"भटकन"

 शेर सिंह / सिडनी, आस्ट्रेलिया में

 आज मुझे  भुवनेश्वर की बरवस ही याद आ गई थी। उन दिनों मैं युवा था। लगभग अठाईस वर्ष का नौजवान। पहले अकेला ही रहता था। कार्य दिवस वाले दिनों में पूरा दिन आफिस के व्यस्त कार्यों में कैसे निकल जाता था, पता भी नहीं चलता। परन्तु रविवार और किसी भी छुट्टी वाले दिन मेरे लिए समय काटना मुश्किल हो जाता था। कभी -कभी सहकर्मियों के घरों में चला जाता था।  सहकर्मियों में आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल से थे। उड़ीसा के तो थे ही। सभी अपने परिवार के साथ रहते थे। उत्तर भारत से मैं अकेला ही था, और अकेला ही रहता था। लेकिन हर रविवार अथवा छुट्टी वाले दिन  सहकर्मियों में से किसी के भी घर नहीं जा सकता था। अपने संकोची स्वभाव के कारण  ऐसा कर भी नहीं सकता था। इसलिए समय काटने के लिए सायंकाल के दौरान  कल्पना एरिया से, जहां मेरा निवास था, दूर - दूर  तक  पैदल  चलते -चलते  कभी चार - पांच किलोमीटर, तो कभी - कभी सात -आठ किलोमीटर तक हो जाता था। पैदल चलने के कारण मैं धीरे -धीरे हर रास्ता, स्थान, मार्केट, मंदिर, बस स्टेंड, रेलवे स्टेशन वाले अधिकांश रास्ते जान- पहचान गया था। इस प्रकार केवल कुछ ही समय अथवा दिनों में शहर के हर हिस्से को पुरी तरह नहीं, तो काफी हद तक जान सका था।

आज यहां सिडनी पहुंचे 14 दिन हो चुके हैं। अठाईस वर्ष की तुलना में अब सड़सठ की उम्र हो चुकी है। लेकिन स्वभाव, आदतें कहां बदलती हैं? शुरू के तीन- चार दिन तो अच्छी धूप खिली हुई थी। गर्म सा मौसम। परन्तु उसके पश्चात लगातार कभी तेज, कभी धीमी गति में बारिश रोज ही होती रही। बिना कुछ किये, घर में बैठे- बैठे समय काटना बड़ा मुश्किल है। इसलिए बारिश रूकने पर सायंकाल के समय लंबी- चौड़ी सड़कों, गलियों को नापने, टहलने के इरादे से घर से निकल पड़ता।  पिछले कल दिन भर बारिश होती रही थी। वर्षा के कारण शाम के समय काफी देरी से टहलने निकला। एक रोड से दूसरी रोड, एक गली से दूसरी गली। काफी अंधेरा होने तक घूमता- फिरता रहा।  अपने मोबाइल फोन में देखा, तो लगभग एक घंटे से अधिक का समय टहलते, चलते हो चुका था। फिटविट  को देखा, तो 6.5 किलोमीटर दर्शा रहा था। यानी कि काफी घूम- फिर लिया था। जब घर लौटने लगा, तो एक सी लगती गलियों में जैसे भटक सा गया । कभी एक गली में घुसता, कभी दूसरी में। लेकिन आखिरकार मोबाइल की रोशनी में घर पहुंचा। बूंदा-बांदी फिर से शुरू हो गई थी।

 लगभग 5 वर्षों के अंतराल में स्कोफिल्डस   रेलवे स्टेशन की तरफ गया था आज। डब्बल डेकर वाले ट्रेनों का यह स्टेशन पहले जैसा ही लगा। हां, आस- पास और अधिक विस्तार हुआ है। चकाचौंध पहले से और अधिक बढ़ गई है। लंबी- चौड़ी पार्किंग के साथ वाकिंग ट्रेक बन गया है।  पहले यह वाकिंग ट्रेक नहीं था। सड़क वैसी ही चिकनी - चौड़ी है। पार्किंग वाले एरिया में पहले की तुलना में  काफी लंबा - चौड़ा पार्किंग स्थल बन गया है। मैं खड़े होकर आती- जाती डब्बल डेकर ट्रेनों को देखने लगा। हर प्रकार की सवारियां गेट से बाहर निकल रही हैं। कोई स्टेशन के अंदर की ओर जा रही हैं। गोरे - काले, भूरे - गेहुंए, मोटे - नाटे, लंबे- छोटे, चपटी नाक वाले- नुकीले नाक वाले। छोटी - छोटी आंखों वाले बड़ी -बड़ी आंख वाले। मतलब यह कहना मुश्किल कि किस देश अथवा कौन से महाद्वीप  के लोग हैं?  यहां के मूल निवासी तो हैं, परन्तु प्रवासी लोगों की आबादी भी कम नहीं है।

