जीवन की निरंतरता तभी बनी रहती है जब मनुष्य चलायमान हो। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'अरे यायावर रहेगा याद' में घुमक्कड़ी को एक साधना माना है। उनके अनुसार, जिस तरह जल रुक जाने पर मैला हो जाता है, उसी प्रकार विचार और जीवन भी यदि एक जगह ठहर जाएँ, तो उनमें रूढ़िवादिता और जड़ता आ जाती है। गतिशीलता व्यक्ति को नए सत्य से परिचित कराती है और उसे 'स्व' के घेरे से बाहर निकालकर 'सर्व' से जोड़ती है।अज्ञेय ने सत्य ही कहा है- 'बहता पानी निर्मल'। जिस प्रकार जल की शुद्धता और निर्मलता को बनाए रखने के लिए उसका प्रवाह आवश्यक है, ठीक वैसे ही जीवन की सार्थकता भी निरंतर गतिशीलता में निहित है। गतिशीलता जीवन को ऊर्जा प्रदान करती है, जबकि ठहराव का अर्थ है जीवन के वास्तविक सुख और विकास से वंचित हो जाना। प्रकृति का कोई भी तत्व स्थिर नहीं है; यहाँ तक कि पृथ्वी स्वयं भी निरंतर घूर्णन कर रही है। पृथ्वी की अस्थिरता उसके अस्तित्व के लिए विनाशकारी हो सकती है। मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर और सीमित है; इतने अल्प समय में एक ही स्थान पर रुककर जीवन के व्यापक आनंद की अनुभूति नहीं की जा सकती। राहुल सांकृत्यायन ने तो 'अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा' जैसा शास्त्र ही रच डाला। उनका मानना था कि घुमक्कड़ी ही वह माध्यम है जिससे मनुष्य दुनिया के दुख-दर्द और संस्कृति को समझ सकता है। उन्होंने तिब्बत से लेकर रूस तक की जो दुर्गम यात्राएँ कीं, वे सैर-सपाटा के माध्यम से ज्ञान की खोज थीं।विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि ब्रह्मांड का प्रत्येक अणु निरंतर स्पंदित और गतिशील है। यदि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमना बंद कर दे, तो जीवन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। अतः मनुष्य के लिए भी वैचारिक और शारीरिक गतिशीलता अनिवार्य है।
राहुल सांकृत्यायन और अज्ञेय जैसे मनीषियों ने जीवन को कभी ठहरने नहीं दिया और आजीवन यायावरी करते हुए अनुभव संचित किए। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए माला वर्मा ने वर्ष 1998 से जो यात्रा शुरू की थी, वह आज भी अनवरत जारी है। इसी निरंतरता का प्रतिफल उनकी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'भारत और पड़ोसी देशों की यात्रा' है। यद्यपि ये यात्राएँ पुरानी हैं, किंतु अपने अनुभवों को साझा करने का अवसर उन्हें पुस्तक के प्रकाशन के उपरांत ही प्राप्त हुआ है।
माला वर्मा की यह पुस्तक भारत, नेपाल और भूटान के लिए सांस्कृतिक सेतु का कार्य करती है। वर्ष 1998से शुरू हुई उनकी यह यात्रा वर्तमान संदर्भ में इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, भूटान, श्रीलंका आदि के साथ हमारे संबंधकूटनीतिक के साथ भावनात्मक और ऐतिहासिक भी हैं। अपनी पुरानी स्मृतियों को अब साझा कर उन्होंने पाठकों को उन सीमाओं के पार के जनजीवन का दर्शन कराया है, जिनसे हम अक्सर अनभिज्ञ रहते हैं।यात्रा धरा की दूरी नापना भर नहीं है, यह स्वयं को खोजने की एक साधना है। जब एक यात्री एक स्थान से दूसरे स्थान जाता है, तो वह दृश्य और अपनी दृष्टि बदलता है। माला वर्मा की लेखनी उसी 'यायावरी' परंपरा की एक महत्वपूर्ण कड़ी है जो हमें घर बैठे ही दूरस्थ संस्कृतियों से साक्षात्कार कराती है।
