गिरीश पंकज,रायपुर 

राहुल सांकृत्यायन इकलौते ऐसे लेखक थे, जिन्हें 'महापंडित' कहा जाता है । उनके नाम के साथ अनेक विशेषण जुड़े हुए हैं।  जैसे उन्हें 'यात्रा- साहित्य के पितामह' के रूप में भी याद किया जाता है । वह तिब्बत गए और वहां से सैकड़ों पांडुलिपियां खच्चरों में लादकर लाए।  जो आज भी  पटना के संग्रहालय में सुरक्षित है।  150 से अधिक पुस्तकों के रचयिता राहुल जी की विशेषता यह थी कि वह घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे। उन्होंने तो 'घुमक्कड़ शास्त्र' और 'घुमक्क्ड स्वामी' नामक ग्रंथ भी लिख दिया । बचपन में उन्होंने एक बार  कहीं पढ़ा था , "सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहां / जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहां"। इस शेर को पढ़ने के बाद ही वे  घुमक्कड़ी की ओर मुड़ गए।  और ऐसे मुड़े कि आज दुनिया उन्हें यात्रा साहित्य के पितामह के रूप में याद करती है। अपनी ही तरह घुमक्क्ड़ी के लिए प्रेरित करते हुए उन्होंने एक जगह लिखा भी है, "कमर बांध लो भावी घुमक्कड़ो, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है ।" घूमना उनके लिए मनोरंजन का जरिया नहीं था वरन् लोक-जीवन को देखने की ललक ही परम उद्देश्य रहा। उन्होंने निरंतर यात्राएं की। कभी लद्दाख चले गए, कभी तिब्बत, कभी श्रीलंका , कभी रूस, तो कभी जापान। यूरोप, कोरिया, इंग्लैण्डईरान और सोवियत संघ की उनकी यात्राएं भी महत्वपूर्ण रही।  जहां भी गए, वहां के इतिहास को खंगाल डाला । वही यात्रा सार्थक कहलाएगी, जो हमें कुछ अनुभव दे । खा-पीकर अघाए लोगों की यात्राएँ तो केवल आत्मसुख है।  लेकिन राहुल सांकृत्यायन जी की यात्रा सोद्देश्य हुआ करती थी। लोक कल्याण के लिए।  हर यात्रा के बाद उनकी एक - न- एक पुस्तक  ज़रूर आती थी। उस पुस्तक से हिंदी जगत लाभान्वित हुआ करता था।  आज वह हमारे बीच नहीं है लेकिन उनका विपुल साहित्य हमें अपनी समझ विकसित करने में सहायक साबित होता है।

