पुस्तक समीक्षा / - डॉ. रीता दास राम
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रॉबर्ट गिल की पारो : 1849 के भारत में अजंता को सहेजता एक उपन्यास
भारत में रहने को मजबूर होता है जबकि उसकी पारिवारिक जिम्मेदारी उसे स्वदेश के लिए पुकारती है। लेकिन भारत देखने की अदम्य इच्छा, पेंटिंग (चित्रकारी) में रुचि और अपनी प्रतिभा को साबित करने के जोश में बंधा वह यहीं जीवन की अंतिम साँसे लेता है। देश की राजनीति और सरकार के फैसले आम जनता के भविष्य को मजबूर करते हुए परिवर्तित कर देते है। प्रमिला वर्मा का यह उपन्यास उनके गहन अध्ययन, रॉबर्ट गिल के जीवन यात्रा में
उनकी रुचि, इतिहास में छुपी कहानी के लिए पुलकित करती कौतूहलता, खोजी प्रवृत्ति, लगन और मेहनत का प्रमाण है जो हम देश में घटित इतिहास के पन्नों को पलट कर देखने के लिए मजबूर ही नहीं होते बल्कि उपन्यास को अंत तक पढ़ते हुए समुद्रीय यात्रा के अनुभव के साथ भारत और लंदन जैसे अलग-अलग समाजों की जानकारी लेते हुए उसमें लीन हुए बिना नहीं रह पाते।
‘रॉबर्ट गिल की पारो’ एक आकर्षक शीर्षक है जो ‘पारो’ नाम के कारण रोचक एवं ध्यानाकर्षित करता इस शोध कार्य को पढ़ने के लिए बाध्य करता, मन में सुगबुगाहट बढ़ा ही देता है। जिसे गेजेट ऑफ इंडिया व लंदन की लायब्रेरी से उपलब्ध महत्वपूर्ण दस्तावेजों के बाद अंजाम दिया गया। पारो के नाम से शरतचंद की ‘देवदास’ कृति याद आती है और देवदास, पारो, चंद्रमुखी स्मृति में सहज ही आ जाते हैं। बावजूद इसके रॉबर्ट की पारो को जानने की अदम्य इच्छा अपना विशिष्ठ स्थान बनाती है। उपन्यास के पन्ने पलट पाठक की उत्सुकता पारो की अहमियत आँकने को धीरज के साथ तैयार होती है। ‘रॉबर्ट गिल की पारो’ यह एक बेजोड़ उदाहरण है इस तरह कि कैसे एक अखबार की कतरन की पंक्ति, “मेजर रॉबर्ट गिल ब्रिटिश सैन्य अधिकारी को अजंता ग्राम की आदिवासी लड़की ‘पारो’ अपनी बगिया का काला गुलाब दिया करती थी”, से उठी जिज्ञासा लेखिका के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है और इस कृति के निर्माण की रूपरेखा बन जाती है। उपन्यास उन्नीसवीं सदी के माहौल, सामाजिक व्यवस्था, अंग्रेजों का आगमन, उनका यहाँ रहना और भारतीयों से उनके आचार-व्यवहार की जानकारी से जोड़ता चलता है।
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डॉ प्रमिला वर्मा -------------------------- |
चित्रों को छोड़) जल जाने के बावजूद भारत के इस धरोहर को दुनिया विशेष दृष्टि से देखती है। अजंता एलोरा की गुफाओं की खोज का श्रेय सर जॉन स्मिथ को जाता है जिन्होंने 1819 में इस महत्वपूर्ण एवं अद्भुत उपलब्धि की खोज को अंजाम दिया। अजंता में वारगुणा नदी के पास होने की वजह से इसे वारगुन रिवर वैली कहा जाता है। जहाँ ग्रेनाइट बेसाल्ट की चट्टानों में 29 गुफ़ाएं स्थित है। इन्हीं गुफाओं के दस नंबर गुफा में जॉन स्मिथ ने अपने हस्ताक्षर के साथ, “गुफा के सामने वाले स्तंभ पर अपने शिकारी चाकू से खरोंच कर लिखा – ’28 अप्रैल, 1819 – जॉन स्मिथ।” ये जानकारियाँ भारत के धरोहर को एक विदेशी द्वारा बचाने और विश्व के सम्मुख लाने के गौरव पूर्ण एहसास से सराबोर करती है। कई भावपूर्ण मुद्राओं से युक्त कलाकृतियों के साथ बुद्ध भगवान और उनकी जीवन यात्रा को समर्पित ये गुफ़ाएं सिलसिलेवार ना होते हुए हॉर्स शू शेप यानी घोड़े की नाल के आकार में पत्थरों के बीच बनी है, की जानकारी हमें उपन्यास से मिलती है। इस पर मि. स्काटिव के लिखे लेख जो “1829 में ‘ट्रांसकेशन्स ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड (Transavtions of the Royal Asiatic Society of Great Britain and Ireland)” (पृष्ठ 301) में प्रकाशित हुआ था, की ब्रिटिशर द्वारा हंसी उड़ाई गई लेकिन यह कार्य न रुका। जॉन स्मिथ ने भारत के कई रॉककट मंदिरों का ख्याल रखते हुए सफाई करवाई ताकि उनके रंगों, भित्तिचित्रों, आलेख को नुकसान ना पहुँचे और कई महत्वपूर्ण और विशेष चीजें दुनिया के सामने आए। उपन्यास में दी इस महत्वपूर्ण जानकारी से अवगत होते हैं कि “रॉबर्ट गिल दुनिया के पहले बेहतरीन फ़ोटो ग्राफर थे, जिन्हें विश्व प्रसिद्ध झील ‘लोनार’ एवं अमरावती के निकट मेलघाट में एक जैन तीर्थस्थल एवं मुक्तागिरी हेमाडपंथी किले, मुस्लिम वास्तुकला आदि भारत की सांस्कृतिक विरासत को भी दुनिया के सामने लाने का श्रेय जाता है।” (पृष्ठ 9) ब्रिटिश सैन्य अधिकारी रॉबर्ट गिल के जीवन से जुड़ी सच्चाईयों, प्रेम कहानियों, अपना देश छोड़कर भारत में आकर बसने की उनकी मजबूरियों पर लेखिका की पारखी दृष्टि पड़ती है जिसने रॉबर्ट गिल के जीवन के रोमांचक पलों, हादसों और घटनाओं को इस उपन्यास द्वारा प्रस्तुत किया और उन्नीसवीं सदी के परतंत्र भारत के परिदृश्य और जनमानस से रूबरू होने का अवसर दिया।
डायरेक्टर ऑफ कोर्ट के आदेशानुसार रॉबर्ट, अजंता गुफाओं का एक चित्रमय रिकॉर्ड बनाने के लिए भारत आते हैं। हैदराबाद के निजाम द्वारा अतिरिक्त धनराशि के साथ वह यह जिम्मेदारी स्वीकारते हैं। कलकत्ता, मद्रास, बैंगलोर, जालना बर्मा के बाद औरंगाबाद के अजंता ग्राम का उसका अनोखा अनुभव उपन्यास में सविस्तार प्राप्त होता है। मद्रास के समुद्रतट पर उसके रंगों के शेड में सूर्योदय से सूर्यास्त को लेखिका के शब्दों में देखा जा सकता है। एनी, रॉबर्ट की अंतिम प्रेमिका है जो पत्नी बन उन्हें उनके अवसाद से बाहर ही नहीं निकालती बल्कि रॉबर्ट की मृत्यु तक उनके साथ रहती है। जिंदगी में आती रही स्त्रियों के बीच उलझे रॉबर्ट समय-समय पर लीसा, फ्लॉवरड्यू, पारो को याद करते है। प्रेम, बिछोह,दोस्ती, नाराजगी सभी जीवन के सुनियोजित हादसों की तरह घटित होते चलते है। जैसे रॉबर्ट का इसमें कोई हाथ नहीं हो, फिर भी कई स्थानों पर प्रेम में पड़कर रॉबर्ट के गलत फैसलों से पाठक जरूर दो-चार होते है।
पहला प्रेम, लीसा रॉबर्ट के धोखे को सहन नहीं कर पाती, “मैं तुम्हें माफ करती हूँ और यह अपेक्षा भी कि आज के बाद हम कभी नहीं मिलेंगे। औरत जितनी नम्र होती है उतनी कठोर भी।” (पृष्ठ 173) कहती हुईं हमेशा के लिए रॉबर्ट से दूर चली जाती है, जिसके मृत्यु की खबर बाद में पता चलती है। पहली पत्नी फ्लॉवरड्यू से रिश्ता वैचारिक मतभेद में पनपता है, वे रॉबर्ट के सम्मुख अपने विचार रखती है, “एक पिछड़ा देश, काले लोगों का देश, जहाँ ईश्वर के रूप में नदी, तालाब, सांप, गायों की पूजा की जाती है। कितनी निरर्थक जिंदगी हो जाएगी हमारी।” पत्नी फ्लॉवरड्यू का रिश्ता रॉबर्ट के जीवन में आती प्रेमिकाओं के कारण विश्वास को भोतर करता खत्म हो जाता है। एक ओर पत्नी फ्लॉवरड्यू का आधुनिक सामंती खानदान, तो दूसरी ओर इंडिया जैसे पिछड़े देश को करीब से देखने का आकर्षण, तालमेल बिठाने की कोशिश में रॉबर्ट अपने परिवार से दूर चला जाता है। फ्लॉवरड्यू के कई बार माफ करने पर भी एक न एक नया हादसा उसे रॉबर्ट की जिंदगी से दूर चले जाने को उकसाता है। फ्लॉवरड्यू अपना आत्मसम्मान बचाती है जिसे ठेस पहुँचाने में रॉबर्ट के जिंदगी के हादसे कोई कसर नहीं छोड़ते। कई बार फ्लॉवरड्यू दया की पात्र नज़र आती है क्योंकि पत्नी से अलग होना दूसरी स्त्री पर दृष्टि डालने का सेटिफिकेट पाना नहीं होता। फिर भी प्रेम अपना अहम स्थान रखता है। लेखिका महान थिंकर और गणितज्ञ ब्लेज़ पास्कल के शब्दों में प्रेम को जीवन की एक विशिष्ठ उपलब्धि बताती है, “जब आप किसी से प्यार करते हैं आपकी मुलाकात दुनिया के सबसे खूबसूरत व्यक्ति से होती है।” (पृष्ठ 204) रॉबर्ट की जिंदगी हर मोड़ पर नए प्रेम को ढूँढ लेने में सफल है जो भारत में उसके जीने का सहाराबनते हैं।
बचपन में पिता की मृत्यु के बाद रॉबर्ट को फादर रॉडरिक परवरिश देते हैं। वह आर्मी ज्वाइन करता है। टैरेन्स की मित्रता उसे जीवन का अमूल्य अनुभव देती है। अगाथा, डोरा,लीसा, मि. ब्रोनी, जीनिया, किम, जॉन, जैसे पात्र एक अन्य कथा को मूल कथा से जोड़ते कथ्य को आगे बढ़ाते है जो टैरेन्स की माता अगाथा के जीवन से संबंधित होता है और निरंतर रहस्यमयी घटनाओं से पर्दाफाश करता कौतूहल पिरोता है। भारत के साथ-साथ विदेश में लंदन और उसके आस-पास की नई संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन के माहौल को उपन्यास में महसूस किया जा सकता है। एक ओर भारतीय भोजन के विभिन्न व्यंजन, तौर- तरीके तो दूसरी ओर लंदन के निमनस्तरीय सामाजिक जीवन और भोजन की सविस्तार जानकारी लुभाती है। लेखिका के समुद्री यात्राओं का वर्णन समय के अनुसार सटीक और माहौल को बनाए रखता है।
लेखिका विदेशी पात्रों की नजरों से भारतीय परंपराओं और संस्कृति को दिखाती है जो एक अलग आकर्षण है। एनी कहती है, “यहाँ हाउस बर्ड (गौरैया चिड़िया) को आदमी लोग सड़क के किनारे नाचते हैं। ... यहाँ डमरू पर बंदर नाचते हैं बंदरिया रूठती है। ... जादू जैसा देश है। उसे देखना ही था यहाँ के जंगल, नदियाँ, झरने, यहाँ के नग्न साधु सारे शरीर में राख लपेटे अपनी इंद्रियों पर काबू किए हुए ... भगवान, कितने धर्म, कितनी अलग-अलग आस्थाएं, विश्वास, सांपों के मंदिर ... कैसे इतना बड़ा देश निरंतर गुलामी में जकड़ा जा रहा है। वह भी इतनी दूर देश की गुलामी में, जहाँ से यहाँ पहुँचने में महीनों लग जाते है।” (पृष्ठ 27) समझा जा सकता है कि जनमानस में स्वतंत्र होने की भावना जैसे सुप्तावस्था में थी।
गाँव की आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था, व्यवसाय, घरेलू उद्योग, जरूरत के अनुसार कार्यों का लेखिका ने सविस्तार वर्णन किया है। मौसम के अनुसार प्रांत और शहर के रहवासियों के पहनावे, खान-पान, जीवन के तरीकों की वे जानकारी देती आगे बढ़ती है। पेड़-पौधे, जंगल वनस्पति, फल, पत्तियों, जंगली जानवरों के बारे में विशेष रूप से कालानुसार वे अपनी बात रखती है फिर मद्रास हो या महाराष्ट्र, या हो हैदराबाद पाठक उसे समय से जोड़कर देखते समझते चलते हैं और कभी गाँव के कच्चे-पक्के घरों की पीली रोशनी की कल्पना में खो