 रेलवे स्टेशन के पास एक बुजुर्ग दम्पति चेहरों पर थकान लिए प्रैम में एक छोटे बच्चे को बिठाए, प्रैम को धीरे- धीरे ठेलते स्टेशन की ओर जा रहे थे। महिला ने साडी के ऊपर स्वेटर पहन रखा था। पुरूष ने पेंट -शर्ट और जैकेट। सिर पर मंकी केप।  झुर्रियों से भरे सांवले चेहरे।  जाहिर था, भारतीय थे। बहु- बेटे या बेटे- बहु के पास अपने नाती- पोतो की देखभाल के लिए ही आए  होंगे? अच्छे जीवन की चाहत और महत्वाकांक्षाएं  क्या नहीं कराती हैं ?

रेलवे स्टेशन के भीतर गए बिना मैं वापस पैदल ही  फुटपाथ पर चलता रहा।  आज सुबह से ही  बारिश हो रही थी। पर शाम के समय अच्छी धूप निकल आई थी। ऐसे सुहाने मौसम का लाभ उठाते हुए मैं अकेला ही चलता रहा। ऐसे चलते -चलते मैं स्कोफिल्डस के बाहरी एरिया में आ गया। इस ओर नए आवासीय घर बन रहे हैं। कुछ बनकर तैयार हैं। कुछ आधे - अधूरे बने हैं, और अनेक अभी प्रारंभिक स्थिति- स्टेज में हैं। बन रहे मकानों को मैं ध्यान से देखता रहा। मुझे हिमाचल प्रदेश के काठ कुणी वाले घर ही लगे। सीमेंट, कंक्रीट और ईंट का बहुत कम उपयोग। लेकिन स्टील, लकड़ी का भरपूर प्रयोग। और फिर छप्पर अधिकतर स्लेट के पत्थर की तरह पकाई गई ईंटों जैसा। परन्तु ये न तो स्लेट हैं, ना ही ईंट। बल्कि ये मजबूत टाईल्स हैं, जो स्लेट या खपरैल जैसे दिखते हैं। अपने केरल में भी ऐसे ही घर दिखते हैं। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसे घर तो हैं ही।

 स्कोफिल्डस अधिकांशतः  आवासीय एरिया है। सभी दो तल्ले वाले एक जैसे घर। कुछ सिंगल स्टोरी वाले भी। परन्तु अधिकतर घरों का एरिया लंबा- चौड़ा। इस ओर कोई बहुमंजिला अपार्टमेंट नहीं है। मनुष्य की हर जरूरत , फिर चाहे वो भावात्मक या मानसिक ही  क्यों न हो, सब मौजूद हैं। मानसिक और धार्मिक सूकून देने वाले स्थान यथा मंदिर - मस्जिद, गुरुद्वारा -  गिरजाघर आस - पास ही हैं।  मस्जिद बातुल  - हुदा सबसे नजदीक है। चर्च "होप"और  गुरुद्वारा  पार्कली- ग्लेनवुड के निकट।  मुरुगन  मंदिर पारामट्टा में।  मुरुगन यानी हिंदुओं का भगवान कार्तिकेय का मंदिर।  र्स्कोफिल्डस सिडनी के उत्तर- पश्चिम दिशा में सिडनी  सेंट्रल बिजनेस डिस्ट्रिक्ट से लगभग 40-45  किलोमीटर दूर है। ध्यातव्य है, सिडनी सेंट्रल बिजनेस डिस्ट्रिक्ट  सिडनी का  प्रमुख मार्केट प्लेस अथवा महानगर का सबसे बड़ा केन्द्र है।  स्कोफिल्डस सिडनी  के मुख्य  इलाकों से काफी बाहर है। इसे उपनगर भी कह सकते हैं।