   यात्रा - साहित्य यानी  नए संसार से परिचय

 यात्रा - साहित्य दरअसल एक तरीके से नए संसार से परिचित कराने का माध्यम है. राहुल जी के के संपूर्ण लेखन पर अगर हम नजर डालते हैं तो पाते हैं कि उनका यात्रा -साहित्य काफी समृद्ध रहा. उनके यात्रा - साहित्य की संख्या काफी है । इनमें 'मेरी तिब्बत यात्रा',  'मेरी लद्दाख यात्रा',  'तिब्बत में सवा वर्ष', 'रूस में पच्चीस मास', 'किन्नर देश की ओर', 'चीन में क्या देखा', ' ईरान', 'जापान', और 'श्रीलंका' प्रमुख हैं।  इसके अलावा भी उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा करके वहां की विभूतियों के बारे में भी लेखन किया । उन्होंने कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओ त्से तुंग, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली, सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन, सिंहल के वीर पुरुषमहामानव बुद्धकप्तान लाल और सरदार पृथ्वी सिंह आदि पर भी जो रेखाचित्र लिखें, वे आज भी बड़े चाव से पढ़े जाते हैं।  राहुल जी के चार कहानी संग्रह भी हैं, 'सतमी के बच्चे', 'कनैला की कथा',  'वोल्गा से गंगा' और 'बहुरंगी मधुपुरी'.  उपन्यासों की संख्या भी कम नहीं है, बाईसवीं सदी, जीने के लिएसिंह सेनापति, राजस्थानी रनिवासदिवोदासविस्मृत यात्री, मधुर स्वप्न, भागो नहीं, दुनिया को बदलोऔर जय यौधेय आदि। 'वोल्गा से गंगा' नामक पुस्तक बहुत अधिक चर्चित हुई । राहुल जी की आत्मकथा 'मेरी जीवन यात्राभी  पढ़ने लायक है।  उनका समूचा लेखन यात्राओं के दौरान हुआ। हजारीबाग जेल में रहे तो 'दर्शन दिग्दर्शन' जैसी पुस्तक  लिख दी । इसके अलावा 'दक्खिनी हिंदी का व्याकरण',  'मध्य एशिया का इतिहास', 'ऋग्वेद आर्य' जैसी किताबें भी भारतीय-मनीषा को समझने के लिए पर्याप्त है। कुछ कृतियों के उन्होंने अनुवाद भी हिंदी में किए। उन्होंने लोक भाषाओं को भी खंगाला।  लोकगीतों पर भी खूब लिखा।  उनके कुछ चर्चित लेख इस प्रकार  हैं : हिंदी की मूल भाषा कौरवी बोली है, हिंदी लोक साहित्यउत्तर प्रदेश के लोक गीत, सिद्ध कवियों की भाषामहाकवि स्वयंभू , भारतेंदु हरिश्चंद्र और पुश्किन, हिंदी में परिभाषित शब्दों का निर्माण  जैसे उनके अनेक लेख आज भी हमारा ज्ञान बढ़ाते हैं । आचार्य रघुवीर जब हिंदी शब्दावली तैयार कर रहे थे तो अनेक कठिन शब्द भी वे गढ़ रहे थे । उस पर भी तब उन्होंने व्यंग्यात्मक लेख लिखा था। ये सारे लेख 'राहुल निबंधावली' में प्रकाशित हैं । यह पुस्तक आज मेरी धरोहर है। जब कभी मुझे कुछ संदर्भ देखने होते हैं, अपनी ज्ञान पिपासा शांत करनी होती है, तो इस पुस्तक को  जरूर पलटा लेता हूं।

जीवन भर यायावरी

राहुल सांकृत्यायन का जन्म 9 अप्रैल 1893 को आजमगढ़ जिले के गाँव पन्दहा  में हुआ था। बचपन में इनका नाम था केदारनाथ पांडेय। इनके पिता गोवर्धन पांडे कनैला गांव में निवास करते थे। इसलिए जीवन के प्रारंभिक काल में राहुल कनैला में ही रहे । मैं उनके बारे में पढ़ रहा था कि बचपन में एक बार भूलवश उनसे घी का बर्तन लुढ़क गया, इस कारण वे घबरा गए और पढ़ाई छोड़ कर घर से भाग खड़े हुए । घर से ऐसा भागे कि फिर से सीधे कोलकाता पहुंचे । वहां कहीं नौकरी की । उसके बाद जो यायावरी जीवन शुरू हुआ, तो अंतिम समय तक चलता रहा । बौद्ध धर्म से आकर्षित हुए तो बौद्ध भिक्षु बन गए । नाम मिला रामोदर साधु । फिर राजनीति में भी सक्रिय हुए।  देश की आजादी की लड़ाई में सक्रिय भागीदारी की । अनेक बार गिरफ्तार हुए और जेलों में रहकर भी उन्होंने निरंतर साहित्य सृजन किया । बौद्ध साहित्य का गहन अध्ययन किया। राहुल सांकृत्यायन 36 भाषाओं के ज्ञाता थे।  वह जहां भी जाते थे, उस क्षेत्र की भाषा पर अधिकार कायम कर लेते थे।  लेकिन उनका समूचा लेखन हिंदी में ही रहा क्योंकि वह यह मानते थे कि हिंदी ही इस देश में संवाद की एक सही भाषा बन सकती है।  वह कहते भी थे कि ''हिंदी ही इस देश की राष्ट्रभाषा बननी चाहिए।  राष्ट्रभाषा के बिना कोई भी राष्ट्र गूंगा होता है''.

