समीक्षा : संजय शेफ़र्ड / नई दिल्ली

डॉ. यशोधरा भटनागर की पुस्तक पथ के पन्ने अपने शीर्षक की तरह ही पाठक को यात्रा के उन अप्रत्याशित पथों पर ले जाती है, जहाँ हर मोड़ पर इतिहास अपनी एक परत खोलता है और हर गली संस्कृति का कोई अनकहा गीत सुनाती है। यह पुस्तक किसी मार्गदर्शिका की तरह स्थल-परिचय देने के बजाय, उन यात्राओं की आत्मा पकड़ती है जहाँ मनुष्य अपनी धड़कनों, स्मृतियों और अनुभवों के साथ चलता है। एक लेखक की दृष्टि और एक यात्री की गंभीरता के सम्मिश्रण से रची गई यह पुस्तक आधुनिक हिंदी यात्रा साहित्य में अपनी अलग पहचान बनाती है।

पुस्तक का पहला पन्ना पंजाब की उस सीमावर्ती धरती से खुलता है, जहाँ इतिहास और वर्तमान का संवाद बहुत तेज़ है। अटारी बार्डर का वर्णन यहाँ की हवा में है एक जुनून के माध्यम से केवल देशभक्ति के प्रदर्शन की ओर संकेत नहीं करता बल्कि उस सामूहिक ऊर्जा की ओर इशारा करता है जिसके सहारे एक राष्ट्र अपनी पहचान गढ़ता है। स्वर्ण मंदिर और जलियाँवाला बाग की यात्राएँ, वीरता और आघात, इन दो ध्रुवों के बीच झूलती भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसी अध्याय में 'साड्डा पिंड' जैसा अनुभव, पंजाब की ग्रामीण संस्कृति के स्वाद, गंध और रंगों को संजोते हुए पाठक को यह अहसास दिलाता है कि यात्रा सिर्फ देखने का नहीं, अनुभव का कर्म है। नए साल के अवसर पर आग के घेरे में बैठकर जीवन का उत्सव मनाना, यात्रा को उत्सव की तरह जीने का सुंदर उपमान देता है।

दूसरा पन्ना हमें उदयपुर ले जाता है, जिसे डॉ यशोधरा भटनागर राजस्थान का "कंठहार" कहती हैं। यह गहना, जिसे इतिहास ने अपने हाथों से तराशा है, आज भी वैभव और उदात्तता के संगम की तरह चमकता है। इस अध्याय में भटनागर अपने कथन को जल, पत्थर और रोशनी के बिम्बों से सजाती हैं। झीलों के शहर में तैरती हवेलियों के प्रतिमान, सूर्यास्त के रंग और पगडंडियों पर बिखरी राजपूताना की स्मृतियाँ। ये सब मिलकर एक ऐसी दृश्यावली रचते हैं जो पर्यटक को यात्री में बदल देती है।

तीसरा पन्ना नाथुला और कंचनजंगा के विराट हिम-प्रहरी की ओर ले जाता है। यहाँ प्रकृति भू-दृश्य होने से अधिक, एक आत्मिक अनुभव बन जाती है। ऊँचाई, विरल हवा, और सहमे हुए बादल। इन सबके बीच लेखक का मन विस्मय और विनम्रता के बीच घूमता है। इस अध्याय में हिमालय किसी पोस्टकार्ड जैसा नहीं बल्कि एक जीवित पात्र की तरह उभरता है, जो अपने मौन में भी अडिग, विस्मयकारी और रहस्यमय है।

चौथा पन्ना 'देवभूमि हिमाचल' है, जो उत्तर भारत की आध्यात्मिक चेतना का केंद्र कहा जा सकता है। लेखिका हिमाचल को सिर्फ मंदिरों की भूमि के रूप में नहीं बल्कि मनुष्य, प्रकृति और विश्वास के त्रिकोण के रूप में देखती हैं। लोक कथाएँ, हिमालयी मानवीय सरलता और घाटियों में तैरती धुंध। ये सब मिलकर एक ऐसा विस्तार रचते हैं जो पाठक को स्वयं यात्रा पर निकल पड़ने की बेचैनी देता है।