सुनसान से सड़कों को नापते, आस- पास का मुआइना करते, चमकते साइनबोर्ड़ो और दिशा संकेतों को पढ़ते हुए मैं बिना रूके चलता रहा। जहां से सड़क कहीं नहीं जा रही थी, मैं अब उस कोने में पहुंच गया था। सड़क के एंड प्वाइंट के दूसरी ओर खड़े दो बुजुर्ग मुझे दिख गए। वे दोनों भी टहलने के इरादे से ही आज थे शायद। दोनों ने मुझे दूसरे किनारे देखा, तो अभिवादन के तौर पर अपने दाएं बाजू उठा दिये। प्रत्युत्तर में मैंने भी अभिवादन स्वरूप अपना दायां हाथ ऊपर उठाकर हवा में लहरा दिया। बस, इतना भर! परन्तु न  तो वो मुझे जानते थे, ना ही मैं उनको। लेकिन वो दोनों भारतीय ही थे। किस प्रान्त या स्थान से, नहीं कह सकता ।

 अब मैं ऐसे ट्रेक पर चल रहा था, जिसके बाएं किनारे की ओर दूर -दूर तक लंबी- लंबी और हरी घास तथा युक्लिप्टिस के ऊंचे, घने पेड़ों से भरा बहुत बड़ा मैदान था। मुझे बताया गया था कि इस एरिया में कंगारू घास चरते या लोगों को देखते हुए अक्सर दिख जाते हैं। परन्तु मुझे फिलहाल कंगाल तो नहीं दिखे, अलबत्ता दाईं ओर सड़क पर इक्का- दुक्का कारें तेज रफ्तार में दौड़ती दिखती रहीं। पास पहुंचने पर वे सरपट निकल जाती।

 आज घर के पास वाले पार्क में भी चलते - चलते आ पहुंचा। काफी बड़े से उस पार्क के दो चक्कर लगाए। वो बुजुर्ग व्यक्ति जो लंगड़ाते हुए ट्रेक पर धीरे- धीरे चलते हुए मुझे अक्सर दिख जाता था, आज पार्क में लगे ट्रेडमिल पर वर्कआउट, साइकलिंग  करता हुआ दिखा। मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ, और अच्छा भी लगा। लग रहा था, आज भारतीयों से मिलने का दिन है। घर की ओर लौट रहा था, तो मेरे आगे दो बुजुर्ग महिलाएं धीरे -धीरे चल रही थीं। उनके पास पहुंचा, तो ठिकाना। सफेद बाल, भूरे गाल। सलवार - कुर्ते में। दुपट्टे डाले। माथे पर बड़ी -बड़ी लाल बिंदिया। पैरों में स्पोर्ट्स शूज़। मैं अपनी गति से चल रहा था।    

 एक ने  पीछे की ओर मुझे  देखा। मैंने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। आवाज सुनकर दूसरी ने भी मुड़कर देखा। उसको भी नमस्कार किया। दोनों के चेहरे खिल उठे थे। मुझे भी अच्छा लगा। आज बुधवार का दिन और चैत्र नवरात्रि का अष्टमी था। दोनों महिलाएं पंजाब से थीं। दोनों के आपस में पंजाबी में बातचीत करने के दो -चार शब्द मेरे कानों में पड़ गए थे।

 पैदल चलते, सड़कें, गलियां नापते, साईन बोर्ड़स पढ़ते हुए एक ही जैसे घरों, सड़क और गलियों को अब मैं काफी समझ और पहचान चुका था। घर पहुंचा। अपने फिटविट पर देखा। आज पिछले कल से भी अधिक समय हुआ था। पैदल दूरी भी पिछले कल की तुलना में अधिक तय की थी। आज लगभग सात किलोमीटर पैदल चला था।

 पैदल चलने और नई जगह, नया परिवेश को समझने- जानने को लेकर मुझे इसीलिए भुवनेश्वर की याद आ गई थी। मेरा मानना है कि आप जब पैदल चलते हैं, अथवा स्वयं गाड़ी ड्राइव करते हैं, तो अनजान जगहों में सड़क, गली, मोहल्ले जल्दी समझ आ जाते हैं। इस प्रकार घूमे- फिरे, देखे- समझे स्थान अथवा सड़कें- रास्ते कभी दिमाग से नहीं उतरते हैं। कभी स्मृति पटल से गायब नहीं होते हैं। बशर्ते कि उन में मानव अथवा प्रकृति द्वारा कुछ अधिक ही बदलाव नहीं किये गए हों।

 शेर सिंह, नाग मंदिर कालोनी, , शमशी, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश -175126.

अस्थायी पता:,10, वार्ड स्ट्रीट, स्कोफिल्डस, सिडनी, आस्ट्रेलिया