जाते हैं तो कभी विदेशी संस्कृति की। उपन्यास से गुजरते हम गुलामी में जकड़े भारतीय समाज में हो रही गतिविधियों का आकलन करते है। विदेशियों के आगमन का भारत। उनका यहाँ राज करना। उनकी हुकूमत।कुछ अंग्रेज अपनी दरियादिली से भी परिचय कराते रहे जिसमें रॉबर्ट गिल एक उदाहरण है जिसने पारो को उसके अधिकार से वंचित नहीं किया। उसे हर संभव मदद की। रॉबर्ट और जयकिशन का साथ। शासन करते क्रूरता किसी भी हद तक जाए इंसानियत अपने लिए जगह बना ही लेती है। उपन्यास में रॉबर्ट के विचारों की इन पंक्तियों से हमें विश्वास करना ही पड़ता है कि रॉबर्ट जैसे लोग भी होंगे जो इस भारत भूमि और यहाँ के लोगों से भी आत्मीयता रखते थे, “अपनी पेंटिंग और फोटोग्राफी से वह ग्रेट ब्रिटेन को बता देगा कि इंडिया कैसा है?” (पृष्ठ 209) सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश भारत के बाद, यहाँ की गुलाम जिंदगियों में भी विदेशियों की रुचि बताती है कि सरहदों के पार, देशों को विभाजित करती रेखाओं से इतर भी इन्सानित और जज़बात का अपना स्पेस है जिसे इंसान के भीतर की जमीन से कोई हटा नहीं सकता। वहीं मिसिस रिकरबाय जैसी शख्सियत भी है जो बच्चों पर पड़ते इस देश की छाप से उन्हें बचाना चाहती है। फ्लॉवरड्यू भी अधीन लोगों पर गुस्सा उतारती, उनके लिए ‘काले गुलाम’ का सम्बोधन करती है। लेखिका बताती है किस तरह “मद्रास ब्रिटिश रेजीमेंट के अनेक सैनिक यहाँ आए, 1829 के बर्मा युद्ध में जिन अंग्रेज आर्मी ने हिस्सा लिया था वे यहीं बस गए थे। गिरमिटिया मजदूर ब्रिटिश शासन की गुलामी के लिए यहाँ लाए जाते थे।” (पृष्ठ 248) यह तो जगजाहिर है कि भारत के खदानों के कच्चे माल से ब्रिटिश कंपनी का व्यापार बढ़ता रहा। लेखिका बर्मा में स्थित विभिन्न जाति समूहों की चर्चा करती है जहाँ अंधविश्वास नहीं, बुद्ध पर आस्था रखने वाले लोग हैं। उपन्यास में एक समय का जिक्र मिलता है जब ब्रिटिश सैनिकों और भारतीय शासक राजाओं के घोड़े रेस में हिस्सा लेते थे। यहाँ हम टुकड़ों में बटे हुए भारत की झलक का आभास पाते हैं। अजंता ही नहीं, ईसा पूर्व 700 ई. से 900 ई. की शताब्दी में बनी 2.5 मील के दायरे में फैली चारानानदरी पहाड़ों की वादियों में स्थित एलोरा की गुफाओं की कलाकृतियों की चर्चा भी हम उपन्यास में पाते हैं जहाँ तीन मंजिला गुफाओं का विशिष्ठ संयोजन है। अजंता की गुफाओं के नंबर अनुसार उसमें निहित बौद्ध देव और उनकी जीवन यात्रा से जुड़ी महत्वपूर्ण कथाओं के बारे में सिलसिलेवार पढ़ना उपन्यास को रोचक बनाता है और पाठकों में इस स्थल के दर्शन की अदम्य इच्छा जगाता है। काल चक्र में प्रवेश करते हम समयानुसार तकलीफों, मजबूरियों, व्यवधानों को ध्यान में रखते हुए समाज में अंग्रेजों के हस्तक्षेप को समझ सकते हैं जिनसे यहाँ के लोगों ने भी स्नेह दिया और लिया। रॉबर्ट एक आदिवासी कोली लड़की पारो से सिर्फ प्रेम ही नहीं करते बल्कि गाँव वालों के सामने उसकी जिम्मेदारी उठाने का वादा करते हुए उसे अपनाते भी है, “उसने पारो के अंतिम संस्कार की जगह चबूतरा बनवाया और उस पर लिखवाया – 23 मई 1856 फॉर माई बेलोवेड पारो – रॉबर्ट।” यह एक अद्भुत कथा है जो भीतर तक रचती बसती है।
‘रॉबर्ट गिल की पारो’ उपन्यास एक बेहतरीन लेखन है। लेखिका प्रमिला वर्मा ने रॉबर्ट गिल के जीवन के सभी मोड़ों, घटनाओं, फैसलों पर प्रकाश डालते हुए रॉबर्ट के जीवन का सुंदर अंकन किया है। यह 414 पृष्ठों में समाहित उपन्यास रॉबर्ट के जीवन-सार के अलावा उनके द्वारा बनाई गई अजंता की गुफाओं के तैलचित्रों, छायाचित्रों की तस्वीरें भी पेश करता है। इसमें हम लेखिका द्वारा रॉबर्ट गिल के कब्र की ली गई तस्वीर भी देखते हैं। पाठक, अजंता की गुफा में खड़े रॉबर्ट को भी इन तस्वीरों में देख सकते है। जिसे उपन्यास में पाठक कल्पना द्वारा अपने विचारों में पाते हैं। उपन्यास भाषा की सरलता के साथ आसानी से पाठकों तक पहुँचता ही नहीं बल्कि कथा के प्रति जिज्ञासा भी पैदा करता है। घटनाओं की सटीक जानकारी देने हेतु जगह-जगह पर ईसवी और शताब्दी का उल्लेख किया गया है जो तथ्यों को समझने व आत्मसात करने में मदद करता हैं। उपन्यास में निहित बारीकियों से लेखिका के अध्ययन और उनके लेखन की गूढ़ता का पता चलता है। यह सिर्फ हादसों और घटनाओं का ब्यौरा ही नहीं बल्कि रॉबर्ट की जिंदगी को करीब से देखने और भीतर से जीना भी है। यह एक ऐतिहासिक सत्य कथा है जिसे लेखिका ने उपन्यास का रूप दिया है। कहा जा सकता है कि पाठकों के समक्ष एक युग की हकीकत को सप्रमाण पेश किया है वरना इतिहास के पन्ने पलटकर देखने की फुरसत किसे है। यह इतिहास को खंगाल कर निकाली गई सच्ची कहानी है। रॉबर्ट की चित्रकारी के द्वारा अजंता गुफाओं को विश्व के समक्ष लाया गया वरना खोज तो किताबों के पन्नों तक सीमित थी। लेखिका ने रॉबर्ट के जिंदगी की पेचीदगियों को अपनी कल्पनाओं से उपन्यास का रूप दे, पाठकों तक उपलब्ध कराकर हिंदी साहित्य को गौरान्वित किया है।
समीक्षक: डॉ. रीता दास राम (कवयित्री/लेखिका) चेंबूर, मुंबई – 74.
प्रकाशक : किताबवाले ,दरियागंज ,नई दिल्ली -02 मूल्य : 1800/-
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पुस्तक समीक्षा / ब्रज श्रीवास्तव
"आप आप चाहे मुट्ठी बांधिए या गांठ लगाइए। वहां दृढ़ता पैदा हो जाएगी।"
"खून चाहे जितना भी दौड़े शरीर ही उसकी सीमा हैl"इन एक एक वाक्यों में ऐसा क्या है जो हमें इनमें रम जाने के लिए उकसाता है । सोचिए ऐसा क्या है इनमें कि इन्हें पढ़ते ही हम उस वाक्य को छोड़ उससे दूर जाकर अपने जीवन संदर्भों से तार जोड़ने लगते हैं। ऐसा कोई भी वाक्य जो
हमारी चेतना की कैफ़ियत बदल सके काव्य वाक्य हो सकता है। जैसे कि..
"अधूरी नींद फुर्सत तलाशती है और अधूरे काम मेहनत को"
जीवन का अधिकतर हिस्सा हमारे पढ़ने,कहने और सुनने के साथ साथ लिखने से संचालित होता है। ये चारों क्रियाएं अधिकतर इकाई में घटित होती हैं। अक्सर ही स्मृति में एक वाक्य की कौंध स्थान घेरती है। कहा जा सकता है कि श्रुति हो या वाक, पाठ हो या लेख, अपने सूक्ष्मतम और सरलतम के जिस आकार में अनिर्भर रहकर प्रभाव शाली होते हैं वह एक पूर्ण विराम तक की सार्थक शब्द यात्रा है। इसे ही सूक्ति कहा गया, इसे ही सुभाषित और इसे ही सूत्र। सूत्र में गुंथीं संवेदन निधि की एक किताब अभी अभी चर्चा में आई है,जिसका नाम है सूत्र काव्य और इसके लेखक हैं, नरेश अग्रवाल। बोधि प्रकाशन के कोष में इस पुस्तक ने प्रवेश करते ही काव्य जगत में उम्मीद भरी कविता की दौलत पाठकों को सौंप दी। उन्हीं पाठकों के बीच एक मैं भी हूं, जो इस संग्रह की कवित सूक्तियों को एक कभी रसिक की तरह तो कभी विदग्ध की तरह ग्रहण कर रहा हूँ।
हिन्दी साहित्य के विराट फलक में और कवियों के बाहुल्य में एक कवि नरेश अग्रवाल अपनी इस संप्रेषण प्रधान सूत्र काव्य की पुस्तक के साथ उपस्थित होते हैं तो वे ध्यातव्य के हकदार तो होते हैं। अरस्तू, सुकरात, मम्मट, अनेकों काव्य शास्त्रियों ने प्रकारांतर से लिखा है कि रस, संवेदना या भाव से युक्त वाक्य ही कविता होती है। इस तरह यह मान्य होना चाहिए कि कविता प्रायः एक ही जुमले में बसती है। ये अन्य बात है कि एक बहुवाक्यीय कविता में हर वाक्य में कविता भी होती हो।
नरेश अग्रवाल ने स्वयं इसी आशय की बात अपनी भूमिका में इस तरह से लिखी है।
मेरी समझ में साहित्य में क्षणवाद की पैठ और प्रभाव बढ़ने के साथ तदनुरूप रचना शैली एवं रचनाओं का कलेवर भी परिवर्तित हो रहा है यह स्वाभाविक भी है और वर्तमान परिस्थितियों के सर्वथा अनुकूल भी। उनके इस कहे को हम इन वाक्य कविताओं में देखते हैं।
"प्रेम ही ऐसी चीज है उसमें कितने भी गहरे डूब हो डर नहीं लगता"
"शिक्षित को लोग स्तंभ की तरह देखते हैं और शिक्षित को अनजान की तरह।"
"दो पेड़ खुशी से आसपास रह लेते हैं लेकिन दो मनुष्य मुश्किल से ही"
"बुद्धि हमेशा गहराई में ही गोते लगाती है "
एक कविता के सूत्र बन जाने की रासायनिक क्रिया दरअसल वैसी ही होती है जैसे कार्बन की हीरा बन जाने की। अर्थात बहुत कम कविताओं को ये शिफ़त हासिल होती है कि वे सूत्र बनें। मीर ओ ग़ालिब के ऐसे मिसरे, कबीर, रहीम, बिहारी और तुलसी की कविताओं के आधे हिस्सों को तक बारंबार प्रयोग से सूत्र बनाया गया। कीट्स, यीट्स, विलियम ब्लैक, कोलरिज या शेक्सपियर के लिखे में भी अनेक मनोहर सूक्तियां मिलतीं हैं। लेकिन उचित कल्पनाओं, उचित उपमाओं और उचित प्रतीकों के प्रयोग से यह एकवाक्यता सूत्रात्मक सार में नरेश अग्रवाल के विपुल कोष में आई है। ये सुभाषित भी नहीं है न ही विदुर नीति, चाणक्य नीति के श्लोकांश हीं। ये तो समकालीन आत्मनिर्भर पंक्तियां है जो हमारे ठीक इसी समय काम की है। जीवन जीने के लिए नरेश अग्रवाल जी के मशविरे हैं। सबसे अच्छी बात ये है कि शब्दों के बीच के छूटे हुए अर्थ हमारे पास खुद चलकर आते हैं। कभी कभी नरेश अग्रवाल के ये कथन व्यक्तित्व सुधार के लिए मुफीद भी लगते हैं। कभी कभी आध्यात्मिक और कभी बिल्कुल व्यवहारिक। ऐसा लगता है इनकी रचना प्रक्रिया में काव्यात्मक उददेश्य प्रमुखता से आता होगा। जो वाक्य प्रेमचंद या तोल्सतोय की कहानियों में से खोज खोज कर लिए जाते हैं। ऐसे वाक्य हमें अच्छी तादाद में यहां मिल जाते हैं। जब कभी भी कविता और सूक्ति में भेद पर बहस होगी तो उद्धरण के लिए सूत्र काव्य नामक यह संग्रह काम आएगा।
जैसे कि ये एक सूक्ति-
"अच्छे व्यक्ति की दुनिया से विदाई एक बड़े समूह के लिए सजा तुल्य है।"
सूत्र काव्य के आगमन से हमें -"आवाजें"- नामक अनुवाद कविता संग्रह के संदर्भ याद आते हैं। स्पेनिश कवि अंतोनियो पोर्चिया का यह चयन साया होते ही प्रसिद्ध नहीं हो सका था। उन्हें तो वर्षों बाद उसका अनुवाद आने पर प्रसिद्धि मिली। लेकिन आलोचकों और पाठकों ने पोर्चिया की सूक्तियों को कविताओं का ही दर्जा दिया। हिन्दी में भी उनकी ये सूक्तियां अनूदित रूप में आईं जिसे मोनिका कुमार सामने लाईं। उसी दर्जे की मौलिक कविताएं जब हिन्दी के ही समर्थ कवि नरेश अग्रवाल लेकर आए हैं तो उम्मीद की जाना चाहिए कि मुख्य धारा की आलोचना इस आगमन को साहित्यिक दृष्टि से संज्ञान में लेगी। उनकी ही एक सूक्ति "जिनकी उपस्थिति से समाज चमकता है वे ही समाज के रत्न हैं" के सहारे से यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि इस पुस्तक का लेखक भी हमारे साहित्यिक समाज का एक रत्न है। कविता में जीवन तलाशने वाले रसिकों को, इस संग्रह को अवश्य ही अपनी पुस्तकालय में रखने की चाह होगी, ऐसा मुझे भरोसा है।
पूस्तक: सूत्र काव्य / प्रकाशक-बोधि प्रकाशन2021 / कीमत - र 150/-
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पुस्तक समीक्षा / ललित गर्ग
तितली
है खामोश पुरातन और आधुनिक समन्वय का सार्थक दोहा संकलन
सत्यवान सौरभ स्वांत सुखाय की भावना से ही पिछले सोलह वर्षों से रचना करते रहे हैं। वे इतने संयमी रहे कि अपनी अभिव्यक्ति को पाठकों के सामने लाने की या छपास होने की लालसा से दूर रहें। सृजन में शोर नहीं होता। साधना के जुबान नहीं होती। किंतु सिद्धि में वह शक्ति होती है कि हजारों पर्वतों को तोड़कर भी उजागर हो उठती है। यह कथन सत्यवान सौरभ पर अक्षरशः सत्य सिद्ध होता है। सौरभ की प्रस्तुत कृति बेजोड़ है। उनकी लेखनी में शक्ति है। भाषा पर उनका असाधारण अधिकार है। प्राजंल और लालित्यपूर्ण भाषा में वे जो कुछ भी लिखते हंै, उसे पढ़कर पाठक अभिप्रेरित होता है। वे जितना सुंदर, सुरुचिपूर्ण और मौलिक लिखते हैं, उससे भी अच्छा उनका जीवन बोलता है। इन विरल विशेषताओं के बावजूद भी वे कभी आगे नहीं आना चाहते। नाम, यश, कीर्ति और पद से सर्वथा दूर रहना चाहते हैं।