माला वर्मा की इस पुस्तकके अंतर्गत गुजरात यात्रा का संस्मरण १९ नवंबर १९९८ से २४ नवंबर १९९८ के मध्य की स्मृतियों को आलोकित करता है। लेखिका ने अपने पति के साथ एक ट्रेवल एजेंसी के माध्यम से इस सांस्कृतिक यात्रा का आगाज़ कोलकाता के दमदम हवाई अड्डे से अहमदाबाद की उड़ान भरकर किया। उनके लिए यह पहली हवाई यात्रा थी, जहाँ ३२,००० फीट की ऊँचाई से बादलों का दृश्य उन्हें "संसार की सारी रुई के जमाव" जैसा अलौकिक प्रतीत हुआ। अहमदाबाद पहुँचकर उन्होंने इस ऐतिहासिक शहर के गौरवशाली अतीत को करीब से देखा, जिसे १४११ में सुल्तान अहमद शाह ने 'असावल' से 'अहमदाबाद' के रूप में पुनर्जीवित किया था। यहाँ उन्होंने २६० स्तंभों पर टिकी भव्य जुम्मा मस्जिद, रहस्यमयी झूलती मीनारें और साबरमती के तट पर स्थितगांधी आश्रमका भ्रमण किया, जहाँ से कभी दांडी यात्रा की नींव रखी गई थी।
२१ नवंबर को लेखिका सौराष्ट्र मेल के माध्यम से राष्ट्रपिता की जन्मस्थली पोरबंदर पहुँचीं। यहाँ गांधी जी के पैतृक घर ‘अब संग्रहालय के रूप में बदल चुका है’ में उनके जन्म स्थान को 'स्वस्तिक' से चिह्नित देख उन्हें असीम शांति मिली। ७९ फीट ऊँचा कीर्ति मंदिर, जो गांधी जी की ७९ वर्ष की आयु का प्रतीक है, स्थापत्य का एक सुंदर नमूना है। हालाँकि, अरब सागर के तट पर सूर्यास्त के मनमोहक दृश्य के साथ-साथ मछलियों की तीखी दुर्गंध ने उनके अनुभव में एक मिश्रित अहसास भर दिया। यात्रा का अगला महत्वपूर्ण पड़ावसोमनाथ मंदिरथा, जहाँ लेखिका ने इतिहास के पन्नों को पलटते हुए महमूद गजनवी और औरंगजेब के आक्रमणों और १९५० में मंदिर के भव्य नवनिर्माण की गाथा को महसूस किया। इसी क्षेत्र के प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन के प्रसंग ने उन्हें भारतीय दर्शन की नश्वरता से परिचित कराया।
२३ नवंबर को ओखा से अरब सागर की लहरों को पार कर लेखिकाभेंट द्वारिकापहुँचीं, जिसे श्रीकृष्ण का वास्तविक निवास स्थान माना जाता है। यहाँ का प्राचीन द्वारिकाधीश मंदिर अपनी ६० स्तंभों पर आधारित सूक्ष्म नक्काशी के लिए बेजोड़ है। इस आध्यात्मिक अनुभव के बीच लेखिका ने एक साहसिक सामाजिक टिप्पणी भी की; उन्होंने मंदिरों में व्याप्त पंडे-पुजारियों के "व्यापारिक रवैये" और दान-दक्षिणा के नाम पर तय की गई दरों पर अपनी गहरी पीड़ा और नाराजगी व्यक्त की। यात्रा के अगले पड़ाव के लिए २४ नवंबर को वापस अहमदाबाद लौटीं और वहां से राजस्थान के लिए प्रस्थान किया। उन्होंने अनुभव किया कि भारत की प्राचीन कला और संस्कृति की गहराई को समझने के लिए प्रत्येक भारतीय को इन पावन तीर्थों का दर्शन एक खोजी दृष्टि के साथ अवश्य करना चाहिए।
