रदीप कुमार जी ने बहुत विस्तार से बताया। लखनऊ के अपने घर से लेकर उत्तराखंड की अपनी यात्रा के हर पड़ाव को उन्होंने बखूबी अपनी कलम से उकेरा है। प्राकृतिक सौंदर्य की हर छटा का उनके संस्मरण में उल्लेख है जो सुकून पहुँचाता है।


चंदेरी को तो हम केवल साड़ी या पोशाक के तौर पर ही जानते थे लेकिन चंदेरी का विगत कभी मन और नज़रों के सामने से नहीं गुजरा। चंदेरी के वैभव पूर्ण इतिहास को जानना मेरे ज्ञान में वृद्धि कर गया। वस्त्र की सुनने की महीन प्रक्रिया ने भी मेरी जानकारी में इजाफा किया। चंदेरी का इतिहास महाभारत काल तक जुड़ा है, ये मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। चंदेरी के विभिन्न पैटर्न की दुर्लभ जानकारी ने मुझे विस्मित ही किया।चंदेरी के शहर से निकल मैं पहुँच गई माथेरान की अभूतपूर्व प्राकृतिक क्षेत्र में। लेखिका के सहज, सरल लेखन ने अभिभूत भी किया और माथेरान के जंगलों के रोमांचकारी अनुभवों से भी रू-ब-रू करवाया। हालांकि लेखिका की ये यात्रा उनकी जेब पर हावी रही मगर कम संसाधनों में भी जीवन का आंनद भी लिया जा सकता है और जीवन को किस जीवटता से जीया जा सकता है , ये मार्ग भी वे रोशन कर गई।

बनारस को लिखना थोड़ा कठिन इसलिए भी हो जाता है क्योंकि यहाँ गंगा के घाट में एक ही सीध पर जीवन का उद्भभाव भी है और मृत्यु का पराभव भी है लेकिन पद्मा मिश्रा जी ने इस यात्रा को शिद्दत से पूरा किया है। यहाँ की संस्कृति,  शिल्प, शिक्षा, साहित्य सभी क्षेत्रों को वैभव का तिलक लगा कर प्रस्तुत किया है तो लाजिमी सी बात हो जाती है कि संस्मरण का स्तर भी अपनी पराकाष्ठा को छूते है।यहाँ काशी विश्वनाथ का भक्ति काल भी कलमबद्ध है और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की साहित्यिक उन्नति भी उल्लेखित है। बनारस के इतिहास को इतने वैभवशाली तरीके से समक्ष लाने के लिए लेखिका को साधुवाद।

डा. वर्षा जी का संस्मरण संक्षिप्त जरूर है मगर जरूरी जानकारियों से लबरेज़ है। यहाँ के स्वामीनारायण मंदिर और अयोध्या के पास छपिया में स्थित स्वामी नारायण मंदिर की शिल्प संरचना लगभग  एक जैसी ही है। इसी तरह की संरचना मुझे गुजरात के सोमनाथ मन्दिर में भी देखने को मिलती है। भोजन से संबंधित उचित जानकारी इस संस्मरण में निहित है।


मेरे लिए 'येरगी' सर्वथा नया स्थान था। संस्मरण में ही यह उल्लेख था कि यहां से प्राप्त शिलालेखों से यह प्रतीत होता है कि यह चालुक्य साम्राज्य का हिस्सा था। यहाँ के मन्दिर और बावड़ियां का जीर्णोद्धार होना है ताकि ये धरोहर पुन: जीवित हो सके। इस विस्तृत जानकारी में इस जानकारी ने आश्चर्य में डाला कि यहाँ मिलने वाले कुल अट्ठारह कुओं का जलस्तर समान रहता है और अकाल की अवधि में भी इन कुओं का पानी सूखा नहीं था। यहाँ के सरपंच  मन्दिर और कुओं के जीर्णोद्धार के लिए सतत् प्रयासरत है।


पर्यटन विशेषांक के आखिरी पड़ाव में श्री बलराम अग्रवाल जी का यात्रा संस्मरण भी पढ़ने का सुअवसर मिला।
'याना गुफाएं ' भी मेरे लिए सर्वथा नया स्थान था इसलिए इस स्थान के विषय में जान लेने की उत्सुकता थी। संयोग से शुरू हुआ ये संस्मरण काफी रोचक रहा। इसके भौतिक, आध्यात्मिक एवं दार्शनिक पक्ष को संस्मरण में पूरे वैभव के साथ प्रस्तुत किया गया है।  ये प्राचीन काल से ही होता आया है कि हमारी परंपराएं, प्रकृति, संस्कारों को धर्म से जोड़ देने से उसका उचित संरक्षण ही होता है। इस संस्मरण में कुछ नयी जानकारियां भी मिली। इसमें 'कासर्ट' के महत्व को इंगित किया गया है जो न केवल भारत वरन् विश्व स्तर पर भी महत्वपूर्ण माना गया है। लेखक के अनुसार ये गुफाएं अनादि काल से ही अस्तित्व में आ गई थी। इन गुफाओं के विषय में पौराणिक लेखों में उल्लेख मिलता है। लेखक द्वारा इन गुफाओं तक पहुँचने और रास्ते के रोमांचकारी अनुभवों का रोचक वृत्तांत है। यहाँ या किसी भी यात्रा की शुरुआत के लिए ली जाने वाली सावधानियों के बारे में भी आगाह किया गया है।


इन संस्मरणों के बीच एक नफीस़ सी कहानी 'तितली पुस्तकालय ' अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रही है।कुल मिला कर यह विशेषांक यात्रा के शौकीन लोगों के लिए बेहद उपयोगी साबित होगा। इसमें अलग -अलग स्थानों  के बारे में दी गई जानकारियां भविष्य में पर्यटकों का रास्ता सुगम बनायें, ऐसी शुभेच्छा है।