सत्यवान
सौरभ हरियाणा के जुझारू एवं जीवटवाले लेखक और कवि हैं। खुशी की बात है कि उनका
रचनाकार जिंदगी के बढ़ते दबावों को महसूस करता हुआ, उनसे लड़ने की ताब
रखता है, उनसे संघर्ष करता है। हाल ही में उनका ‘तितली है खामोश’ दोहा संकलन प्रकाशित हुआ है। 725 दोहों का यह संकलन अनूठा है और ये दोहें समय की शिला पर अपने निशान छोड़ते
चलते हैं। इतना ही नहीं वे इस कठिन समय से मुठभेड़ भी करते हैं। यही मुठभेड़ उनके
दोहों की ताकत है और मौलिकता है जो जनभावनाओं का जीवंत चित्रण है।
किसी
ने कहा है कि जिस समाज, देश में जितनी अव्यवस्था, गिरावट, संघर्ष एवं नैतिक/चारित्रिक मूल्यों का हनन
होगा उस समाज में साहित्य उतना ही बेहतर लिखा जाएगा। साहित्य साधना और रचनाधर्मिता
कठिन तपस्या होती है और जो इसके साधक होते हैं, वे ही
साहित्य को गहनता प्रदत्त करते हैं। साहित्य साधक सौरभ का प्रस्तुत दोहा संकलन ‘तितली है खामोश’ न केवल व्यक्ति, परिवार बल्कि समाज, राष्ट्र और विश्व के संदर्भ में
कवि की प्रौढ़ सोच की सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। संकलन के दोहे कुछ ऐसे हैं
कि मन की आंखों के सामने एक चित्र-सा खींच जाता है। चीजों को बयां करने का उनका एक
खास अंदाज है। फिर चाहे वह कुदरती नजारे हों या प्रेम, विश्वास,
आस्था, आशा को अभिव्यक्ति देते दोहें। यह उनका
नवीनतम संकलन है। सत्यवान सौरभ के दोहों में न सिर्फ उनकी, बल्कि
हमारी दुनिया भी रची-बसी नजर आती है। जिन्हें पढ़कर सत्यवान सौरभ के मूड और मिजाज
का बखूबी अंदाज लगाया जा सकता है। दोहों के विचार, भाव,
बिम्ब, रूपक एक नया आलोक बिखेरते हैं, जो पाठकों के पथ को भी आलोकित करता है।
हरियाणा
में वेटनरी इंस्पेक्टर पद पर रहते हुए भी सत्यवान सौरभ लेखन के लिए समय निकाल लेते
हैं,
यह उनकी विशेषता है। उनके दोहों में सरलता, सहजता
एवं अर्थ की गहराई हमें सहज ही आकर्षित करती है। वे भावों को इस सहजता से
अभिव्यक्त करने में समर्थ है कि ऐसा लगता है कि वे सिर्फ सौरभ जी के भाव नहीं
बल्कि हर पाठक के मन की छिपी भावनाएं हैं, संवेदनाएं हैं।
उनकी पैनी कलम से कोई भाव अछूता नहीं रहा। परिस्थितियों को देखने की उनकी अपनी
विशिष्ट दृष्टि है। उनके दोहें सीधे हृदय से निकलते जान पड़ते हैं।
हिन्दी
साहित्य में दोहों का विशिष्ट स्थान है। दोहा अर्द्धसम मात्रिक छंद है। यह दो
पंक्ति का होता है इसमें चार चरण माने जाते हैं। विशेषतः दोहे आध्यात्मिक और
उपदेशात्मक रंग में रंगे होकर इसके पहले और तीसरे (विषम) चरणों में 13-13 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे (सम) चरणों में 11-11
मात्राएँ होती हैं। अंत में गुरु और लघु वर्ण होते हैं। तुक प्रायः दूसरे और चौथे
चरण में ही होता है। दोहा अर्द्ध सम मात्रिक छन्द का उदाहरण है। तुलसीदासजी से
लेकर महाकवि कबीर तक रहीम, रसखान से लेकर बिहारी तक दोहों का
एक विस्तृत आध्यात्मिक परिवेश भारतीय साहित्य को समृद्ध करता रहा है। आधुनिक युग
में रचे जाने वाले दोहों में इन्हीं महापुरुषों का प्रभाव देखने को मिलता है। सौरभ
के दोहों में आधुनिकता और पुरातन का एक अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है जो दोहा
छंद की सार्थकता को सिद्ध करता है।
‘तितली है खामोश’ के दोहों में काव्य सौंदर्य के साथ-साथ प्रवहमान गतिशीलता भी है। ये दोहें अर्थवान है, अंतकरणीय भावों के रस-रूप में प्रस्फुटित शब्द सुषमा का संचार करते है। ये दोहें चेतना के स्पंदन का सम्प्रेषण करते है। दोहों में कवि के शाश्वत प्रभाव की छवि परिलक्षित होनी चाहिए, यह कवि के कविता कर्म की कसौटी होती है। प्रस्तुत संकलन के दोहे उस कसौटी पर कस कर जब देखता हूं तो सत्यवान सौरभ की छवि सामाजिक सजग प्रहरी के साथ-साथ एक संवेदनशील रचना कर्मी के रूप में उभरकर सामने आती है। कविता, गीत, गजल आदि साहित्यिक विधाओं के साथ विभिन्न विषयों पर समसामयिक लेख एवं फीचर लिखने वाले सौरभ को दोहा लेखन में विशेष सफलता मिली है। इसका श्रेय वे हरियाणा के ही प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. रामनिवास मानव को देते हैं। सौरभ को दोहाकार बनाने में उनकी प्रेरणा विशेष उल्लेखनीय है।
सत्यवान
सौरभ ने अपने दैनन्दिन जीवन के हर कटु-तिक्त और मधुर अनुभव को, यहां तक कि चित्त में मंडराते चिंतन के हर फन को भी दोहों में बांधा है।
उनके दोहें उनके निजी संसार से उपजे हैं तो कहीं उनमें देश और दुनिया के व्यापक
परिदृश्य भी प्रस्तुत हुए हैं। इन दोहों में समाज में व्याप्त विसंगतियों एवं
विडम्बनाओं का स्पष्ट चित्रण हैं तो पारिवारिक जीवन के टीसते दंश और द्वंद्व एवं
अपने इर्द-गिर्द के जीवन की समस्याओं के भाव दोहों के रूप में ढलकर सामने आते हैं।
संभवतः दोहों का आधार भी यही है। अपने परिवेश से गहरा सरोकार उनकी शक्ति है। उनके
दोहें इतने सशक्त एवं बेबाक है कि जो इन्हें साहित्य जगत में उल्लेखनीय स्थापत्य
प्रदान करेंगे। मेरी मान्यता है कि कोई भी साहित्यकार युगबोध से निरपेक्ष होकर
कालजयी साहित्य का सृजन कर ही नहीं सकता, विधा चाहे कोई भी
हो। साहित्यकार का मन तो कोरे कागज जैसा निश्छल, निरीह,
दर्पण सा पारदर्शी होता है। यथा-
सूनी
बगिया देखकर,
तितली है खामोश।
जुगनू
की बारात से,
गायब है अब जोश।।
सत्यवान
सौरभ स्वांत सुखाय की भावना से ही पिछले सोलह वर्षों से रचना करते रहे हैं। वे
इतने संयमी रहे कि अपनी अभिव्यक्ति को पाठकों के सामने लाने की या छपास होने की
लालसा से दूर रहें। सृजन में शोर नहीं होता। साधना के जुबान नहीं होती। किंतु
सिद्धि में वह शक्ति होती है कि हजारों पर्वतों को तोड़कर भी उजागर हो उठती है। यह
कथन सत्यवान सौरभ पर अक्षरशः सत्य सिद्ध होता है। सौरभ की प्रस्तुत कृति बेजोड़ है।
उनकी लेखनी में शक्ति है। भाषा पर उनका असाधारण अधिकार है। प्राजंल और
लालित्यपूर्ण भाषा में वे जो कुछ भी लिखते हंै, उसे पढ़कर पाठक
अभिप्रेरित होता है। वे जितना सुंदर, सुरुचिपूर्ण और मौलिक
लिखते हैं, उससे भी अच्छा उनका जीवन बोलता है। इन विरल
विशेषताओं के बावजूद भी वे कभी आगे नहीं आना चाहते। नाम, यश,
कीर्ति और पद से सर्वथा दूर रहना चाहते हैं। प्रस्तुत दोहा संकलन को
पढ़ते हुए सहज ही कहा जा सकता है कि इसमें व्यक्त विचार अनुभवजन्य है। जो व्यक्ति
यायावर होता है, धरती के साथ भावात्मक रिश्ता स्थापित करता
है, वहां की सभ्यता, संस्कृति और
परंपरा को करीब से देखता है और उसे अभिव्यक्ति देने की क्षमता का अर्जन करता है
वही व्यक्ति कलम की नोंक से व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के
यथार्थ को कुशलता से उकेरने में सफल हो सकता है। प्रस्तुत संकलन के दोहों की
सार्थकता या तो भावाकुल तनाव पर निर्भर है या धार-धार शिल पर। उनकी रचनाओं में
विविधता है, प्यार है, दर्द है,
संवेदनाएं हैं यानी हर रंग के शब्दों से उन्होंने दोहों को सजाया
है।
हरियाणा
साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित प्रस्तुत कृति के संदर्भ में स्वयं लेखक का
मंतव्य है कि ‘तितली है खामोश’ का शीर्षक अपने आप में एक सवाल है
और दोहे हमेशा तीखे सवाल ही करते हैं।’ इस दृष्टि से कवि के
दोहों में तीखे सवाल खड़े किये गये हैं तो उनके समाधान भी उतने ही प्रभावी तरीके से
दिये गये हैं। इस दृष्टि से उनके रचना धरातल के समग्र परिवेश को और उनके दार्शनिक
धरातल को समझने में यह पुस्तक महत्वपूर्ण है।
पुस्तक
और कलम को अपनी विवशता मानने वाले सत्यवान सौरभ विचार के साथ-साथ शब्दों के
सौन्दर्य की चितेरे हैं। उनके हर शब्द शिल्पन का उद्देश्य मनोरंजन और व्यवसाय न
होकर सत्य से साक्षात्कार कराना है। सत्यं शिवं और सुंदरमं की युगपथ साधना और
उपासना से निकले शब्द और विचार एक नयी सृष्टि का सृजन करते हैं और उसी सृजन से
सृजित है प्रस्तुत दोहा संकलन ‘तितली है खामोश’। प्रस्तुत कृति के दोहें समाज और राष्ट्र को सुसंस्कृत बनाते हैं,
उन्हें राष्ट्रीय और सामाजिक अनुशासन में बांधते हैं, खण्ड-खण्ड में बिखरे रिश्ते-नातों को एक धागे में जोड़ते हैं और अंधेरों के
सुरमयी सायों में नया आलोक बिखेरते हैं। संस्कृति और संवेदना के प्रति आस्था जगाने
का काम करती हुई यह कृति पाठकों के हाथ में विश्वास की वैशाखी थमाती है। यह पूरी
कृति और उसके विधायक भावों का वत्सल-स्पर्श समाज की चेतना को भीतर तक झकझोरता है। 124 पृष्ठों पर फैली कवि की रचना दृष्टि ने इस पुस्तक को नायाब बनाया है।
यह
काव्य कृति व्यक्ति, समाज और देश के आसपास घूमती विविध
समस्याओं को हमारे सामने रखती है, साथ ही सटीक समाधान भी
प्रस्तुत करती है। पुस्तक की छपाई साफ-सुथरी, त्रुटिरहित है।
आवरण आकर्षक है। पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है।
पुस्तक
का नाम: तितली है खामोश / लेखक :सत्यवान ‘सौरभ’ / प्रकाशक: हरियाणा साहित्य अकादमी
पंचकूला
(हरियाणा) / मूल्य: 200 रुपये, पृष्ठ : १२४
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पुस्तक समीक्षा / विजय कुमार तिवारी
सुश्री माला वर्मा की 'ईस्टर्न यूरोप' के देशों की यात्राएं
माला वर्मा जी अपनी इस यात्रा को नये तरीके से प्रस्तुत करना चाहती हैं- यूरोप को हम जहाँ से,जैसे भी देखें,ये हमेशा हमें हैरत में डालता है। प्रकृति ने उदार मन से अपनी संपदाएं बिखेरी हैं,यहाँ कुछ ऐसे विचार और मनुष्य पैदा हुए हैं कि यहाँ का इतिहास भी हैरत में डालता है। यहाँ के अदम्य साहसी लोगों के चेहरों पर कहीं भी हार मानने के निशान नहीं मिलते। उन्होंने संघर्ष किया है,पीड़ाएं व विभीषिकाएं झेली हैं और अपने-अपने देशों को उन्नत व विकसित किया है। अस्त्र-शस्त्र,धर्म-कर्म या ज्ञान-विज्ञान किसी भी क्षेत्र में यहाँ के लोग पीछे नहीं हैं। इस ट्रीप में उन्होंने ईस्टर्न यूरोप के आठ देशों-पोलैंड,हंगरी,चेक रिपब्लिक. स्लोवाक,जर्मनी,आस्ट्रिया,स्लोवेनिया और क्रोयेशिया की यात्राएं की है। सुखद है,इस यात्रा-संस्मरण में हमें विस्तार से सब कुछ पढ़ने,समझने को मिलने वाला है।
समीक्षित कृति ईस्टर्न यूरोप(यात्रा संस्मरण) ,लेखिका :माला वर्मा मूल्य : रु 400/- प्रकाशक : अंजनी प्रकाशन, 24 परगना , कोलकता
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माला वर्मा की दक्षिण अफ्रीका यात्रा