२५ नवंबर १९९८ को गुजरात की सीमा पार कर लेखिका ने अरावली की पहाड़ियों में स्थितमाउंट आबूसे राजस्थान के इस सफर का आगाज़ किया। यहाँ उन्होंने नक्की झील के शांत जल और उससे जुड़ी पौराणिक कथाओं का आनंद लिया, साथ ही दिलवाड़ा के जैन मंदिरों में श्वेत संगमरमर पर उकेरी गई बेजोड़ सूक्ष्म नक्काशी को देख वे अचंभित रह गईं। २७ से २८ नवंबर के बीच लेखिका 'स्वर्ण नगरी' जैसलमेरकी साक्षी बनीं, जहाँ उन्होंने त्रिकुट पहाड़ी पर स्थित सोनार किले की भव्यता और पटवों व नथमल की हवेलियों के बारीक शिल्प को निहारा। सम के रेतीले धोरों पर ऊँट की सवारी और सुनहरे सूर्यास्त के अनुभव ने उनकी यायावरी में प्रकृति के अनूठे रंग भर दिए।
यात्रा के अगले पड़ाव में लेखिका ने २९ नवंबर को 'सूर्य नगरी' जोधपुरका भ्रमण किया। यहाँ १२० मीटर ऊँची पहाड़ी पर स्थित अजेय मेहरानगढ़ किला और महाराजा उम्मेद सिंह द्वारा अकाल राहत के लिए निर्मित विशाल उम्मेद भवन पैलेस उनके लिए विशेष आकर्षण के केंद्र रहे। जोधपुर के नीले घरों का विहंगम दृश्य देखते हुए वे ३० नवंबर को झीलों की नगरीउदयपुरपहुँचीं। पिछोला झील के तट पर स्थित भव्य सिटी पैलेस और जल के बीचों-बीच बने लेक पैलेस ने उन्हें मंत्रमुग्ध कर दिया। यहीं उन्होंने भारतीय लोक कला मंडल में राजस्थान के पारंपरिक कठपुतली नृत्य का आनंद भी लिया। २ दिसंबर को लेखिका शौर्य की भूमिचित्तौड़गढ़पहुँचीं, जहाँ उन्होंने महाराणा कुंभा द्वारा निर्मित विजय स्तंभ और रानी पद्मिनी के महल के दर्पण में इतिहास के बलिदान और जौहर की गाथाओं को महसूस किया।
राजस्थान यात्रा के अंतिम चरण में लेखिका ने धर्म और संस्कृति के संगम को देखा। ३ दिसंबर कोअजमेर शरीफ़में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर माथा टेकने के बाद वे पवित्रपुष्करझील और ब्रह्मा जी के एकमात्र मंदिर के दर्शन करने गईं। यात्रा का समापन 'गुलाबी नगर' जयपुरके साथ हुआ, जहाँ ४ और ५ दिसंबर को उन्होंने महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा बसाई गई योजनाबद्ध नगरी, झरोखों से सुसज्जित हवामहल, जंतर-मंतर की खगोलीय वेधशाला और आमेर के किले में शीशमहल की अद्वितीय कांच की कारीगरी का अवलोकन किया। अंततः, ५ दिसंबर १९९८ को जयपुर से हवाई मार्ग द्वारा कोलकाता वापसी के साथ उनकी यह सफल राजस्थान यात्रा संपन्न हुई, जिसने भारत के गौरवशाली अतीत और स्थापत्य कला के प्रति उनकी श्रद्धा को और अधिक प्रगाढ़ कर दिया।
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| सात समंदर पार लेखिका पत्रिका के साथ |
इस पुस्तक के अनुसार, उनकी वैष्णो देवी की यात्रा १७ अप्रैल १९९८ को सियालदह स्टेशन से जम्मू तवी एक्सप्रेस के माध्यम से शुरू हुई।रेल यात्रा के दौरान उन्होंने पश्चिम बंगाल की हरियाली, बिहार की पारसनाथ पहाड़ियों, उत्तर प्रदेश के अयोध्या-लखनऊ और पंजाब के जालंधर-पठानकोट के दृश्यों का आनंद लिया।रविवार दोपहर १२ बजे जम्मू पहुँचने के बाद वे बस से कटरा पहुँचीं और सोमवार रात १० बजे १३ किलोमीटर लंबी चढ़ाई घोड़े के माध्यम से शुरू की। "जय माता दी" के जयकारों और सुरक्षाकर्मियों की उपस्थिति के बीच रात २ बजे भवन पहुँचकर उन्होंने मंदिर के गर्भगृह में स्थित महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती की तीन पिंडियों के दर्शन किए।संगमरमर से निर्मित आधुनिक गुफा में दर्शन के उपरांत वे पैदल नीचे उतरीं, हालांकि ११ किलोमीटर की पैदल यात्रा के बाद अत्यधिक थकान के कारण शेष ३ किलोमीटर का सफर उन्होंने घोड़े से तय किया।