दो जोड़ी धोती और दो वक्त का खाना

राहुल जी ने   केवल मिडिल स्कूल तक की पढाई की लेकिन  साबित करता है कि वे शैक्षणिक उपाधियों से परे थे।  उनकी प्रतिभा से प्रभावित हो कर नेहरू  जी  ने उस समय के शिक्षा मंत्री से कहा था कि इनको किसी विश्वविद्यालय का प्रोफेसर या कुलपति बना दिया जाए।   लेकिन  मंत्री ने इनकार कर दिया।  लेकिन श्रीलंका  के विद्यालंकार विश्वविद्यालय में इन्हे  दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर बना कर बुलाया गया।  जब राहुल जी से पूछा  गया कि ''आपका मानदेय क्या होगा'',  तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा था, ''दो समय का  खाना  और साल में दो जोड़ी धोती, बस '' इसी विश्वविद्यालय  ने उन्हें डी  लिट् की उपाधि  प्रदान की.  इनकी पुस्तक 'मध्य एशिया का इतिहास' को साहित्य अकादमी सम्मान भी मिला।  भारत सरकार ने इन्हें पद्म भूषण से नवाजा।  राहुल जी ने हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के लिए अपना जो अवदान किया  है, उसे हम भूल नहीं सकते। जीवन के अंतिम समय में  उन्हें भूलने की  बीमारी हो गई थी ।14 अप्रैल 1963 को दार्जिलिंग में उनका निधन हो गया ।

 कनैला में उनकी 125 वीं जयंती

आज भी जब कभी यात्रा - साहित्य की बात आती है , तो हम सब के जेहन में पहला नाम राहुल जी का ही उभरता है। हिंदी में स्तरीय यात्रा साहित्य की आज भी कमी है, इसकी कमी को दूर करने के लिए यह जरूरी है कि हमारे जो लेखक इधर-उधर की यात्राएं करते हैं, वे लौटने के बाद यात्रा -वृतांत जरूर लिखें।  मैंने भी विनम्रतापूर्वक कुछ कोशिश की है लेकिन वह कोशिश ऊंट के मुंह में जीरा की तरह ही है।  संयोग रहा कि 9 अप्रैल 2018 को मैं राहुल जी के गांव कनैला में उनकी 125 वीं जयंती मनाने के लिए एक वक्ता के रूप में शामिल हुआ था. उनके पौत्र मदन मोहन पांडेय ने आमंत्रित किया था।  गाँव  में हम लोग बाजे-गाजे के साथ निकले  और  चौराहे पर लगी राहुल जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया।  फिर लौट कर राहुल जी पर गोष्ठी की। वहां अनेक विचारकों ने राहुल जी से जुड़े संस्मरण सुनाए। कनैला गाँव यह सोच कर अभिभूत हो जाता है कि राहुल जी जैसे महापण्डित का बचपन कनैला में बीता।मज़े की बात वे अपने गाँव लौटे थे पचास साल बाद। कनैला में राहुल जी की जयंती के दौरान वहाँ  मुझे राहुल जी की पुत्री  जया  सांकृत्यायन के दर्शन  का सौभाग्य मिला. जया जी  देहरादून में रहती है।  पिता की जयंती मनाने पंदहा और कनैला गाँव आईं थी।   कनैला  में  रहते हुए मुझे लगा कि अब यात्रा - साहित्य की ओर भी ध्यान देना चाहिए।  उम्मीद करता हूं कि भविष्य में यात्रा - साहित्य के सृजन की  कुछ पृष्ठभूमि जरूर बनेगी।