पाँचवाँ पन्ना झाँसी के किले और इतिहास की स्मृतियों से भरपूर है। बुंदेले हरबोलों की परंपरा और रानी लक्ष्मीबाई के साहस का स्मरण करते हुए लेखिका यह महसूस कराती हैं कि किसी स्थान का महत्त्व सिर्फ भूगोल में नहीं बल्कि उन कहानियों में है जिन्हें उसने पीढ़ियों तक संरक्षित रखा। झाँसी यहाँ इतिहास की नंगी आग नहीं, बल्कि उस अधूरे संघर्ष की गूँज है जिसके कारण भारत ने अपने सपनों की कीमत चुकाई।

छठा पन्ना मध्यप्रदेश के अजब-गजब संसार में ले जाता है। जहाँ पहाड़, झीलें, जंगल, मंदिर, वस्त्र-कला, लोक-स्मृति, सब एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। पचमढ़ी का प्राकृतिक सौंदर्य सौंदर्य मणि के रूप में, चंदेरी की वस्त्र-कला इतिहास और सौंदर्य की परिचारिका बनकर, दतिया की वास्तुकला श्रद्धा और वैभव के मेल के रूप में, और ओरछा की धरोहर विरासत की जिंदगी का प्रमाण बनकर सामने आती हैं। यहाँ यात्रा केवल दृश्यों से संचालित नहीं, बल्कि भारतीय स्मृति-परंपरा के सूक्ष्म धागों से बुनी जाती है। संस्कारधानी जबलपुर और पातालपानी कालाकुंड का उल्लेख पुस्तक को भौगोलिक विविधता के साथ-साथ अनुभवात्मक संतुलन भी देता है।

पथ के पन्ने की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है, इसका आत्मीय लेखन। इसमें वह भावुकता नहीं जो यात्रा-वृतांत को निजी डायरी बना दे और न ही वह सूखा वर्णन जो उसे पर्यटन-पैम्फलेट बना दे। डॉ यशोधरा भटनागर अपनी भाषा में कविता का स्पर्श रखती हैं पर आत्म-अनुभूति की गहराई में उतरते हुए कभी भी शब्दों को सौंदर्य की अतिशयोक्ति में नहीं बहने देतीं।

इस पुस्तक में यात्रा, इतिहास, लोक-संस्कृति और मनुष्य की जिज्ञासा, चारों का संतुलित मेल है। यह यात्रा-साहित्य का वह खंड है जो केवल कहाँ जाओ नहीं, बल्कि क्यों जाओ का उत्तर देता है। पुस्तक भारत की विविधता को विस्तृत मानचित्र की तरह प्रस्तुत नहीं करती बल्कि छोटे-छोटे, अनुभव-सिक्त टुकड़ों की तरह सजाती है। हर पन्ना एक प्रदेश, हर प्रदेश एक स्मृति और हर स्मृति एक मनुष्य के भीतर की यात्रा बन जाती है।

आधुनिक हिंदी साहित्य में अक्सर यात्रा-वृतांत सूचना के बोझ या काव्यात्मक उन्माद की अति से भारी हो जाते हैं। डॉ. यशोधरा भटनागर इस दोहरे खतरे से निकलकर एक संतुलित और सहज शैली का निर्माण करती हैं। उनके यहाँ यात्रा केवल बाहरी भूगोल का विस्तार नहीं बल्कि आत्म-परिपक्वता का मार्ग भी है।

अंततः पथ के पन्ने एक ऐसी पुस्तक है, जिसे पढ़ने के बाद पाठक के भीतर यात्रा का आग्रह जन्म लेता है। यह आग्रह सैर का नहीं, संवाद का है। यह पुस्तक बताती है कि रास्ते सिर्फ शहरों को नहीं जोड़ते, वे मनुष्यों को जोड़ते हैं; और यात्रा केवल दूरी तय करना नहीं, स्वयं को खोजना है। यह पुस्तक उन पाठकों के लिए विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है जो साहित्य में यात्रा के माध्यम से भारतीय संस्कृति, इतिहास और मानवीय अनुभव की परतों को खोलना और लिखना चाहते हैं। संक्षेप में कहें तो यह पुस्तक यात्रा का वृत्त नहीं, यात्रा का भाव है। पथ नहीं, पथ के पन्नों में छिपे मनुष्य की खोज है।

 पुस्तक  : पथ के पन्ने लेखिका : डॉ. यशोधरा भटनागर / प्रकाशन : इंडिया नेटबुक प्राइवेट लिमिटेड