माता के दर्शन के उपरांत लेखिका ने इस यात्रा की कड़ी में ज्वालामुखी मंदिर, चामुंडा देवी, कांगड़ा घाटी और मेक्लाडगंज स्थित दलाई लामा के निवास का भ्रमण किया।इसके बाद वे डलहौजी और 'मिनी स्विट्जरलैंड' के नाम से विख्यात खजियार पहुँचीं, जहाँ उन्होंने बर्फ और देवदार के वनों का लुत्फ उठाया।यात्रा के अंतिम पड़ाव में उन्होंने चंबा के प्राचीन मंदिरों और अमृतसर के स्वर्ण मंदिर एवं जलियांवाला बाग की ऐतिहासिक स्मृतियों को अपने हृदय में संजोया।अंततः २८ अप्रैल १९९८ को यह अत्यंत सफल और सुखद यात्रा हावड़ा स्टेशन पर संपन्न हुई, जिसने लेखिका को भारत की विविधता और एकता का साक्षात अनुभव कराया।
इस पुस्तक के अनुसार, उनकी नेपाल यात्रा का शुभारंभ २४ अप्रैल १९९९ को कोलकाता से काठमांडू की हवाई उड़ान के साथ हुआ। ३२,००० फीट की ऊँचाई से हिमालय की धवल चोटियों का विहंगम दृश्य देखते हुए वे काठमांडू पहुँचीं, जहाँ उन्होंने बागमती नदी के तट पर स्थित प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर के दर्शन किए। हालाँकि, मंदिर की भव्यता के बीच उन्होंने वहाँ व्याप्त गंदगी पर अपनी चिंता भी व्यक्त की। अपनी इस यात्रा के दौरान उन्होंने स्वयंभूनाथ स्तूप, बूढ़ा नीलकंठ, हनुमान ढोका और एक ही पेड़ की लकड़ी से बने ऐतिहासिक काष्ठमंडप मंदिर का भ्रमण किया। इसके साथ ही, उन्होंने विश्व धरोहर स्थल भक्तपुर और पाटन की कलात्मक सुंदरता, पचपन खिड़कियों वाले महल और शिखर शैली के मंदिरों को करीब से देखा।
काठमांडू के उपरांत लेखिका ने केबल कार के जरिए ऊँची पहाड़ी पर स्थित मनकामना देवी के दर्शन किए और पोखरा की यात्रा की। पोखरा में होटल की खिड़की से अन्नपूर्णा रेंज और मच्छापुचरी की बर्फीली चोटियों का नजारा लेते हुए उन्होंने फेवा झील में नौकायन, देवी'ज जलप्रपात और गुप्तेश्वर जैसी प्राकृतिक गुफाओं का आनंद लिया। यात्रा के अंतिम पड़ावों में उन्होंने काठमांडू के कैसीनो और नगरकोट की पहाड़ियों से सूर्योदय एवं सूर्यास्त के अद्भुत दृश्यों का अनुभव किया। अंततः १ मई १९९९ को वे कोलकाता वापस लौट आईं। लेखिका ने अपने संस्मरण में नेपाल को एक अत्यंत मिलनसार और प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण देश बताया है, जहाँ की सांस्कृतिक समृद्धि हर भारतीय पर्यटक को अपनी ओर आकर्षित करती है।
भूटान-यात्रालेखिका की यह यात्रा ७ अप्रैल २००० को सियालदह स्टेशन से 'तीस्ता तोर्षा एक्सप्रेस' के माध्यम से शुरू हुई, जो भौगोलिक सीमाओं को लांघने का प्रयास था, एक भिन्न संस्कृति और अनुशासित जीवनशैली से साक्षात्कार करने का अवसर था। जयगाँव पहुँचने पर लेखिका ने भारत और भूटान की सीमाओं के बीच के विरोधाभास को बहुत बारीकी से महसूस किया; जहाँ जयगाँव की गलियाँ गंदगी से जूझ रही थीं, वहीं भूटान का प्रवेश द्वार 'फुंत्शोलिंग' अपनी स्वच्छता से उन्हें चकित कर गया। यद्यपि ९ अप्रैल को परमिट संबंधी तकनीकी बाधा के कारण उनकी थिम्पू की यात्रा एक दिन के लिए टल गई, लेकिन इस अंतराल का उपयोग उन्होंने जल्दापाड़ा नेशनल पार्क और तोर्षा टी गार्डन की प्राकृतिक सुंदरता को निहारने में किया, जो एक यात्री के धैर्य और सकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाता है।