आज सम्पूर्ण विश्व में उन्नति और विकास हुआ है,उसके पीछे अपने विभिन्न उद्देश्यों को लेकर लोगों द्वारा की गयी यात्राएं हैं। यात्रा सामान्य तौर पर व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक किया गया परिभ्रमण है। छोटी यात्रा हो या बड़ी,सबके अपने-अपने उद्देश्य हैं। कुछ लोग रोजी-रोटी की तलाश में यात्राएं करते है,कुछ शोध कार्य के लिए घर से निकलते हैं और बहुतायत लोग देश-दुनिया को देखने, समझने के लिए परिभ्रमण करते हैं। हम एक स्थान पर रहते-रहते ऊब महसूस करते हैं, तब मनोरंजन के लिए दूर-दराज के क्षेत्रों की यात्राएं करते हैं। पाश्चात्य देशों में यात्रा करने का प्रचलन कुछ अधिक ही है,वे दुनिया के सुदूर देशों तक की यात्राएं करते हैं और सुखद अनुभूतियों के साथ वापस लौटते हैं। हमारा देश भी इससे अछूता नहीं है। दुनिया भर के लोग भारत आते हैं और यहाँ के लोग भी दुनिया के देशों की यात्राएं करते हैं।
ऐसी ही एक बहुचर्चित लेखिका सुश्री माला वर्मा जी हैं जो साहित्य लेखन के साथ-साथ विश्व के अनेक देशों की यात्राएं करती रहती हैं और हर यात्रा के उपरान्त यात्रा संस्मरण लिख देती हैं। उनके अनेक कविता,कहानी संग्रह और यात्रा संस्मरण छपे हैं। कम्बोडिया-वियतनाम की यात्रा पर लिखा हुआ संस्मरण 'कम्बोडिया-वियतनाम' मैंने पढ़ा और उसकी समीक्षा की है। कोरोना काल में उनकी यात्रा थोड़ी बाधित रही परन्तु 26 अप्रैल 2022 को उन्होंने नये सिरे से दक्षिण अफ्रीका की यात्रा की शुरुआत की। माला वर्मा जी अपने डाक्टर पतिदेव के साथ हाजीनगर में रहती हैं और हर यात्रा दोनों साथ-साथ करते हैं। पहले की तरह यह यात्रा भी टूर एजेन्सी 'गो एवरी व्हेयर' के साथ हो रही है। इस दल में कुछ सहयात्री पूर्व-परिचित हैं और कुछ अपरिचित भी। सभी जोश में हैं,उत्साहित हैं। कोलकाता से सबको मुम्बई पहुँचना है और वहीं से सभी अगली उड़ान भरने वाले हैं। नैरोबी के लिए अगली फ्लाइट रात के 2-30 बजे थी जो 27 अप्रैल की सुबह 10.30 बजे उड़ान भरी। माला जी लिखती हैं,ग्रुप में होने के कारण यात्रा सुखद होती है। उन्होंने यात्रा की समय सारणी का पूरी सावधानी से उल्लेख किया है। देखे हुए दृश्यों के सन्दर्भ में लिखती हैं-कभी नदी,कभी समुद्र,कभी पहाड़,कभी रेगिस्तान,कभी पेड़-पौधों की बहार तो कभी शहर-गाँव का दर्शन रोमांचक रहा। इसके अलावा बादल, बादलों की खेती, चाँद-सूरज और टिमटिमाते हुए तारे,कभी जमीन पर रेंगती हुई कारें तो कभी घर-मकान से अंटी हुई धरती और ये नीला आकाश कितना सुन्दर दिखता है।
वहाँ सभी नीग्रो हैं,हमारे अलावा यात्री भी और कर्मचारी भी। नैरोबी से जोहान्सबर्ग,बहुत खूबसूरत दृश्य,रोशनी की चकाचौंध से भरा। 28 अप्रैल को जोहान्सवर्ग-प्रिटोरिया-क्रूगर की यात्रा हुई। माला वर्मा अपने दल के लोगों के बारे में,उनके कार्य और व्यक्तित्व के बारे में बताती हैं। जहाँ-जहाँ जाती हैं, वहाँ की हरियाली,लोगों के रहन-सहन,तौर-तरीके,खान पान आदि की खूब चर्चा करती हैं। वे हर स्थान की,हर दृश्य की तस्वीरें लेती हैं और मौसम की चर्चा करना नहीं भूलती। जोहान्सबर्ग के मंडेला हाऊस में नेल्सन मंडेला की मूर्ति दिखी,भव्य और गरिमापूर्ण। वे बताती हैं, 1910 में इस देश का नाम साऊथ अफ्रीका पड़ा। उन्होंने विस्तार से इसका इतिहास लिखा है। यहाँ महात्मा गाँधी की वह मूर्ति लगी है, जब वे जवान थे। उन्होंने यहाँ रंगभेद के विरोध में लड़ाई लड़ी। विस्तार से जानने के लिए मालाजी श्री गिरिराज किशोर की पुस्तक "गिरमिटिया गाँधी" और स्वयं गाँधी जी की पुस्तक "सत्य का प्रयोग" पढ़ने की सलाह देती हैं।
प्रिटोरिया का मौसम अच्छा था। वहाँ का पार्लियामेण्ट ऊँची पहाड़ी पर है। यह पर्यटन का मुख्य आकर्षण है। माला जी ने विस्तार से दक्षिण अफ्रीका में आने वाले विदेशी व्यापारियों और उनके व्यापार की चर्चा की है। अंग्रेजों का प्रभुत्व होने से ईसाई धर्म अधिक फला-फूला। हिन्दुओं पर बहुत सारे प्रतिबंध थे। 1913 में नियम बनाकर भारतीयों के यहाँ आने पर रोक लगा दिया गया। यह देश गणतंत्र तो था परन्तु वोट देने का अधिकार सबको नहीं था। काले लोगों को बहुत सी सुख-सुविधाओं से वंचित किया गया था। रंगभेद नीति के विरुद्ध नेल्सन मंडेला ने संघर्ष छेड़ा। उन्हें 27 वर्षों के जेल की सजा हुई और 1990 में जेल से मुक्ति मिली। साऊथ अफ्रीका ब्रिक्स का सदस्य है। दक्षिण अफ्रीका,अफ्रीका महाद्वीप के दक्षिणी छोर पर स्थित है। यहाँ की मुद्रा रेंड(जार) है। यह दुनिया के खूबसूरत देशों में से एक है। यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने दुनिया भर से पर्यटक आते हैं।
क्रूगर क्षेत्र में वहाँ का बेहतरीन रिसार्ट है जो जंगल के बीच बना है। 29 अप्रैल को क्रूगर नेशनल पार्क की यात्रा हुई और 30 अप्रैल को क्रूगर-जोहान्सबर्ग-नेस्ला की यात्रा हुई। आर्थिक रुप से दक्षिण अफ्रीका पिछड़ा या भारत की तरह विकासशील देश है। उसके बाद पहली मई को निस्ना-कैगोकेभ-ओदशोर्न-नेस्ना जैसे क्षेत्रों की यात्राओं की शुरुआत हुई। अगले दिन 2 मई को निस्ना-मोसेल बे-केप टाऊन को देखा,समझा गया। 3 मई को केप टाऊन-पेनिनसुला का टूर हुआ। वैसे ही अगले दिन 4 मई को केप टाऊन-रोबेन आईलैंड के दर्शनीय जगहों का परिभ्रमण हुआ। 5 मई को केप टाऊन का अंतिम दिन था। वहाँ का टेबल पहाड़ अद्भुत आकर्षक था। 6 मई को नैरोबी से वापसी की यात्रा शुरु हुई-नैरोबी-मुम्बई-कोलकाता।
माला वर्मा का साहित्य लेखन के साथ-साथ पर्यटन-देशाटन प्रेम अद्भुत और सराहनीय है। अपने संस्मरणों में देखे हुए देश का,वहाँ की सम्पूर्ण दृश्यावली, वहाँ की सड़कें व आबादी का विन्यास,वहाँ की हरियाली,सजावट और लोगों का व्यवहार-विचार प्रस्तुत करती हैं। सारे दृश्यों की तस्वीरें लेती हैं, उन्हें सूर्योदय-सूर्यास्त कुछ अधिक ही आकर्षित करता है। सहयात्रियों के रुप-रंग,व्यवहार, व्यक्तित्व,और आपसी प्रेम का चित्रण किसी रोमानी अंदाज में करती हैं। उनकी भाषा व शैली सहज,सुगम्य और रोचक है। कला,संस्कृति, इतिहास,राजनैतिक,सामाजिक और आर्थिक विवरण संस्मरण को सार्थक और महत्वपूर्ण बना देते हैं। एक बार पुस्तक पढ़ लेने के बाद वह देश जाना-पहचाना सा लगने लगता है और वहाँ जाने के लिए प्रेरित,आकर्षित करता है। मालाजी अपने संस्मरण लेखन में विविध भावनात्मक रंगों में उभरती और दिखाई देती हैं। निश्चित ही प्रेम उनका मूल रस-भाव है चाहे प्राकृतिक दृश्यों के लिए हो,मानव निर्मित सौन्दर्य के लिए हो या अपने प्रियजनों के लिए हो। मैं हृदय पूर्वक माला जी को बधाई देता हूँ और उनके सतत लेखन व विश्व भ्रमण के लिए शुभकामनाएं भी।
समीक्षक : विजय कुमार तिवारी, प्रकाशक : अंजनी प्रकाशन, 24 परगना , कोलकता
पुस्तक समीक्षा / बलजीत सिंह
घुमक्कड़ी जिंदाबाद - तीन : घुम की दुनिया रंगीन
हमारे जीवन में उत्साह और उत्सव दोनों का विशेष महत्व है । समझो--उत्साह के बिना उत्सव और उत्सव के बिना उत्साह... अधूरे से लगते है । मतलब साफ है कि दोनों एक -दूसरे के साथ डोर और पतंग की तरह जुड़े हुए हैं । यही नियम हमारे मन पर भी लागू होता है । जीवन में खुशियां अपने आप झोली में आकर नहीं गिरती , उन्हें खोजना पड़ता है और खुशियों को खोजने या बटोरने में यात्रा एक अच्छा विकल्प है । जिस व्यक्ति का मन घुमक्कड़ स्वभाव को हो , भला उसके लिए तो यात्राएं ही उत्सव है । सच पूछो तो जीवन में यात्राओं का दौर कभी खत्म नहीं होता , लेकिन एक घुमक्कड़ व्यक्ति प्रत्येक यात्रा को एक उत्सव की दृष्टि से देखता है और अपने मन को बहलाने के लिए , चाहे उसे अकेले ही घर से निकलना पड़े ...वह जरूर निकलता है । कोई यार-दोस्त उसके साथ चले तो ठीक...वरना रास्ते में आने वाले खूबसूरत नजारों को वह अपना दोस्त बना लेता है । कुछ समय के लिए वह तनाव भरी जिंदगी से दूर चला जाता है और उमंग-उत्साह की दुनिया में इस कदर खो जाता है -- मानो वह किसी दूसरी दुनिया में आ गया हो । सच पूछो तो ...यही है जीवन का असली आनंद अर्थात् घुमक्कड़ व्यक्ति ही जीवन का असली आनंद प्राप्त कर सकता है । वैसे घर-गली और मोहल्ले में कोई न कोई घुमक्कड़ अवश्य मिल जायेगा , लेकिन देश के बड़े -बड़े घुमक्कड़ व्यक्तियों की अगर बात की जाये तो इस श्रेणी में एक नाम आता है - नीरज मुसाफिर ।
नीरज जी घुमक्कड़ होने के साथ-साथ एक अच्छे लेखक भी है और अब तक इनकी यात्रा-वृत्तांत की पांच मौलिक पुस्तकें तथा तीन संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । इनकी " हमसफ़र एवरेस्ट " पुस्तक मुझे इतनी अच्छी लगी कि मैंने इसे लगातार दो बार पढ़ा ; जिसमें मोटरसाइकिल द्वारा नेपाल जाना और एवरेस्ट के बेस कैंप तक पहुंचना , काफी रोमांचक है । इसी तरह " पैडल-पैडल " पुस्तक में , मनाली से श्रीनगर तक लगभग 950 किलोमीटर की साइकिल यात्रा का मजेदार वर्णन है । इतना ही नहीं " सुनो ! लद्दाख " पुस्तक में इन्होंने चादर ट्रैक का भी खूबसूरत वर्णन किया है । " मेरा पूर्वोत्तर " पुस्तक में असम , अरुणाचल प्रदेश और मेघालय जैसे राज्यों में अपनी पत्नी के साथ मोटरसाइकिल पर , एक दिन में 888 किलोमीटर चलने का साहस दिखाया और " अनदेखे पहाड़ " पुस्तक में उत्तराखंड राज्य की विभिन्न यात्राओं का वर्णन किया है । अब बात रही संपादित पुस्तकों की , जिसके नाम इस प्रकार है : --
1. घुमक्कड़ी जिंदाबाद -1
2. घुमक्कड़ी जिंदाबाद -2
3. घुमक्कड़ी जिंदाबाद -3
करीब दस वर्षों तक दिल्ली मैट्रो में इंजीनियर के पद पर काम करने के पश्चात, अब नीरज मुसाफिर जी चौबीस घंटे केवल घुमक्कड़ी वाला काम करते हैं । इनकी प्रत्येक पुस्तक को मैं अवश्य पड़ता हूं , चाहे वह पुस्तक मुझे कहीं से भी खरीदनी पड़े या मंगवानी पड़े । जहां तक इनकी तीसरी संपादित पुस्तक " घुमक्कड़ी जिंदाबाद--3 " यात्रा वृत्तांत-संग्रह का सवाल है , यह वास्तव में एक अनोखी पुस्तक है । इस पुस्तक में 21 लेखकों की विभिन्न यात्राओं का वर्णन है । पुस्तक में शामिल सभी यात्रा-वृत्तांत और उनके लेखकों का नाम यहां अवश्य बताना चाहूंगा :--- खड़ापत्थर यात्रा -- अनिरुद्ध कुमार , केदारनाथ ट्रैक -- अनिरुद्ध पोरवाल , हर्षिल -- डॉ० अनुज कुमार सिंह सिकरवार , बनारस यात्रा -- डॉ० अरुण कुकसाल , अंधेरे से आगे -- बृजेश कुमार , मेरे लेह यात्रा -- चंद्र धर मिश्र , गंडक से रंगित तक -- धर्मेंद्र कुमार कुशवाहा , छह दिन हिमालय की गोद में -- गिरिजा कुलश्रेष्ठ , पेरिस में पांच दिन -- मधुर गौड , सह्याद्री और उसके लोग -- मनीष कुमार साहू , स्पीति घाटी की यात्रा -- रवि रतलामी , राजस्थान में पाताल -- ऋषभ भरावा , ग्रीस यात्रा --डॉ० संगीता रस्तोगी , मोटरसाइकिल डायरीज -- सत्येन्द्र दहिया , क्या वह सच था -- शरदिंदु मुखर्जी ,यात्रा श्री तुंगनाथ महादेव -- सिद्धार्थ वाजपेयी , यायावरी कहीं ऐसी होती है --सुनील कुमार सोनवाने , इश्क भी हुआ तो हिमालय से -- स्वर्णा शरद राव , झांसी की रानी लाइट -- टीना , एक शाम कालीपोखरी के नाम -- वीरेंद्र कुमार , हड़प्पा सभ्यता -- डॉ० यादविंदर सिंह इत्यादि । इसी के साथ कुछ यात्राओं का थोड़ा-थोड़ा वर्णन अवश्य करना चाहूंगा , जो मुझे बहुत अच्छे लगी----