१० अप्रैल को फुंत्शोलिंग से थिम्पू की १७१ किलोमीटर की यात्रा के दौरान लेखिका ने 'चूखा' पनबिजली परियोजना जैसे महत्वपूर्ण तकनीकी विकास को देखा, जो भारत और भूटान के सहयोग का प्रतीक है। थिम्पू पहुँचकर उन्होंने वहाँ की राजसी व्यवस्था और जनता के मन में राजा के प्रति अगाध श्रद्धा का अवलोकन किया। उन्होंने पाया कि भूटानअपनी 'जोंखा' भाषा और पारंपरिक वेशभूषा 'खो' और 'किरा' के प्रति अत्यंत सजग है। थिम्पू की स्वच्छता, प्रदूषण मुक्त वातावरण और हर १०-२० मीटर पर रखे कूड़ेदान लेखिका के लिए एक ऐसा मानवीय अनुभव था, जो भारतीय नागरिक बोध के लिए एक संदेश की तरह उभरता है। यहाँ की एक और विशेषता भारतीय मुद्रा की सुलभ स्वीकार्यता रही, जिसने लेखिका को विदेशी भूमि पर भी अपनेपन का अहसास कराया।
यात्रा का अगला महत्वपूर्ण पड़ाव १०,००० फीट की ऊँचाई पर स्थित 'दोचुला पास' और 'पारो घाटी' था। दोचुला की धुंध और वहाँ लहराते सैकड़ों धार्मिक झंडों ने जहाँ एक आध्यात्मिक वातावरण रचा, वहीं पारो की नैसर्गिक सुंदरता ने उसे लेखिका की नज़रों में 'भूटान का स्विट्जरलैंड' बना दिया। पारो में उन्होंने 'पारो चू' नदी के किनारे भोजन का आनंद लिया और 'दुपचु जोंग' के प्राचीन खंडहरों की चढ़ाई कर इतिहास को महसूस किया। १३ अप्रैल को वापस लौटते समय 'टौकटुखा चू' झरना और 'खरबंदी बौद्ध विहार' के दर्शन ने उनकी यादों में एक अमिट छाप छोड़ी। १५ अप्रैल २००० को हाजीनगर वापसी के साथ संपन्न हुई यहयात्रा लेखिका के लिएएक ऐसे देश का अनुभव थी जिसने आधुनिकता और परंपरा के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण के बीच एक अद्भुत संतुलन बिठा रखा है।
माला वर्मा की पुस्तक 'भारत और पड़ोसी देशों की यात्रा' भौगोलिक दूरियों को नापने का विवरण है, यह लेखिका के व्यक्तिगत अनुभवों, दार्शनिक चिंतन और तीक्ष्ण सामाजिक टिप्पणियों का आँखों देखा प्रमाण है। लेखिका ने अपनी यात्राओं के माध्यम से 'बाहरी संसार' को देखते हुए 'आंतरिक मन' की परतों को भी उकेरा है। उनके अनुभवों में जहाँ एक ओर पहली हवाई यात्रा का कौतूहल और बादलों के ऊपर "रुई के जमाव" जैसा विस्मयकारी दृश्य है, वहीं दूसरी ओर शारीरिक कष्ट और भय की स्पष्ट स्वीकारोक्ति भी है। विशेषकर वैष्णो देवी की तेरह किलोमीटर लंबी दुर्गम चढ़ाई के बाद "टांगों का जवाब दे जाना" उनके शारीरिक संघर्ष और यायावरी के प्रति अटूट निष्ठा को दर्शाता है। वे अज्ञेय के 'बहता पानी निर्मल' दर्शन में अटूट विश्वास रखती हैं, जिसके अनुसार गतिशीलता ही जीवन की सार्थकता और ऊर्जा का एकमात्र स्रोत है।
लेखिका की दृष्टि जितनी संवेदनशील है, उतनी ही वे सामाजिक और धार्मिक विसंगतियों के प्रति मुखर भी हैं। उन्होंने तीर्थ स्थलों पर व्याप्त "धर्म के बाजारीकरण"परगहरा प्रहार किया है। द्वारिका जैसे पवित्र स्थलों पर ब्राह्मणों द्वारा पूजा की दरें तय करना और दान-दक्षिणा के लिए श्रद्धालुओं पर दबाव बनाना उन्हें व्यथित और क्रोधित करता है। इसी प्रकार, वे पशुपतिनाथ मंदिर और भारतीय घाटों पर व्याप्त गंदगी को देखकर प्रशासनिक व्यवस्था और जन-मानस की उदासीनता पर तीखी टिप्पणी करती हैं। उनके अनुभवों का एक रोचक और मर्मस्पर्शी पक्ष "मानवीय संवेदनाओं"से जुड़ा है। चलती ट्रेन में एक छोटे बालक की गायन प्रतिभा को देखकर उसके भविष्य के प्रति उनकी चिंता उनकी ममतामयी दृष्टि का परिचय देती है। वहीं, नेपाल और भूटान में भारतीय मूल के लोगों के साथ भोजपुरी में संवाद करना और उनके घरों में आत्मीय सत्कार पाना उनके लिए सरहदों के पार 'अपनापन' खोजने जैसा सुखद अनुभव रहा।
अंततः, लेखिका का यह संस्मरण ऐतिहासिक गौरव और प्राकृतिक शांति के बीच एक संतुलन स्थापित करता है। चित्तौड़गढ़ के किले में उन्हें हवाओं के बीच तलवारों की गूँज और बलिदान की कहानियाँ महसूस होती हैं, तो दिलवाड़ा के मंदिरों और आमेर के शीशमहल की स्थापत्य कला उन्हें अवाक कर देती है। उनके लिए जैसलमेर के रेतीले धोरों का सूर्यास्त अलौकिक शांति का प्रतीक है। हालाँकि, वे भूटान की राजशाही और वहां के सीमित संचार साधनों पर सवाल उठाकर अपनी आधुनिक और प्रगतिशील सोच का भी परिचय देती हैं। लेखिका का यह अनुभव 'प्रसन्नता' और 'पीड़ा' का एक ऐसा संगम हैं, जहाँ वे प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता और कलात्मक श्रेष्ठता को देखकर विस्मित होती हैं, किंतु सामाजिक पिछड़ेपन, भ्रष्टाचार और व्यवस्था की खामियों को देखकर उतनी ही व्याकुल भी हो उठती हैं।
यह पुस्तक सुंदर दृश्यों का संकलन के साथ एक यात्री द्वारा झेली जाने वाली वास्तविक कठिनाइयों का ब्यौरा है। लेखिका ने अत्यंत ईमानदारी से स्वीकार किया है कि यायावरी आनंद का विषय के साथ कई शारीरिक और मानसिक चुनौतियों की परीक्षा भी है। यात्रा के दौरान उन्हें ऊँचाई और वायुदाब के कारण होने वाले सिरदर्द से लेकर वैष्णो देवी की तेरह किलोमीटर लंबी थकाऊ चढ़ाई जैसी शारीरिक बाधाओं का सामना करना पड़ा। अपरिचित सवारियों, जैसे ऊँट या घोड़े पर बैठने का डर और उससे होने वाला शारीरिक कष्ट उनके संघर्ष को और अधिक यथार्थवादी बनाता है। इसके साथ ही, परिवहन की अव्यवस्था, जैसे उड़ानों में देरी और पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन के कारण घंटों रास्तों का जाम होना, एक यात्री के धैर्य की कड़ी परीक्षा लेते हैं।
लेखिका ने बुनियादी ढाँचे और स्वच्छता की समस्याओं पर भी तीखा प्रहार किया है। जहाँ एक ओर वे भूटान की स्वच्छता की प्रशंसा करती हैं, वहीं दूसरी ओर भारतीय सीमा पर स्थित जयगाँव की गंदगी और प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों जैसे सोमनाथ और पशुपतिनाथ में व्याप्त कुप्रबंधन और दुर्गंध पर उनकी व्यथा स्पष्ट झलकती है। होटलों की अव्यवस्था और पर्यटन स्थलों पर फैला प्लास्टिक प्रदूषण उनके पर्यावरण के प्रति जागरूक मन को कचोटता है। सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर, लेखिका ने "धर्म के बाजारीकरण"को एक बड़ी चुनौती के रूप में चित्रित किया है, जहाँ द्वारिका जैसे पवित्र स्थानों पर पंडितों द्वारा पूजा के नाम पर तय दरों की वसूली उनके आध्यात्मिक अनुभव में बाधा डालती है। इसके अतिरिक्त, पड़ोसी देशों में पर्यटकों से की जाने वाली अधिक वसूली और संचार के सीमित साधनों जैसे भूटान में कॉल करने की समस्याने उनकी यात्रा को और चुनौतीपूर्ण बनाया।