अंधेरे से आगे --- इस यात्रा में लेखक ने राजस्थान के झुंझुनूं , बिकानेर , श्रीगंगानगर , जयपुर , अजमेर और जोधपुर आदि शहरों का भ्रमण करके , राजस्थानी झलक को अनोखे अंदाज में प्रस्तुत किया है ।
मेरी लेह यात्रा - एक यात्रा संस्मरण --- लेह-लद्दाख अगर जाये तो पेंगोंग झील अवश्य देखना , जो लेह से 150 किलोमीटर दूर है । इस यात्रा में लेखक ने रोचकता के साथ झील का खूबसूरत वर्णन प्रस्तुत किया है ।
सह्याद्री और उसके लोग --- महाराष्ट्र के नाशिक जिले में स्थित हरिहरगढ़ किला ट्रैकिंग के लिए काफी प्रसिद्ध है । लेखक ने इस किले की विशेषता के साथ 80 डिग्री स्लोप का सुन्दर चित्रण किया है ।
राजस्थान में पाताल का एक सफ़र - चमगादड़ों के घर में घुसपैठ --- भीलवाड़ा से 90 किलोमीटर दूर एक ऐसी गुफा है , जो गहरी होने के साथ-साथ चमगादड़ों से भरी पड़ी है । इसमें आदमी को रेंग-रेंगकर चलना पड़ता है । सचमुच यह यात्रा काफी रोमांचक है ।
मोटरसाइकिल डायरीज - दो पहियों का सफरनामा ---- दुनिया की सबसे ख़तरनाक सड़कों में , किश्तवाड़ -किलाड़ सड़क का नाम आता है । यहां मोटरसाइकिल द्वारा सफ़र करना , वास्तव में एक अनोखा अनुभव है ।
क्या वह सच था ? --- यह काफी अलग तरह की यात्रा है , इसमें लेखक ने विशेष तौर पर दो घटनाओं का वर्णन किया है -- पहली घटना सांपों के बारे में और दूसरी गरासिया जनजाति के अजीब त्यौहार के बारे में बताया गया है ।
इश्क हुआ तो हिमालय से --- अक्टूबर के महीने में लेह -लद्दाख जैसी जगहों पर मोटरसाइकिल से यात्रा करना , समझो ख़तरों से खेलना है । इसमें लेखिका ने सड़कों पर जमी बर्फ का खूबसूरत वर्णन किया है ।
जीवन अनमोल है -- हो सके तो इसमें यात्राओं का आनन्द उठाइये । सचमुच घुमक्कड़ लोगों की दुनिया रंगीन होती है । यात्राओं से हमें केवल आनन्द ही बल्कि बहुत कुछ सीखने को मिलता है और जहां तक यात्रा-वृत्तांत वाली पुस्तकों की बात है - ये ज्ञानवर्धक होने के साथ-साथ प्रेरणादायक भी होती है । आदरणीय नीरज मुसाफिर द्वारा संपादित पुस्तक " घुमक्कड़ी जिंदाबाद -3 " में शामिल सभी यात्राएं एक से बढ़कर एक है । वैसे देखा जाये तो यात्रा का शीर्षक भी पाठक को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है । इस पुस्तक में एक यात्रा का शीर्षक मुझे काफी प्रभावशाली लगा , जिसका नाम है --- झांसी की रानी लाइट..। इसमें लेखिका ने बहुत सोच-समझकर यात्रा का शीर्षक चुना है । पुस्तक का शीर्षक तो वैसे भी दमदार है और इसमें शामिल सभी लेखक बधाई के पात्र हैं ।
पुस्तक का नाम -घुमक्कड़ी जिंदाबाद -- 3 ,संपादक - नीरज मुसाफिर ,प्रकाशक-ट्रैवलर किंग इंडिया -- देहरादून , प्रथम संस्करण - 2022 , पृष्ठ-247 , मूल्य-300 रुपए
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समीक्षक : समीक्षक- डॉ. ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
'साहित्य गुंजन' का बाल साहित्य विशेषांक
इंदौर, मध्यप्रदेश से प्रकाशित उच्च स्तरीय प्रतिष्ठित साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका 'साहित्य गुंजन' नवम्बर-22 से जनवरी-23 का 'बाल साहित्य विशेषांक' ख्यातनाम बाल साहित्य रचनाकार श्री राजकुमार जैन राजन के संपादन में प्रकाशित हुआ है। इसके प्रकाशक व प्रधान संपादक जितेंद्र चौहान हैं। इसमें बालकों, अभिभवकों, बाल साहित्य शोधार्थियों एवं साहित्यकार मनीषियों के लिए प्रचुर मात्रा में बाल कविताएं, बाल गीत, बाल कहानियां, लघु कथाएं, प्रेरक आलेखों सहित उत्कृष्ट बालसाहित्य पुस्तकों की समीक्षाएँ भी समाहित की गई हैं। विशेषांक की सामग्री पढ़कर जहां 'बालसाहित्य क्या है? बालसाहित्य की आवश्यकता क्यों हैं? वर्तमान में बालसाहित्य की दशा-दिशा क्या है?' बाबत जानकारी मिलती है वहीं मनोरंजन के साथ-साथ अच्छे संस्कार एवं जीवन मूल्य बोधक संदेशों से आप्लावित रचनाओं से रूबरू होने का सुअवसर प्राप्त होता है।
राजकुमार जैन राजन का संपादकीय 'बाल साहित्य की आवश्यकता को समझना ही होगा' बहुत उत्कृष्ट है। उनका मानना है कि, 'बालकों के लिए जीवन मूल्य बोधक साहित्य का निर्माण अधिक से अधिक मात्रा में होना चाहिए और वह बालकों के हाथों तक पहुंचना चाहिए। बालक ही देश के भावी कर्णधार हैं, उन्हें संस्कारित करना बाल साहित्यकारों का परम धर्म व जिम्मेदारी है।' राजकुमार जैन राजन स्वयं बाल साहित्य सृजन के साथ इसके उन्नयन एवं संरक्षण में लगे हुए हैं। अभी तक उनके द्वारा लगभग दस लाख रुपयों से अधिक मूल्य की बाल साहित्य की पुस्तकें विभिन्न राज्यों के पुस्तकालयों/शोध संस्थानों/ विद्यार्थियों/ शोधार्थियों को निःशुल्क भेंट की जा चुकी है जो कि सकारात्मक सोच का एक विवेकपूर्ण श्लाघनीय कदम है।
डॉ. प्रीति प्रवीण खरे का आलेख 'हिंदी बाल साहित्य देश का स्वर्णिम भविष्य', उमेश कुमार चौरसिया का 'बाल साहित्य का प्रदेय', संजू श्रृंगी का 'बाल विकास में बाल साहित्य की भूमिका', गोविंद शर्मा का चिंतन 'बाल साहित्य की समीक्षा क्यों ?', सी.एल.सांखला का आलेख 'बाल साहित्य का स्वरूप', दिविक रमेश का ' बालसाहित्य की हिंदी', डॉ. पोपट भावराव बिरारी का 'बाल साहित्य और बल मनोविज्ञान', रेखा भारती मिश्रा का 'कहानियां बाल मन को प्रभावित करती हैं' एवं डॉ. सुरेंद्र विक्रम का ' बच्चों की अनोखी पत्रिका-मुन्ना' आदि आलेख अत्यंत प्रभावशाली, सारगर्भित, जानकारी से पूर्ण हैं जो शोधार्थियों के लिए भी मार्गदर्शक है। सुरेखा शर्मा कहती है कि 'राष्ट्र की धरोहर हैं, आज के बच्चे', नीलम राकेश मुद्दा उठा रही है कि 'पहचानों बालमन की चुनौती को', डॉ. लता अग्रवाल की चिंता 'क्वालिटी टाइम देकर बच्चों का स्क्रीन टाइम कम करें', रेणु चन्द्रा माथुर एक महत्वपूर्ण विषय 'हमारे देश में बच्चों की सुरक्षा एवं परवरिश के लिए जिम्मेदार कौन ?' पर चर्चा करती है। ये आलेख बालमन की पड़ताल करते प्रेरणादायक हैं।
'बाल साहित्य के प्रतिमानों के निर्धारक: डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' (डॉ नितिन सेठी), 'बाल साहित्य परम्परा, प्रगति और प्रयोग : डॉ. सुरेंद्र विक्रम की नई पुस्तक' (डॉ. ओम निश्चल) जैसे शोध विमर्श के साथ ही 'मयंक जी के बाल काव्य में बाल मनोविज्ञान (डॉ. कामना सिंह) एवं 'डॉ. राष्ट्र बन्धु का बाल काव्य' (पद्मश्री डॉ. उषा यादव) जैसे महत्वपूर्ण आलेख भी इस विशेषांक को पूर्णता प्रदान करते हैं।
डॉ. मोहम्मद अरशद खान की बाल कहानी- 'दादी यू आर ग्रेट', डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' की- 'अनोखे सर', पवित्रा अग्रवाल की 'थोड़ी सी सूझबूझ' बाल कहानी अत्यंत मर्मस्पर्शी व दिल पर स्थायी प्रभाव डालने वाली हैं वहीं विजय जी. खत्री की 'मैं तिरंगा बोल रहा हूँ', डॉ. मंजरी शुक्ला की 'अंकल के पौधे, 'सुधीर सक्सैना 'सुधि' की ' एक टिकट: दो यात्री' एवं ताराचंद मकसाने की बाल कहानी 'कौन देखता है' भी सन्देशप्रद, बालमन की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ हैं जो बच्चों को ही नहीं बड़ों को भी पसन्द आएगी।
घमंडी लाल अग्रवाल', डॉ.अंजीव अंजुम, रुपाली सक्सेना, पूनम चौहान, श्याम पलट पांडेय, सुरजीत मान, बलदाऊराम साहू,डॉ. दिलीप धींग, अब्दुल समद राही, डॉ. सोनाली चौरसिया, दिशा ग्रोवर एवं सुरेन्द्रदत्त सेमल्टी आदि की बाल कविताएं /बाल गीत प्रेरक, मनोरंजक एवं बालमनोविज्ञान के अनुकूल श्रेष्ठ व बोधगम्य हैं जो पाठक वृन्द को अभिभूत करते हैं। विशेषांक की सामग्री पढ़ कर मन को बहुत अच्छा लगा। बाल साहित्य की 10 पुस्तकों की सुंदर व सार्थक समीक्षाओं को भी बेहतरीन तरीके से प्रकाशित किया गया है। बच्चों के लिए कुछ सुंदर कार्टून की उपस्थिति भी इस विशेषांक को भव्यता प्रदान करते हैं।
'साहित्य गुंजन' त्रैमासिक के इस बाल विशेषांक की छपाई, रचनाओं से सम्बंधित चित्र, रचनाकारों का चित्र सहित परिचय देना भी प्रेरक है।
कागज़, उच्च क्वालिटी का है। मुख्य कवर पृष्ठ जिस पर स्कूल बैग व नोटबुक लिए हुए मुस्कराते बालक का आकर्षक चित्र है, जो मन मोहक व खूबसूरत हैं। इस विशेषांक के सम्पादक राजकुमार जैन राजन व प्रधान संपादक जितेंद्र चौहान के संयुक्त प्रयास से प्रस्तुत बाल साहित्य विशेषांक बहुत यादगार, संग्रहणीय अंक बन गया है। दोनों को हार्दिक बधाई। बाल साहित्यक के समीक्षक एवं साहित्यकार मनीषी इस विशेषांक की व्यापक चर्चा करेंगे ऐसी शुभेच्छा के साथ सभी को साधुवाद।●
साहित्य गुंजन' त्रैमासिक (बालसाहित्य विशेषांक) ,प्रधान संपादक : जितेंद्र चौहान, इंदौर , विशेषांक संपादक : राजकुमार जैन राजन , आकोला , संपर्क : 73- ए, द्वारिकापुरी, सुदामा नगर पोस्ट ऑफिस, इंदौर - 422009 (मध्य प्रदेश) , अंक: नवम्बर 2022 - जनवरी 2023 , पृष्ठ संख्या : 112+ 4, मूल्य : 150/- मोबाइल
पुस्तक
समीक्षा -
अनजाने पहलुओं से परिचित कराती है यह पुस्तक
"सब मजेदारी है!" आकर्षित करता है यह नाम। हम एक क्षण सोचते हैं कि मजेदारी क्यों, मजेदार क्यों नहीं?- यही प्रश्न जगाता है उत्कंठा इस पुस्तक के अंदर झांकने को। पुस्तक को पलटते हुए आप निर्णय कर चुके होते हैं उस युवक की दृष्टि से नीलगढ़ को देखने की, जिसे कभी जीवन में नजदीक या दूर से देखने का मौका आपको भी मिला हो। फिर भूमिका खींचता है आपको अपनी तरफ, पढ़ते हुए मन आह्लादित हो जाता है और हम सफर पर जाने को तैयार होने लगते हैं। और सफर भी कैसा, जहाँ हम पक्षियों पर सवार होकर बचपन में सुनी उस जादुई जगह पहुंचते हैं, जहाँ पहुँच कर हमारा नायक ही नहीं, उसके साथ हम सब बंध जाते हैं एक जादुई मोह पाश में। फिर शिवांगी सिंह द्वारा बनाया आवरण और चित्र हमें बचपन के उन दिनों में ले जाता है जो सहज था,सरल था और प्राकृतिक था।
दिल्ली में कार्यरत युवक की काम के सिलसिले
में भोपाल यात्रा के दौरान एक सहयात्री से मुलाकात और उसके आमंत्रण पर रातापानी अभयारण्य
जाना,
उसके शोध के विषय - ' गोण्ड आदिवासी समाज के जीवन
में शासन के विकास एवं कल्याण की योजनाओं का समाजशास्त्रीय अध्ययन ' के पात्रों का उसके समक्ष उपस्थित होना और फिर अचानक मिले इस अवसर का लाभ उठाते
हुए तमाम सवालों का जवाब पाना। एक क्षण के लिए हम चौकते हैं कि यह कल्पना है या यथार्थ।
फिर उन सवालों के मध्य से कुछ जवाब ऐसे निकलते हैं जैसे बादलों के बीच से सूर्य,
जिससे चाह कर भी ऑंखें नहीं चुरा सकता कोई।
प्रकृति ने जिस प्रदेश को अद्भुत सौंदर्य
से नवाजा है,
उस सुंदरता के पीछे एक और दुनिया नज़र आती है इस युवक को, जो कि उतनी सुंदर नहीं है। भयानक गरीबी, अशिक्षा,
स्वास्थ्य सेवाओं के शत प्रतिशत अभाव वाले इस जगह भी उसकी पारखी नज़र
देखती है मनुष्य की कलात्मकता और उसकी विशेषता को सागौन के पत्तों से निर्मित छतों
के रूप में, गेरू से