प्रशासनिक और सुरक्षा संबंधी बाधाओं ने भी लेखिका की राह में कई रोड़े अटकाए। भूटान प्रवेश के लिए परमिट और दस्तावेजों की जटिल प्रक्रिया के कारण उन्हें अपनी यात्रा बीच में ही रोककर जयगाँव में प्रतीक्षा करनी पड़ी। वहीं, कश्मीर यात्रा के दौरान आतंकवाद और बंद की स्थिति ने उनकी योजनाओं को बाधित किया। मन में असुरक्षा का भाव पैदा किया। लेखिका के अनुसार एक सफल यात्रा गंतव्य तक पहुँचने का नाम नहीं है, इन तमाम चुनौतियों से जूझते हुए अपने गंतव्य और स्वयं के भीतर की शक्ति को खोजने की प्रक्रिया है।
लेखिका के अनुसार, इस पूरी यात्रा का सबसे बड़ा दार्शनिक निष्कर्ष 'गतिशीलता' है। अज्ञेय के 'बहता पानी निर्मल' के सिद्धांत को अपनाते हुए वे स्पष्ट करती हैं कि जिस प्रकार ठहराव जल को दूषित कर देता है, उसी प्रकार जीवन में भी एक ही स्थान पर रुक जाना बौद्धिक और आध्यात्मिक जड़ता का कारण बनता है। उनके लिए यात्राएं 'स्व' की खोज का एक माध्यम हैं, जो मनुष्य को निरंतर ऊर्जा और नए अनुभवों से सराबोर रखती हैं।सांस्कृतिक दृष्टिकोण से, लेखिका ने यह महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला है कि राजनीतिक सीमाएँ भले ही देशों को बाँटती हों, लेकिन भारत, नेपाल और भूटान के बीच एकअटूट आध्यात्मिक सेतुविद्यमान है। पशुपतिनाथ से लेकर सोमनाथ और द्वारिका तक फैली आस्था की यह कड़ी यह सिद्ध करती है कि खान-पान और वेशभूषा की विविधताओं के मध्य एक अंतर्निहित एकता है। हालांकि, यात्रा का एक पक्ष पीड़ादायक भी रहा है, जहाँ लेखिका ने धार्मिक स्थलों पर व्याप्त गंदगी और 'धर्म के व्यवसायीकरण' पर तीखा प्रहार किया है। उनके अनुसार, तीर्थ स्थलों पर पंडितों द्वारा पूजा को व्यापार बना देना और प्रशासनिक उदासीनता के कारण फैली गंदगी एक गंभीर सामाजिक विसंगति है। इस संदर्भ में भूटान की स्वच्छता और अनुशासित जीवनशैली भारतीय समाज के लिए एक बड़े 'स्वच्छता पाठ' के रूप में उभरती है।ऐतिहासिक और मानवीय धरातल पर, यह पुस्तक निष्कर्ष निकालती है कि भारत की शिल्पकला और गौरवशाली अतीत, जैसे चित्तौड़गढ़ का शौर्य और आमेर की नक्काशी, प्रत्येक नागरिक के लिए गर्व का विषय होना चाहिए। इन निर्जीव पत्थरों में छिपी कहानियाँ हमें अपनी जड़ों से जोड़ती हैं। अंततः, लेखिका का सबसे मर्मस्पर्शी निष्कर्षमानवीय संबंधोंकी सार्थकता है। यात्रा के दौरान किसी अजनबी से मिली आत्मीयता या किसी अभावग्रस्त बच्चे के प्रति जागी चिंता ही वास्तव में एक यात्री को बेहतर और संवेदनशील मनुष्य बनाती है। यह यात्रा वृत्तांत इस संदेश के साथ समाप्त होता है कि यात्राएं कभी पूर्ण नहीं होतीं; वे हमारे भीतर एक 'अधूरी' प्यास छोड़ जाती हैं जो हमें बार-बार दुनिया को नई दृष्टि से देखने के लिए प्रेरित करती रहती है।
पुस्तक: भारत और पड़ोसी देशों की यात्रा (यात्रा संस्मरण) / लेखक: मालावर्मा / प्रकाशक: अंजनीप्रकाशन, नैहाटी, हालीशहर / वर्ष: मई, 2025 / मूल्य: 300/-



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