बनाई चित्रकला द्वारा, स्वच्छ साफ बर्तनों एवं घिसी हुई
पुरानी लेकिन साफ धोतियों से चमकती उनके स्वच्छ्ताप्रियता को।
जिस तरह गाँधी जी के गाँधी बनने में उनके साथ रेल में घटी दुर्घटना का महत्वपूर्ण योगदान है, उसी तरह तीसरे अध्याय में हम देखते हैं कि किस तरह इस सामान्य सी यात्रा ने एक सामान्य युवक के अंदर के नायक को जागृत किया। एक क्षण के लिए उसके समक्ष कौंध गया सरकारी दस्तावेजों में लिखित और प्रचारित ढेरों योजनाएं, जिससे ऐसे कितने गांव लाभान्वित होते हैं तो दूसरी तरफ आँखों के समक्ष नग्न दिखता यथार्थ और प्रचंड अभावों के मध्य भी दृढता से जड़ जमाये सरल निश्छल लोगों का जीवन दर्शन - "सब मजेदारी है।"
तत्क्षण अचम्भित होते हैं हम कि यहाँ
भी कुछ मजेदार या मजेदारी में हो सकता है और यही उत्सुकता कायम रहती है पहले पृष्ठ
से अंतिम पृष्ठ तक। सहज ही आकृष्ट करता मुखपृष्ठ से लेकर प्रत्येक कुछ पृष्ठों बाद
अंकित कलाकृतियां,
जो हमें अपने बचपन के अंकन की याद दिलाती हैं। ध्यान से देखने पर पता
चलता है कि यह सामान्य पर असामान्य चित्रण
सहज सा अंकन मात्र नहीं है बल्कि उस खास शीर्षक वाले पाठ का अभिन्न सहयोगी है
। बीच बीच में आने वाले श्वेत श्याम पुराने चित्रों को कुछ पल देखने को हम बाध्य होते
हैं और तभी अंतर से कहीं गूंज उठती है - 'सब मजेदारी है।'
और आप चौंक पड़ते हैं इस आवाज से।
पहले अध्याय के काव्यमय शीर्षक 'वह शाम एक जादू की तरह मुखातिब थी ' और समूह में उड़ते
पक्षियों का चित्रण - हमारे मन पंछी को शब्दों के साथ उड़ा कर पहुंचा देता है नीलगढ़
और हमारे मुंह में स्वाद आने लगता है कल्ले (मिट्टी के तवे) पर सिंकी हुई रोटी का।
शहर के इस भीड़ भरे जीवन से उकताये मन को एक सुकून सा मिलता है और हमारी सारी इन्द्रियां
अचानक सजग सी हो उठती हैं इसे पढ़ते हुए। विभिन्न अध्यायों के मध्य दिखने वाले कुछ चित्र
अपनी वास्तविकता का प्रमाण देने को स्वयं आ खड़े होते हैं समय समय पर।
कुछ और बातों ने ध्यान आकृष्ट किया
कि लेखक बाल मनोविज्ञान से किस हद तक परिचित हैं और यह किताब सहज गति से बताते चलती
है कि क्या है स्थिति वर्तमान में और आदर्श स्थिति क्या होनी चाहिए। बिना किसी को गलत
ठहराये गलती की सुधार - एक योग्य संवेदनशील शिक्षक ही कर सकता है और लेखक ने हर कदम
पर यह सिद्ध किया है कि किसी बच्चे के पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए बहुत ज्ञानी
शिक्षक से कहीं ज्यादा एक संवेदनशील शिक्षक की आवश्यकता है जो उनमें ज्ञान की अभीप्सा
जगा सके। वैसे भी जिस भौतिकवादी समय में हम जी रहें, संवेदना की जरूरत किसी
भी समय से आज ज्यादा है।
कथा
के क्रम में बताए गए तरीके हमें सिखाते हैं कि एक अभिभावक के रूप में ,एक शिक्षक के रूप में, एक मनुष्य के रूप में हम उनका
अनुकरण करें। सबसे महत्वपूर्ण बात जो ग्राह्य लगी कि कभी किसी बच्चे को नीचा नहीं महसूस
कराया जाए और कोई भी नियम को कभी भी बच्चों से ऊपर नहीं माना जाए। कुछ अन्य वाक्य जो
पुस्तक को रखने के बाद भी मन मंथन करते हैं।
"सीखने सिखाने की प्रक्रिया से बच्चों की भागीदारी हटते ही सीखने की प्रक्रिया
बंद हो जाती है।......बड़ों की तरह बोल कर बच्चे अपना एतराज नहीं जताते। अक्सर ,
वे स्वयं को संवाद से अलग कर लेते हैं।" "बच्चों को बड़ों का कितना सम्मान मिलना चाहिए,
इस बात को लेकर न कोई समझ थी और ना ही आग्रह।" हमारी आँखों में बहुत से चेहरे तैर जाते हैं और
अपने व्यवहार को परिष्कृत करने का हम निर्णय लेते हैं।तभी लगता है कि लिखते समय शायद लेखक का एक मंतव्य यह
भी रहा होगा।
नीलगढ़ की कथा पढ़ने के दौरान बहुत सारी बातों
पर हमारा ध्यान जाता है जो सहज ही बहुत सी बातें हमें सिखा जाता है और एक बार फिर हम
देखने को मजबूर होते हैं इस नवयुवक की पृष्ठभूमि जो ना सिर्फ उच्च शिक्षा प्राप्त है
बल्कि जिसके पास व्यापक अनुभव है धरातल पर काम करने का और लोगों की प्रकृति की जिसे खास समझ है। बिना गए हम
नीलगढ़ के भगवत और मोहरबाई के साथ गांव के चक्कर लगाते हैं और उस शाश्वत सत्य से फिर
परिचित होते हैं कि चाहे कहीं के बच्चे हों, ऊर्जा, जिज्ञासा, आगे बढ़ने की इच्छा और विश्वास हर बच्चे की
खासियत होती है।
बीच बीच में लिखे गए कुछ व्यक्तिगत अनुभव
से आए वाक्य ना सिर्फ एक शिक्षक के लिए बल्कि समाज के लिए सूत्र वाक्य हैं -
" बच्चों के साथ व्यवहार ज्यादा दोस्ताना होना चाहिए। बच्चों पर समाज का भरोसा
भी काफी कम जान पड़ता था। मुझे लगता था कि बच्चों को ज्यादा जिम्मेदार माना जा सकता
है..."
'सब मजेदारी है! कथा नीलगढ़'
मात्र कथा ना रहकर दुनिया को बदलने में अपनी भूमिका निभाने को प्रतिबद्ध
एक नवयुवक की आंतरिक यात्रा कथा सी प्रतीत होती है जिसमें हम स्वयं एक पात्र बन शामिल
हो जाते हैं स्वयं की जानकारी बगैर। पृष्ठ दर पृष्ठ सहज भाव से कथा चलती है और साथ-
साथ पाँव पाँव चलते हैं हम भी, उस आदिम यात्री की तरह जो सांसारिक
विकास के 'व' से तो परिचित नहीं है लेकिन
मनुष्य के निरंतर विकास पर जिसका दृढ़ विश्वास है। बिना किसी संसाधन, तथाकथित सभ्य समाज से कोसों दूर मात्र अपनी इच्छा शक्ति के बल पर एक नहीं दो
गांव के बच्चों को शिक्षित करने का भार बिना किसी स्वार्थ के लेने वाला युवक अचानक
से हमारा नायक बन जाता है और वास्तविकता से परे हटकर प्रत्येक सामान्य इंसान कल्पना
करता है कि वह भी ऐसा कर रहा है।
पढ़ाने के नए तरीके हमारा ध्यान खींचते
हैं। कभी हम लालायित होते हैं इस घुमक्कड़ स्कूल के छात्र होने को, कभी आँखों के सामने आता है चिकना का काला चट्टान जो बच्चों के लिए स्लेट का
काम कर रहा होता है तो कभी इस नए शिक्षक की नई पद्धति पर बरबस मुंह से वाह निकलता है।
आसपास को पठन पाठन की सामग्री बनाता हुआ शिक्षक और उसके अभिनव प्रयोग उनको मुंह चिढाता
सा लगता है जो संसाधन के अभाव का रोना रोते हैं। उस सुदूर जंगल के सामग्री पर आधारित
कविता बनाना एक नया प्रयोग दिखता है हमें और हम बुदबुदाने लगते हैं -
"मेढकी
करती टर टर टर,
मक्खी
मच्छर घर घर घर ।"
या
"
बादल आते
बारिश
लाते
धान
रुपाते ।"
कथा में एक सतत स्वच्छ प्रवाह है जो बहाये
ले जाती है पाठक को और हमारा विश्वास दृढ़ होता है मनुष्य के असीम क्षमता पर और उसके
नेतृत्व शक्ति पर। तीन चार दिन के भूख,शारीरिक मेहनत की वजह से जब नायक को बेहोश होता देखते हैं हम, तो एक क्षण के लिए हमारे दिमाग में भी आता है कि क्यों अपना आसान जीवन छोड़
कर उसने ऐसा जीवन चुना । फिर हमारी अंतरात्मा ही जवाब देती है कि संसार में हर व्यक्ति
सिर्फ अपना सोचता तो शायद आज वैसी बहुत सी बातें नहीं होतीं जो आज हमें सहज उपलब्ध
हैं। साथ ही गूंजती हैं राष्ट्रकवि दिनकर की
पंक्तियाँ मन में - " इंसान जब जोर लगाता है, पत्थर पानी
बन जाता है। खम ठोक उतरता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़।"
यह किताब पढ़ते समय बहुत सी बातें जीवन
में उतारने की इच्छा होती है और हम चिह्न लगाते जाते हैं प्रत्येक उस वाक्य पर। फिर
अचानक लगता है कि सारे पृष्ठ के लगभग सारे वाक्यों को रंग दिया है। इसकी वजह है कि
यह कथा,
कथा से ज्यादा दस्तावेज है जहाँ नायक सिर्फ एक बड़ा लक्ष्य लेकर अकेले
उतर पड़ता है कर्मभूमि में और फिर नए सिद्धांत, नए पद्धति और नए
रास्तों की खोज स्वत: होते जाती है।
कितनी बार हतप्रभ होता है मन यह देख
कर कि बाल मनोविज्ञान की इतनी अच्छी समझ एक नवयुवक को कैसे है। फिर बहुत से भावपूर्ण
चेहरे अपनी उपस्थिति दर्ज करवा जाते हैं और कहीं पढ़ा वाक्य याद आता है कि ज्ञान और
अनुभव के लिए खास उम्र की आवश्यकता से ज्यादा विराट हृदय की जरूरत होती है।
पुस्तक मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का वर्णन ही नहीं करती बल्कि बताती है
कि कठिनाइयां जब आती हैं तो हमें समाधान ढूंढने लायक भी बना देती हैं और फिर हमें विश्वास
होता है अपनी आंतरिक शक्ति पर।
अद्भुत दिखता है यह समाधान और उस सुदूर
जंगल में पढ़ाने का अनूठा तरीका, जहाँ सहज क्रम में पाठ्यक्रम
का चयन होता है, फिर उस पर चर्चा होती है और एक विषय दूसरे विषय
के तरफ वैसे ही बहता चला जाता है जैसे निर्झर से जल।
नीलगढ़ से घोड़ापछाड़ जाने के क्रम में
इस युवा गुरुजी का बच्चों से बातचीत शुरु होना, फिर यात्रा की उपयोगिता
के बारे में बातचीत, कब से सिलसिला चल रहा उसका जिक्र,
यातायात के साधनों पैदल, साईकिल, बस, कार, पानी के जहाज,
हवाई जहाज के बारे में बातें और उसी क्रम में पहिया और उसके विकास की
कथा का आना - सब सहज आता जाता है।
175 एवं 276 पृष्ठों की यह पुस्तक हर उस
व्यक्ति को पढना चाहिए जो महसूस करना चाहता है तथाकथित विकास से अलग एक ऐसी सभ्यता
को जहां भूख,बीमारी, कठिनाइयों के बावजूद मनुष्य अपने वास्तविक गुणों
से परिपूर्ण दिखाई पड़ता है और जो विश्वास करता
है मानव के दृढ़ संकल्प शक्ति पर। हम विचरण करते है नीलगढ़ में और परिचित होते हैं
ज्योत्स्ना जी, सुषमा जी , शम्पा जी जैसे
व्यक्तित्वों से। बिहारी काका जैसे नेतृत्वकर्ता को जानते हुए हमारी स्मृतियों में
अपने गांव का भोज आता है और उस भोज के नेतृत्वकर्ता का चेहरा भी, जिसके होने से मेजबान निश्चिन्त हो जाता था। दिनेश जी जैसे बहुत से लोगों के
लिए सम्मान उमड़ता है हमारे मन में, जो बिना किसी अपेक्षा के
अपने हिस्से का काम किये चलें जाते हैं। हमें
महसूस होता है दुनिया में खूबसूरती कायम होने की वजह ऐसे लोग हैं। बीच बीच में
दिखते हैं वैसे पात्र भी, जिन्हें बिना स्वार्थ के काम करते व्यक्ति
पर संदेह होता है। लेकिन फिर से हमारा विश्वास दृढ होता है मनुष्य की अच्छाइयों पर, सच्चाई
पर।
आदिवासी जीवन के कई अनजाने पहलुओं से परिचित कराती यह है पुस्तक हमारी सोच को विस्तृत करने में अहम भूमिका निभाती है एवं थोड़ा और मनुष्य होने को प्रेरित करती है। इस किताब को पढ़ते हुए हमारा जीवन दर्शन ही बन जाता है - "सब मजेदारी है!" और विकटतम परिस्थिति में भी हमारी जिजीविषा हमें उठ कर खड़ा होने को प्रेरित करती है।
पुस्तक - सब मजेदारी है! कथा नीलगढ़ , लेखक - अनंत गंगोला , प्रकाशक - एकलव्य फाउंडेशन, भोपाल , मूल्य - ₹ 175
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पुस्तक समीक्षा
मतलब घूमने -फिरने कि कथा
करमजला : अनूठे तानो-बानो में बुनी कहानी
महेश कुमार केशरी

राघव और विभा का क्वार्टर अगल - बगल में है.दोनों एक ही कक्षा में पढते हैं . दोनों पढने में मेघावी भी हैं. राघव विभा के घर पढने के लिए जाता है. इसी क्रम में उनके बीच प्रेम हो जाता है.इधर विभा की माँ का दमे की बीमारी के कारण देहांत हो जाता है. माथुर सिन्हा बेटी के सर से मां का साया उठ जाने से विभा को और भी प्रेम करने लगते हैं. इधर विभा, राघव से गर्भवती हो जाती है!
कहने की जरूरत नहीं है कि समाज में बिन ब्याही मां का क्या स्थान होता है. राधव के पिता रघु महतो बिहारियों के विरोधी हैं क्योंकि उनकी ममेरी बहन हरहरि सिंह से फंसी हुई है. हरहरि सिंह बिहारी है और वो कोयलांचल की कामिनों का यौन- शोषण करता है. केवल हरहरि सिंह ही नहीं कोयलांचल के हर अमला -बाबू झारखंडियों के इज्जत- अस्मत लूटने के लिए लालायित है, कदाचित रघु महतो इसलिए भी बिहारियों से नफरत करते हैं.इधर विभा के पांव भारी हो जाने के कारण माथुर सिन्हा विवश हो जाते हैं और रघु महतो से राघव और विभा के विवाह की बात करते हैं , यहाँ ये बताना जरूरी है कि माथुर सिन्हा बिहार के रहने वाले हैं.इसलिए भी रघु महतो, माथुर सिन्हा से नफरत करते हैं. रघु महतो, माथुर सिन्हा के प्रस्ताव को सिरे से नकार देते हैं.इस पर राघव, विभा से दिल्ली भाग चलने की बात कहता है, विभा, राघव के साथ भागने से इंकार कर देती है. माथुर सिन्हा, रघु महतो के इंकार से टूट जाते हैं. बिचौलिए शंकर पांडे (किराना वाले) माथुर सिन्हा के सामने भैरव सिंह का प्रस्ताव रखता है कि भैरव सिंह विभा से अपने बेटे की शादी करना चाहते हैं. आरंभ में माथुर सिन्हा विभा की राय जानने के बहाने शंकर पांडे को टाल जाते हैं लेकिन कुछ समय के पश्चात विभा और भैरव सिंह के लड़के का विवाह संपन्न हो जाता है. इधर, विभा की शादी से दुखी होकर राघव जहर खा लेता है , लेकिन पडोस में रहने वाले, चाचा- चाची और पडौसियों की मदद से राघव को अस्पताल ले जाया जाता है जहाँ राघव को बचा लिया जाता है . कमलदेव( विभा के पति) को कुछ महीने बाद विभा के गर्भवती होने का पता चलता है. वो विभा से मारपीट भी करता है वो जानना चाहता है कि ये होने वाला बच्चा किसका है. विभा स्पष्ट तौर पर राघव का नाम घरलू पंचायत में ले लेती है. घरेलू पंचायत में फैसला होता है कि विभा पैसे वाले बाप की बेटी है( इसलिए दुधारू गाय की लात भी सहनी पडती है) विभा का गर्भपात करवा दिया जाए जिससे घर की इज्जत घर में ही बनी रह जाए और यदि बाद में कमलदेव का मन करे तो वो एक शादी और कर ले! लेकिन, विभा गर्भपात करवाने से साफ इंकार कर देती है. और वो कमलदेव का घर छोड़कर वापस माथुर सिन्हा के पास आकर रहने लगती है. बाद में विभा के श्वशुर विभा के पिता के पास पच्चीस- हजार रूपये की मांग जमीन खरीदने के लिए करते हैं. भैरव सिंह बहू से होने वाली गलती ( गर्भवती होने) को ढकने की कीमत के तौर पर ये पच्चीस हजार रुपये मांगते हैं लेकिन, वे इस बात को साफ - साफ कहना नहीं चाहते, लेकिन विभा इसका आशय समझते हुए माथुर सिन्हा को पैसे देने के लिए मना कर देती है.भैरव सिंह अपनी दाल गलते न देखकर विभा और उसके पिता को खरी- खोटी और उल-जलूल बकते हुए चले जाते हैं.
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महेश कुमार केशरी |
1980 के दशक के समय ही झारखंड में एक और आंदोलन चलाया जा रहा था . देवा समाज . इस समाज का मुख्य उद्देश्य था शादी के बाद एक दूसरे को छोडने के रिवाज का सामाजिक विरोध करना इसको लेकर ही और देवा समाज की स्थापना की गई थी ताकि शादी के बाद ना तो लडका, लड़की को छोड़ पाए और न ही लड़की, लडका को छोड़ पाए! रेशमा नारी उत्थान समिति की अध्यक्षा है, वो दिवाकरन की प्रेमिका भी है.
राघव को उसके पिता रघु महतो समझाते हैं, कि विभा के पेट में पल रहा बच्चा आखिर उनका ही खून है , वो राघव को विभा को अपनाने के लिए कहते हैं लेकिन राघव पिता की बात को टाल जाता है. और अचानक से रघु महतो की तबीयत ज्यादा खराब हो जाती है और उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाना पडता है.वहाँ विभा श्वशुर रघु महतो की खूब सेवा- सुश्रूषा करती है और रघु महतो के साथ उनके पूरी तरह से ठीक होने तक साथ में ही रहती है. सास नंदनी देवी विभा के सेवा -व्यवहार से तृप्त हो जाती है और ये फैसला करती हैं कि वो विभा को अपने घर की बहू बनाएंगी. बाद में वो राघव से कहती हैं कि वो विभा को अपना ले नहीं तो वो विभा की शादी माधव ( राघव के छोटे भाई) से कर देगी . राघव को अपने भाई को बलि का बकरा बनते देख राघव नंदनी देवी की बात मान लेता है और विभा से एक सादे समारोह में शादी कर लेता है. लेकिन राघव घर नहीं लौटता है वो रेशमा के पास चला जाता है.और उससे प्रेम संबंध बनाता है. वहां दिवाकरन कुछ अरसे बाद आकर रेशमा को राघव के शादी-शुदा होने की जानकारी देता है और रेशमा को भडकाता है तत्काल रेशमा राघव को भला- बुरा कहती है और उसे भगा देती है. फिर वो दिवाकरन को भी नारी उत्थान समिति की संयुक्त संयोजिकता मंजुलता के साथ छेडखानी की बात को लेकर दुत्कारती है . रेशमा दिवाकरन को नारी उत्थान समिति की बदनामी को लेकर कोसती है और दिवाकरन को भी वहां से चले जाने को कहती है.फिर उसे राघव से अपने किए गए व्यवहार की गलती का एहसास होता है और वो आत्मग्लानि के कारण राघव से माफी मांगती है. एक बार फिर से दिवाकरन रेशमा के पास आता है और रेशमा को भडकाना चाहता है, इसी बात पर राघव और दिवाकरन के बीच मारपीट हो जाती है और दिवाकरन को बेइज्जत करके रेशमा और राघव भगा देते हैं.इधर दिवाकरन को रेशमा और राघव का प्रेम खटकता है और वो गाँव वालों को भडकाता है . बाद में पंचायत तक की नौबत आ जाती है. पंचायत में राघव और रेशमा को लोग मारपीट और बेइज्जत करते हैं. इसका कारण ये होता है कि राधव और रेशमा के बीच मौसी और बेटे का संबंध होता है. लेकिन रात के अंधेरे में राघव और रेशमा रिश्तों की मर्यादा तोडते रहते है, जिससे बस्ती वालों को उनके असली रिश्ते की जानकारी मिलती है. अंततः दोनों को बेइज्जत होना पड़ता है. इधर, विभा ने एक प्यारी सी बच्ची को जन्म दिया है, नंदनी देवी पोती को पाकर खुश हैं. बहुत दिन के बाद उनके घर में बेटी आयी है वो बहुत ही ज्यादा खुश हैं. इधर, विभा की मुलाकात नर्सिंग होम में कपिल नामक कंपाउंडर से होती है. कपिल कभी -कभी विभा के घर भी आता है, इंजेक्शन लगाने. विभा का जवान मन कपिल का स्पर्श पाकर गदगद हो जाता है. प्रारंभ में कपिल का घर आना -जाना नंदनी देवी को अच्छा नहीं लगता लेकिन, राघव को रेशमा के चुंगल से जब आजादी दिलवाने को लेकर वो अपना असफल प्रयत्न करती है तब उन्हें भी विभा के नारी देह की जरूरत का एहसास हो जाता है. प्रौढ़ मन कपिल- विभा के प्रेम की शुरुआती पेंगों को भांप लेता है. वो विभा और कपिल के सामने ये प्रस्ताव रखती हैं कि अगर वे दोनों चाहे तो आपस में विवाह कर सकते हैं. लेकिन, नंदनी देवी के इतने उदार व्यवहार से कपिल नंदनी देवी के पैरों में गिरकर हृदय से गदगद होकर माफी मांगता है और नंदनी देवी भी अकेली विभा पर तरस खाकर कपिल से अनुरोध करतीं हैं - कि कभी-कभी विभा से आकर मिलते रहो. विभा का मन लगा रहेगा . कपिल उनके अनुरोध को मान लेता है.इधर नंदनी देवी दिव्या के जन्म की खुशी में और राघव और विभा की शादी के उपलक्ष्य में गाँव में एक भोज लाल भात (खस्सी का मीट और भात) का आयोजन करना चाहती हैं. लेकिन पंचायत राघव के बिरादरी के बाहर जाकर शादी करने के कारण राघव और उसके परिवार का विरोध करता है और उसे अर्थदंड भी लगाता है करीब 15 सौ रूपये ! नंदनी देवी इसका पुरजोर विरोध करती हैं . इघर समाज के लोगों से प्रताडित होकर राघव जब अपने घर लौटा तो वो अपनी बेटी दिव्या को देखकर हृदय से गदगद हो गया. कुल मिलाकर करमजला उपन्यास एक बार पढने लायक है.
पुस्तक समीक्षा

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जाहिद खान |
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राज गोपाल सिंह वर्मा |
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पुस्तक समीक्षा
सपनों के सच होने तक’ : मानवीय संवेदनाओं
एवं सामाजिक सरोकारों का सशक्त दस्तवेज
राजकुमार जैन राजन का कविता संग्रह ‘सपनों के सच होने तक’ अयन प्रकाशन ,दिल्ली के माध्यम से साहित्य जगत में प्रवेश कर चुका है | फ्लैप पर वरिष्ठ साहित्यकार जितेन्द्र निर्मोही के स्नेहसिक्त सन्देशयुक्त इस कविता संग्रह में इक्यावन कवितायेँ है | कवर पेज भी आकर्षक है | भाषा की प्रांजलता आरंभ से ही पाठक को आकर्षित करती है | छंदमुक्त कविताओं के इस संग्रह में कवि ने जीवन के हर पहलू को छूने का प्रयास किया है | भोगा हुआ यथार्थ, प्रेम ,समर्पण ,स्त्री-पुरुष सम्बन्ध ,आध्यात्म ,धर्म,मानवता,स्वार्थ,नारी,युवा,राष्ट्रीयता,आशा और निराशा जैसे विषयों पर भावो को शब्द देने का कवि ने प्रयास किया है | नए –नए बिम्बों के माध्यम से कवि नदी की धारा की तरह कभी किनारों में मध्य बहता तो कभी तटों को तोड़ता हुआ कविताओं के गहन अवलोकन की आशा करता है | कवि संवेदनशील है और होना भी चाहिए | जैसा कि संग्रह का शीर्षक है ,कवि जीवन के कटु यथार्थ को जीता हुआ स्वप्न देखता और उनके साकार होना की कामना करता है | ‘मानवता का पुनर्जन्म” कविता द्वारा आज के इस भौतिक युग में मरती हुई संवेदनाओं को अभिव्यक्ति देते हुए कवि कहता है ...
"आत्मा के अँधेरे कोने में /चेतना की लौ /कभी धुंधली हो गई है /संवेदना ,अपने मृत हो जाने का /शंखनाद कर रही है" |इसी कविता में श्रम के महत्व को भी रेखांकित करता है यह कहकर ...
"फूल खिल जाता है /सूरज बन चमकता /पसीने का श्रृंगार बन / देह पर उभरता है" | इन पंक्तियों में एक नया बिम्ब उकेरा है ‘पसीने का श्रृंगार’|
कविता हमेशा हारे का हरिनाम होती है | जब निराशा के बादल घिरे हो तो कविता ही आशा का संचरण करती है | वह मनुष्य को हालात से लड़ने का साहस और औजार भी उपलब्ध कराती है | वह तिनकों में एक बड़े लट्ठे की शक्ति उत्पन्न कर देती है और एक जुगनू भी अंधियार से लड़ने के लिए तैयार हो जाता है ...संवेदनाओं की फसल की निम्नांकित पंक्तियाँ यही कह रही है .........".जगमगाते हुए जुगनुओं ने /अंधेरों के खिलाफ / लड़ाई छेड़ डी / और कई घर उजड़ने से बच गये"
मनुष्यता को बचाने की जंग मनुष्य के अस्तित्वकाल से हो रही है | साहित्यकार /कवि इस जंग में हमेशा योद्धा की भांति मोर्चे पर सबसे आगे दिखता है | राजकुमार जैन राजन इन पंक्तियों के माध्यम से जुगनुओं अर्थात आम आदमी से मानो स्वयं को बचाने के लिए ईर्ष्या, फिरकापरस्ती , राजनैतिक छल ,सामाजिक और आर्थिक विषमताओं के विरुद्ध इस युद्ध में कूदने का अवाहन कर रहे हैं | यह बड़ी जंग है जिसमें हार से सम्पूर्ण मानव जाति के विद्ध्वंस का खतरा सन्निकट है | आज सत्य बोलना मानो अपने अस्तित्व को स्वयं चुनौती देना है | इस विचार को उनकी कविता ‘मेरे भीतर बहती है नदी’ की इन पंक्तियों से बल मिलता है जिसमें उनकी विवशता साफ़ झलकती है जब वे कहते है ...."अपने आप से जूझना /अपने विरुद्ध हो जाना / कितना मुश्किल है"
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रामकिशोर उपाध्याय |
यह विवशता मात्र उनकी नहीं है बल्कि यह उस पूरे वर्ग की है जो सत्य और न्याय का पोषक है और हर प्रकार के अत्याचार और अन्याय का विरोधी हैं | उनकी एक कविता है "आखिरी बार" . उसमें वह सामाजिक और आर्थिक विषमता का जिक्र में नये बिम्ब का प्रयोग करते हुए लिखते हैं...."तुमने अपने बदन को /कीमती सुंदर शाल से ढक रखा था / और मैं फटे कोट के साथ /अपने गंदे टोप से /गर्मी महसूसने की /नाकाम कोशिश कर रहा था "|
कुछ ऐसी ही बात एक अन्य कविता ‘नये युग की वसीयत’ में कहते हैं...किससे कहता अपनी व्यथा /फ़ैल रही इन विद्रूपताओं और कर्जदारों के डर से /मैंने अपने आप को /मुर्दा घोषित कर दिया|" कवि हर प्रकार के अतिवाद से बचता हुआ मध्य मार्ग को अपनाना चाहता है | यह उस व्यवस्था के प्रति छटपटाहट है जो धार्मिक बाह्य आडम्बरों से बोझिल है | और आडम्बर उसे उसके मानव होने के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हो तो "समर्थन" कविता में कवि कुछ यूँ लिखकर अपनी पीड़ा व्यक्त करता है ..."जीवन के कुछ पल /अपने अस्तित्व बोध में /ऐसे भी होते हैं /जिनमें हम/ बुद्ध बन जाने को/ विवश होते हैं |" कवि जीवन के नये अर्थ तलाशता हुए कहता है कि ..."खुद से खुद की / लड़ाई लड़ते –लड़ते टूटने पर ही /नव सृजन होता है /वह सृष्टि का /अंतिम बिंदु होता है |" (पुनर्जन्म कविता ) |
उनकी एक कविता है "जीवन और नदी" | यह बहुत ही प्यारी कविता है क्योंकि इसमें प्रवाहमन नदी और मानव जीवन की निरंतरता एवं क्षणभंगुरता का उद्घोष है ..."इसके तटबंधो / अब कुंठा का अभिनय है /समुद्र में मिल जाने को /परायण की पीड़ा है /मिट जाने का गम है / और ..और /मैं सोचता हूँ /कितना साम्य है /जीवन और नदी में |" यह कविता कवि राजन के दार्शनिक चिंतन की अभिव्यक्ति है | नारी और नारी पीड़ा उनकी रचनाओं में मुखरता से अभिव्यक्त हुई है | "औरत" में कवि कहते है ..."जीवन के पिंजरे में /सामाजिक मानदंडों के /खोल चढ़ा / अभिशप्त परम्पराओं के /बन्धनों में छटपटा रही / मैं एक औरत हूँ |" वह नारी के सम्मान से अधिक उसकी पुरुष से समानता के पक्षधर है और उसके जीवन में महत्व को रेखांकित करते हुए कहते है ..."स्त्रीत्व के ऋण से /कभी पार न पा सकोगे /अन्यथा / हमारे होने का अर्थ ही मिट जायेगा / और सृष्टि चक्र /एक पल में रुक जायेगा |" भाग्य , सम्भावना ,समय ,अख़बार जैसे विषयों पर उनकी लेखनी से सशक्त रचनाओं का सृजन हुआ है | ‘इशारों को अगर समझो’ में कवि ने अंधाधुंध विकास पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए मनुष्य को इसके खतरों के प्रति सचेत किया है | नयी पीढ़ी’ में वर्तमान युवा पीढ़ी की दयनीय स्थिति का चित्रण करते हुए कहते है ..."सुबह से शाम तक /यंत्रवत/ कम्यूटरों में दिए गये सिर/ जिंदगी की मृगमरीचिका में / भटकते रहते है/ यश और धन की चाह में /आज के नवयुवक |" इस साइबर युग ने युवा पीढ़ी के सामान्य जीवन को लील लिया है ,| उसका अपने स्वस्थ्य के लिए सुबह का घूमना ,पत्नी .बच्चों और माता पिता के साथ उठना बैठना तक छिन गया है |
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राजकुमार जैन राजन |
"अतीत की वादियों में /भटकता हुआ /मौसम बेअसर /और उग आये हो पंख पैरों में / उम्मीदों के शिशु थामे हुए /चलते जाना है /सपनों के सच होने तक |" (सपनों के सच होने तक ) |
कुल मिलाकर यह अच्छी कविताओं का इन्द्रधनुषी पठनीय संग्रह है | कवितायेँ अपने समय का कच्चा चिटठा होती है जिसमें कवि के द्वारा उसकी भावभूमि के अनुसार समसामयिक घटनाओं और विसंगतियों का कलात्मक चित्रण होता है | राजकुमार जैन राजन ने अपने समय की नब्ज़ टटोलने का इस संग्रह में सार्थक प्रयास किया है | उन्होंने मानवीय संवेदनाओं एवं सामजिक सरोकारों को बेहद नाजुक ढंग से समझते हुए अभिव्यक्त किया है | बहुत दिनों के बाद ऐसी कवितायें पढने को मिली है ,जिसके लिए कवि राजकुमार जैन राजन बधाई के पात्र है |
समीक्षक ● रामकिशोर उपाध्याय
समीक्ष्य कृति : सपनों के सच होनें तक (कविता संग्रह),रचनाकार : राजकुमार जैन राजन , प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20- महरौली, नईदिल्ली - 110030,पृष्ठ : 130, मूल्य :260/- (सजिल्द)
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पुस्तक समीक्षा
मानवीय मूल्यों, उच्च आदर्शों और राष्ट्रीयता का जीवंत दस्तावेज है- 'जीना इसी का नाम है'
'जीना इसी का नाम है' राजकुमार जैन राजन का सद्य: प्रकाशित आलेख-संग्रह है। जैसा कि लेखक ने स्पष्ट किया है कि ये आलेख पिछले 30 वर्षों के कालखंड में अलग-अलग समय और अवसरों पर विभिन्न पत्रिकाओं का संपादकीय दायित्व निभाते हुए लिखे गए हैं, वे पुस्तकाकार में आज हमारे सामने हैं। राजन बाल साहित्यकार के रूप में भी जाने जाते हैं, लेकिन इस आलेख संग्रह को पढ़ने से उनका एक नया रूप हमारे समक्ष प्रकट होता है और वह है एक निबन्धकार का रूप, जो धीर है, गम्भीर है और समाज में घटित होने वाली घटनाओं के प्रति सजग भी है। राजन का दृष्टिकोण साफ एवं शीशे की तरह पारदर्शी है, उनकी सोच सकारात्मक है। अपने आत्मकथ्य में वे कहते हैं- ' जीवन की सुन्दरता इतनी सुन्दर वह आकर्षक नहीं है। सब कुछ हमारी आशाओं के अनुकूल नहीं होता। 'दिया तले अंधेरा' वाली कहावत हमारे जीवन में चरितार्थ होती है, तब जन्म लेती है लेखक की पीड़ा, दर्द, भावों में निराशा का प्रतिबिंब लिए वे शब्द जो अंधेरे में रोशनी बन दिल की गहराइयों को छू जाते हैं, जीवंतता के लिए आशा की किरण बन प्रस्फुटित होते हैं।'
इस पुस्तक में 29 आलेख हैं। 'पहले बर्तन का निर्माण करें' से शुरुआत करते हुए लेखक का कहना है- 'यह पूरी सृष्टि रचना का ही पर्याय है। यहां जो कुछ भी है मनुष्य से लेकर प्रकृति तक, वह एक विशिष्ट प्रयोजन से है। उसके होने में उसकी पूरी गरिमा और अर्थवत्ता निहित है।'
चांद, सूरज और बादल का दृष्टांत देते हुए उन्होंने यह संदेश दिया है कि हम दूसरों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हुए जियें। 'जीवन की समग्रता के बारे में सोचें' लेख में उन्होंने 'सुपर लर्निंग' की बात की है। उनके अनुसार इतनी शिक्षा के बावजूद आज समाज में हिंसा और अशांति बढ़ती ही जा रही है। सुपर लर्निंग मनुष्य की ऊर्जा का परिवर्तन कर उसे शक्तिशाली तो बना सकता है लेकिन उसे जीवन का आनंद नहीं दे सकता, अक्षरशः सत्य है।
'नारी ने विकास के नए आयामों को छुआ है' आलेख में उन्होंने नारी के विकास के लिए चार तत्त्वों को अहम बताया है- शिक्षा, दृढ़ इच्छाशक्ति, स्वावलम्बन और स्वतंत्रता। इसके साथ ही वे लिखते हैं कि, नारी का असली सौंदर्य शरीर नहीं, शील है। नारी अस्मिता के ख़तरे से नारी को स्वयं ही बचाना होगा। इसके साथ ही वे भारतीय नारी को पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण से बचने की और वैभवशाली वैदिक युग के उत्तम आदर्शों को ग्रहण करने की सीख देते हैं। वर्तमान दौर में रिश्तों की संजीदगी, सम्बन्धों की भावनात्मक ऊर्जा शनै-शनै अपना स्वरुप खोती जा रही है, लेखक इससे चिंतित है और इसलिए वह कहता है- 'रिश्तों को डिस्पोजल होने से बचाएं।'
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सरिता सुरणा |
आज़ के भौतिकवादी युग में माता-पिता बालक को इंसान बनाने की जगह मशीन बनाने में लगे हुए हैं, उन्हें संस्कारित करने के बजाय डिजिटल बना रहे हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि संस्कारों का बीजारोपण सद्साहित्य से होता है न कि डिजिटल किताबों से। अगर राष्ट्र को सुदृढ़ बनाना है तो बच्चों को सबल बनाना होगा। वे ही हमारे भविष्य के कर्णधार हैं, कुछ इसी तरह के भाव पढ़ने को मिलते हैं- 'किताबें दिल और दिमाग को रोशनी देती है' आलेख में। 'व्यर्थ को दें अर्थ, बनेंगे समर्थ' लेख लेखक के अध्यात्मवादी चिंतन को पुष्ट करता प्रतीत होता है। इसमें वे व्यक्ति के चारित्रिक एवं नैतिक उत्थान की तथा मानवीय मूल्यों के प्रतिष्ठापन की बात करते हैं। इसका सार तत्त्व यही है- राष्ट्रहित सर्वोपरि है, पहले राष्ट्र फिर धर्म और मान्यताएं। कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, व्यक्ति अपने जीवन का स्वयं वास्तुशिल्पी है, सफलता का मार्ग स्वयं ही प्रशस्त होता है तथा आगे बढ़ने के लिए पुरुषार्थ होना चाहिए, जैसे लेख व्यक्ति को सफलता के पथ पर अग्रसर होने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। लेखक का मानना है कि बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़कर एवं परीक्षाएं देकर व्यक्ति डिग्रियां तो बटोर सकता है लेकिन पंडित नहीं बन सकता। पंडित वह होता है, जो प्रेम की भाषा बोलता है और यही विचार 'सत्य हमारी सभ्यता और संस्कृति का सार है', में लेखक ने व्यक्त किए हैं। हम जीवन की समग्रता के बारे में सोचें, सद्गुणों से जीवन को महकाएं, स्वयं का जीवन निर्माण करें जैसे लेखों में लेखक की चिंता यही है कि भौतिकवाद की चकाचौंध को पाने में ही मनुष्य की सम्पूर्ण शारीरिक और मानसिक क्षमता व्यय हो रही है और उसका भावनात्मक पक्ष नगण्य होता जा रहा है। 'जीवन में जितनी सादगी और संतोष होगा, उतना ही सुख होगा।'
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राज कुमार जैन |
पुस्तक: जीना इसी का नाम है , लेखक: राजकुमार जैन राजन ,प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली,
नई दिल्ली- 110030 , संस्करण: 2020 ,मूल्य: 200/- (सजिल्द)
समीक्षक : सरिता सुराणा , वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखिका , हैदराबाद
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राम नगीना मौर्य |
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प्रो.गोपाल शर्मा |
8 टिप्पणियाँ
इस वैश्विक महामारी में भी आप ने हम साहित्य प्रेमियों के लिए पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाई इसके लिए आपके अखिल संपादक मंडल को साधुवाद। सादर प्रणाम
जवाब देंहटाएंनिषाद जी, आप की बहुमूल्य टिप्पणी के लिए आप का आभार । बस एक दो दिनों में'कहानियाँ' स्तम्भ में आप देश-विदेश के प्रतिष्ठित कथाकारों की कहानियों का भी आनंद उठा सकेंगे।
हटाएंकोरोना संकट के इस संक्रमण काल में आपका यह प्रयास प्रशंसनीय है। बहुत-बहुत साधुवाद।
जवाब देंहटाएंजी आप का आभार । बस एक दो दिनों में'कहानियाँ' स्तम्भ में आप देश-विदेश के प्रतिष्ठित कथाकारों की कहानियों का भी आनंद उठा सकेंगी ।
हटाएंआपने हमारे कविता संग्रह "सपनों के सच होने तक " एवम आलेख संग्रह " जीना इसी का नाम है" पर वरिष्ठ रचनाकारों की समीक्षाएं प्रकाशित कर मुझे ऊर्जा, प्रेरणा, सम्बल प्रदान किया इसके लिए सम्पूर्ण "प्रणाम पर्यटन" टीम सहित समीक्षकों का हृदय से आभरी हु।धन्यवाद
जवाब देंहटाएं●राजकुमार जैन राजन, आकोला ,राजस्थान
राजन भाई ,आप जैसे साहित्यनुरागियों की वजह से साहित्य का आकाश जगमग कर रहा है । आप का आभार । बस एक दो दिनों में'कहानियाँ' स्तम्भ में आप देश-विदेश के प्रतिष्ठित कथाकारों की कहानियों का भी आनंद उठा सकेंगे।
हटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंआप का बहुत बहुत आभार । बस एक दो दिनों में'कहानियाँ' स्तम्भ में आप देश-विदेश के प्रतिष्ठित कथाकारों की कहानियों का भी आनंद उठा सकेंगे।
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